नई दिल्ली।। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि वोटरों को नेगेटिव वोट डालकर सभी उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने का अधिकार है। कोर्ट ने चुनाव आयोग को वोटरों को ईवीएम में 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प देने को कहा है। चुनाव सुधार की दिशा में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को मील का पत्थर माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला एनजीओ पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की याचिका पर दिया। गौरतलब है कि चुनाव आयोग 2001 में ही यह प्रस्ताव सरकार को भेज चुका था, लेकिन सरकारें इसे दबाए बैठी रहीं।ईवीएम में 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प होने के बाद वोटर आसानी से अपने क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों को खारिज कर सकेंगे।
अभी इसके लिए काफी लंबी प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। दरअसल, वोटरों के पास रूल नंबर 49-ओ (O) के तहत नेगेटिव वोटिंग का अधिकार पहले से ही है। इसके तहत वोटर को फॉर्म भरकर पोलिंग बूथ पर चुनाव अधिकारी और एजेंट्स को अपनी पहचान दिखाकर वोट डालना होता है। इस प्रक्रिया की खामी यह है कि पेचीदा होने के साथ-साथ इसमें वोटर की पहचान गुप्त नहीं रह जाती।सुप्रीम कोर्ट ने ताजा फैसले को लागू करने को लेकर कोई समयसीमा तय नहीं की है। इसलिए, अभी यह तय नहीं है कि यह फैसला अगले आम चुनाव तक लागू हो जाएगा या नहीं। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को इस फैसले को लागू करने करने में मदद करने को कहा है।
चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम की अगुआई वाली बेंच ने कहा कि नेगेटिव वोटिंग से चुनावों में शुचिता और जीवंतता को बढ़ावा मिलेगा तथा व्यापक भागीदारी भी तय होगी, क्योंकि चुनाव मैदान में मौजूद प्रत्याशियों से संतुष्ट नहीं होने पर वोटर प्रत्याशियों को खारिज कर अपनी राय जाहिर करेंगे। बेंच ने कहा कि नेगेटिव वोटिंग की अवधारणा से चुनाव प्रकिया में बड़ा बदलाव होगा, क्योंकि राजनीतिक दल साफ छवि वाले प्रत्याशियों को ही टिकट देने के लिए मजबूर होंगे। वोटिंग का अधिकार सांवैधानिक अधिकार है, तो उम्मीदवार को नकारने का अधिकार संविधान के तहत अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार है।
बेंच ने कहा, 'नेगेटिव वोटिंग 13 देशों में प्रचलित है और भारत में भी सांसदों को संसद भवन में मतदान के दौरान 'अलग रहने' के लिए बटन दबाने का विकल्प मिलता है। लोकतंत्र पसंद का मामला है और नेगेटिव वोट डालने के नागरिकों के अधिकार का महत्व व्यापक है। नेगेटिव वोटिंग की अवधारणा के साथ चुनाव मैदान में मौजूद प्रत्याशियों से असंतुष्ट वोटर अपनी राय जाहिर करने के लिए बड़ी संख्या में आएंगे, जिसकी वजह से विवेकहीन तत्व और दिखावा करने वाले लोग चुनाव से बाहर हो जाएंगे।'
बेंच ने हालांकि इस बारे में कुछ साफ नहीं किया कि 'कोई विकल्प नहीं' के तहत डाले गए वोटों की संख्या अगर प्रत्याशियों को मिले वोटों से अधिक हो तो क्या होगा। बेंच ने कहा कि 'कोई विकल्प नहीं' कैटिगरी के तहत डाले गए वोटों की गोपनीयता निर्वाचन आयोग को बनाए रखनी चाहिए।
चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया को गोपनीय और सुविधाजनक बनाने के लिए 10 दिसंबर 2001 को ही ईवीएम में उम्मीदवारों के नाम के बाद 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प देने का प्रस्ताव सरकार को भेजा था, लेकिन इन 12 सालों में इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने वोटरों को यह अधिकार दे दिया।
चुनाव सुधारों की मांग कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि किसी क्षेत्र में अगर 50% से ज्यादा वोट 'इनमें से कोई नहीं' के ऑप्शन पर पड़ता है, तो वहां दोबारा चुनाव करवाना चाहिए। अभी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह मतदाता का अधिकार है कि वह सभी उम्मीदवारों को खारिज कर सके। चुनाव आयोग ने भी इसका समर्थन किया था और सुझाव दिया था कि सरकार को ऐसा प्रावधान करने के लिए कानून में संशोधन करना चाहिए। हालांकि, सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की।
बेंच ने कहा, 'नेगेटिव वोटिंग 13 देशों में प्रचलित है और भारत में भी सांसदों को संसद भवन में मतदान के दौरान 'अलग रहने' के लिए बटन दबाने का विकल्प मिलता है। लोकतंत्र पसंद का मामला है और नेगेटिव वोट डालने के नागरिकों के अधिकार का महत्व व्यापक है। नेगेटिव वोटिंग की अवधारणा के साथ चुनाव मैदान में मौजूद प्रत्याशियों से असंतुष्ट वोटर अपनी राय जाहिर करने के लिए बड़ी संख्या में आएंगे, जिसकी वजह से विवेकहीन तत्व और दिखावा करने वाले लोग चुनाव से बाहर हो जाएंगे।'
बेंच ने हालांकि इस बारे में कुछ साफ नहीं किया कि 'कोई विकल्प नहीं' के तहत डाले गए वोटों की संख्या अगर प्रत्याशियों को मिले वोटों से अधिक हो तो क्या होगा। बेंच ने कहा कि 'कोई विकल्प नहीं' कैटिगरी के तहत डाले गए वोटों की गोपनीयता निर्वाचन आयोग को बनाए रखनी चाहिए।
चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया को गोपनीय और सुविधाजनक बनाने के लिए 10 दिसंबर 2001 को ही ईवीएम में उम्मीदवारों के नाम के बाद 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प देने का प्रस्ताव सरकार को भेजा था, लेकिन इन 12 सालों में इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने वोटरों को यह अधिकार दे दिया।
चुनाव सुधारों की मांग कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि किसी क्षेत्र में अगर 50% से ज्यादा वोट 'इनमें से कोई नहीं' के ऑप्शन पर पड़ता है, तो वहां दोबारा चुनाव करवाना चाहिए। अभी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह मतदाता का अधिकार है कि वह सभी उम्मीदवारों को खारिज कर सके। चुनाव आयोग ने भी इसका समर्थन किया था और सुझाव दिया था कि सरकार को ऐसा प्रावधान करने के लिए कानून में संशोधन करना चाहिए। हालांकि, सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें