सोमवार, 9 सितंबर 2013

क्षमा करना और क्षमा देना ही धर्म है- साध्वी प्रियरंजनाश्री




क्षमा करना और क्षमा देना ही धर्म है- साध्वी प्रियरंजनाश्री

पर्युषण पर्व के अंतिम दिन भक्तों की भीड़ उमड़ी


बाड़मेर। जैन समाज की आस्था एवं तप का महापर्व पर्युषण पर्व के अंतिम दिन थार नगरी बाड़मेर में विशेष तपस्या और उपवास, पौषध की बहुत बड़ी आराधना हुर्इ। पर्वाधिराज पर्युषण के अंतिम दिन एवं संवत्सरी महापर्व होने के कारण जैन धर्म के धर्मावलमिबयों की जिनालयों में भीड़ उमड़ पड़ी। संवत्सरी महापर्व होने के कारण मंदिरों में पूजन की वेशभूषा पहने भä जिनालयों एवं दादावाड़ी में पूजा करने की अपनी बारी का इंतजार करते नजर आये, जो दिन भर प्रभु दर्शन, सेवा पूजा, चैत्य वंदन आदि हेतु श्रद्धालुगण कतारों में खड़े रहे।

आराधना भवन में साध्वी प्रियरंजनाश्री ने अपने प्रवचनों में फरमाया कि जैन दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जो व्यä मिनोयोग पूर्वक कल्पसूत्र का 27 बार श्रवण करता है, वह मोक्ष का अधिकारी बनता है। पयर्ुषण महार्पव का अंतिम दिन सांवत्सरिक पर्व का होना है। यों कहना चाहिये कि वह दिन ही मुख्य है, इसके पूर्व के सात दिन आज के दिन को पूर्णता प्रदान करने की भूमिका थे। संवत्सरी का अर्थ है- वर्ष का अंतिम दिन! इस दिन साल भर का हिसाब किताब पूरा कर लेना हैं कल से नया खाता खुलेगा। नये बहीखाते होंगे। पर इस नये बहीखाते में पुराने बहीखाते की बैलेंस शीट नहीं होगी। यदि बैलेंस शीट आ जायेगी तो नये बहीखाते का प्रयोग व्यर्थ हो जायेगा। साल भर में व्यकित ने जो भी वैर विरोध किया हो उसे आज क्षमा कर देना है। त्रुटि तुमसे औरों के साथ हुर्इ है तो क्षमा मांग लेना हैं। और यदि औरों की त्रुटि तुम्हारे साथ हुर्इ हो तो क्षमा कर देना है। फिर उसमें यह अहंकार नहीं आना चाहिए कि उसने तो क्षमा मांगी नहीं, फिर मैं क्यो क्षमा दूं। तुम अपने âदय से क्षमा कर लो। मांगने की चाह रखना तो सौदेबाजी होगी। वह केवल तुम्हारे अहंकार का पोषण करेगी। मनुष्य समाज में जीता है। सबके साथ सके बीच जीता है। सहयात्रा में जाने-अनजाने पारस्परिक ठाकरें लगनालगाना जारी रहता हैं। टकराहट का यह सिलसिला अनंत काल से चल रहा हैं। कषाय वृत्ति की मानसिकता के कारण व्यकित को एक दूसरे को टक्कर मारने से बड़ा रस आता हैं। जब विवेक जग जाता है तब समझ लेता है कि हर टक्कर आखिर लौट कर उस पर ही हमला करती हैं। इसी समझ किवा विवेक से शकित की विकास यात्रा का प्रारंभ होता है। इस विवेक के अभाव में तो व्यकित ''र्इंट के बदले पत्थर के सिद्धान्त पर ही चलता है।

फूल बोने वाले को सदा फूल मिलता है जबकि कांटा बोने वाले को त्रिशूल प्राप्त होता हैं। तथापि संसार के स्वार्थों की परिधि में उलझा व्यकित भूले कर ही डालता है। तब याद में अपनी उन त्रुटियों का परिणाम भी भोगना ही पड़ता है। कुछ व्यकित इस प्रकार के होते है जो गलती को प्रेरणा मानकर उससे लाभ उठाते हुए आगे के लिये सावधान हो जाते है। लेकिन ऐसा तभी संभव हो पाता है जब व्यकित के अपनी गलती का अहसास हो। जिन्हें अपनी त्रुटियों का कोर्इ अहसास ही नहीं है, वे जीवन में ठोकरे खाते ही रहते है। मानवीय चेतना में देवत्व का विकास गलती न दोहराने के निर्णय की दृढ़ता से होता है। विकास यात्रा का प्रमुख पड़ाव क्षमायाचना है। निश्चय ही क्षमा भाव मैत्री की ओर उठा हुआ एक दृढ कदम है। इससे टूटे दिल फिर जुड़ जाते है। और जीवन की गाड़ी पुन: उसी रफ्तार से प्रेम और मैत्री की पटरी पर दौड़ने लगती है।

कल्पसूत्र में एक ऐतिहासिक घटना का उल्लेख हुआ है। राजा उदयन का और राजा चण्डप्रधोत दोनो ही परमात्मा महावीर के अनुयायी थे। किसी प्रसंग को लेकर दोनों में परस्पर विवाद छिड़ गया। विवाद ने युद्ध का रूप धारण कियां उसमें राजा चंडप्रध़ोत हार गया। उदयन ने उसे कैद कर लिया। उसे बंदी बनाकर राजा उदयन अपने नगर की ओर लौट रहा था कि बीच में ही पयर्ुषण महापर्व आ गया। राजा उदयन ने सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते हुए सभी जीवो से क्षमायाचना कील, मिच्छामिदुक्क्डम मांगा। उसी क्रम में उसने राजा चंडप्रधोत से भी क्षमायाचना की। चंडप्रधोत ने व्यंग्य करते हुए कहा- तुमने मुझे बंदी बना कर रखा हैं। ऊपर से मिच्छामिदुक्कडम भी करते हो। यह कैसी क्षमायाचना है?

राजा चंडप्रधोत की बात राजा उदयन के दिल पर चोट कर गर्इ। चिंतन ने करवट ली। उसी क्षण उसे चंडप्रधोत को बंधन मुक्त कर दिया। वैर समाप्त हो गया। प्रेम की धारा चारों और फूट पड़ी। पयर्ुषण महापर्व में हमें बीते वर्ष के समस्त कषायभावों का शमना करना है। कषाय हमेशा अहंकार से भरी पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता से जन्मते है। 'मुझे उसने ऐसा क्यों कहा इस कषाय के उदभव में 'मुझे शब्द इस बात का धोतक है कि तुम्हारी मानसिकता कुछ और सुनने की थी।

परिसिथतियों से प्रभावित होने वाला मानस अपने आपको नहीं देख पाता। वह सदा दूसरों में उलझता है और यही कषाय उदभव का हेतु है। जहां अन्तर चेतना स्व को महत्व देने लगती है, वहां आचरण सहजता से रूपान्तरित होने लगता है।

पयर्ुषण महापर्व का संदेश है- हमें शब्द में नहीं भाव में जीना है। आचरण बिना का उपदेश व्यर्थ है। ठीक उसी प्रकार क्षमा का प्रयोग भी âदय से होना चाहिये। उपदेश आचरण में व्यक्त होना चाहिए। 'मिच्छामि दुक्कड़म शब्द का प्रयोग अन्तर के आचरण से जुड़ हुआ होने चाहिए। आज संवत्सरी का पावन पर्व है। इस सूत्र का पाठ करते हुए अपने चित्त को भी उसमें पूर्णता के साथ जोड़ना है-

खामेमि सव्वजीवे सव्वे जीवा खमंतु मे।

मित्ति में सव्व भूएसु वेरं मज्झ न केणइ।।

अर्थात मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरा किसी के साथ वैर नही है। सब जीवों के साथ मेरी मैत्री है। इस पध के अर्थ का चिंतन कर सच्ची क्षमायाचना करनी है। तभी हमारे दिन के आंगन में प्रेम के पुष्प पल्लवित होंगे।

पूज्या साध्वी प्रियषुभाजंना श्री ने आज मूल बारसा सुत्र का कठस्थ वाचन किया तथा विभिन्न लाभार्थियों ने चित्रपटट के दर्षन करवाये। आज बड़ी संख्या में उपवास, पोषद रखे गये। सायंकालीन का बड़ा प्रतिक्रमण किया गया जिसमें लगभग 10,000 श्रावक-श्राविकाओं ने सामूहिक प्रतिक्रमण किया और अपनी भूलों पर क्षमा मांगी और क्षमा किया।



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