रविवार, 14 जुलाई 2013

और फिर कभी भी नहीं आएगा टेलीग्राम

भारत के दूरदराज के इलाकों को 160 सालों से ज्यादा समय तक एक-दूसरे से जोड़कर रखने वाली टेलीग्राम सेवा सोमवार को हमेशा के लिये बंद होने जा रही है।Image Loading

टेलीग्राम सेवा का संचालन करने वाली कंपनी भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) ने बताया कि टेलीग्राम प्रणाली के जरिये आखिरी तार सोमवार 15 जुलाई तक पहुंचेगा। इसके बाद गौरवशाली इतिहास रखने वाली यह सेवा इतिहास के पन्नों, लोगों की यादों तथा संग्रहालयों तक ही सिमट कर रह जायेगी।

टेलीग्राम सेवा ऐसे समय पर बंद होने जा रही है जहां बड़े शहरों में तो इंटरनेट जैसे सूचना संप्रेषण के तीव्र विकल्प मौजूद हैं, वहीं इसके बंद होने का विरोध करने वालों का मानना है कि अब भी दूरदराज के कई इलाके ऐसे हैं जहां अब भी इसकी बेहद जरूरत है। बीएसएनएल का कहना है कि उसे तार सेवा की वजह से सालाना तीन सौ से चार सौ करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है।

तार सेवा भारत का पुराना संचार माध्यम है। देश का पहला तार पांच नवंबर 1850 को तत्कालीन कलकत्ता से 50 किलोमीटर दूर स्थित डायमंड हार्बर के बीच भेजा गया था और इसके पांच वर्ष बाद इस तीव्र संचार माध्यम को आम जनता के लिये खोल दिया गया। अंग्रेज राजसत्ता भारत में सिर्फ तार सेवा की वजह से ही कायम रह सकी, क्योंकि जब-जब इसे युद्धों का सामना करना पड़ा तो यह संदेश पहुंचाने की अपनी महारत के बल पर अपने शत्रुओं से कई कदम आगे थी।

भारत में जब 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो मेरठ से चले क्रांतिकारी सिपाहियों के रवाना होने की सूचना पहले ही तार के जरिये दिल्ली के लोथियान रोड स्थित तारघर पहुंच गयी थी। टेलीग्राम सेवा शुरु होने पर आगरा एशिया का सबसे बड़ा ट्रांजिट दफ्तर था।

अमेरिकी वैज्ञानिक सैमुअल मोर्स ने वर्ष 1837 में मोर्स टेलीग्राफ पेटेंट कराया था। मोर्स तथा उनके सहायक अल्फ्रेकेड वेल ने इसके बाद मिलकर एक ऐसी नई भाषा की ईजाद की जिसके जरिये तमाम संदेश बस डॉट और डेश के जरिये टेलीग्राफ मशीन पर भेजे जा सकें। मशीन पर जल्दी से होने वाली टक की आवाज को डॉट कहा गया और इसमें विलंब को डेश। तीन डॉट से मिलकर अंग्रेजी का अक्षर एस बनता है और तीन डेश से ओ। इस तरह से संकट में फंसे जहाज सिर्फ डॉट डॉट डॉट, डेश डेश डेश तथा डॉट डॉट डॉट भेजकर मदद बुला सकते थे।

तार सेवा से वर्ष 1845 तक तमाम यूरोपीय देशों को आपस में जोड़ लिया गया था। अब अंग्रेजों के आगे सबसे बड़ी चुनौती अपने उपनिवेश भारत को यूरोप से जोड़ने की थी। जर्मन वैज्ञानिक वर्नर वोन साइमंस ने एक नये किस्म के टेलीग्राफ की खोज की थी जिसमें सही अक्षर को चलाने के लिये बस मशीन का डायल घुमाना होता था।

साइमंस बंधुओं ने वर्ष 1870 में यूरोप तथा भारत को 11 हजार किलोमीटर लंबी टेलीग्राफ लाइन से जोड़ दिया जो चार देशों से होकर गुजरती थी। इससे भारत से इंग्लैंड तक महज तीस मिनटों में संदेश पहुंचाना संभव हो सका तथा यह सेवा वर्ष 1931 में वायरलस टेलीग्राफ के आगमन तक काम करती रही।

टेलीग्राम सेवा अपने समय में इतनी सटीक होती थी कि मोर्सकोड ऑपरेटर बनने के लिये एक वर्ष की कड़ी ट्रेनिंग से गुजरना होता था, जिसमें से आठ महीने अंग्रेजी मोर्स कोड तथा चार महीने हिंदी मोर्स कोड के लिये होते थे। टेलीग्राम दफ्तर में एक चार्ट मौजूद रहता था जिस पर तमाम सामान्य संदेशों के लिये एक विशेष नंबर लिखा रहता था। ग्राहक को वह नंबर ऑपरेटर को बताना होता था और संदेश महज कुछ ही समय में अपने गंतव्य तक पहुंच जाता था।

टेलीग्राम ने सिर्फ समाज, सेना तथा सरकार को ही अपना योगदान नहीं दिया, बल्कि प्रेस जगत भी फैक्स तथा इंटरनेट के आगमन से पहले तार विभाग की सहायता पर ही निर्भर था। रायटर संवाद समिति के जनक पॉल जूलियस रायटर यूरोप में पहले उद्यमी थे, जिन्होंने स्टॉक एक्सचेंज के आंकड़ों को मंगाने के लिये टेलीग्राम सेवा का इस्तेमाल करना शुरू किया था। भारत में तमाम महत्वपूर्ण अधिवेशनों तथा बैठकों के स्थल पर तार विभाग की विशेष चौकी बनाई जाती थी जहां से संवाददाता अपने कार्यालय को तार के जरिये खबरें भेज सकते थे।

संवाददाताओं को इन तारों के लिये कोई शुल्क अदा नहीं करना पड़ता था, बल्कि उनका समाचार पत्र अथवा संवाद समिति महीने के आखिर में डाक तार विभाग को पूरा शुल्क अदा कर देती थी। संवाददाताओं ने तार शुल्क को बचाने के लिये अपनी भाषा को संक्षिप्त रखने का तरीका ईजाद किया और अनुभवी डेस्क संपादक इन्हें समझकर खबरें तैयार कर लेते थे।

टेलीग्राम से अखबार तथा एजेंसी के दफ्तरों को भेजे जाने वाली खबरें अधिकतम तीन घंटें में पहुंच जाया करती थीं। अगर डेडलाइन रात 9.00 बजे की होती थी तो संवाददाता शाम से ही खबरें तैयार करके उन्हें प्रेषित करना शुरू कर देते थे।



 

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