आदिवासी क्षेत्रों में राष्ट्रीय पर्वों पर बहती हैं उल्लास की सरिताएं
- डॉ. दीपक आचार्य
मानव सभ्यता के साथ ही जीवन के हर क्षण में आनंद की प्राप्ति मनुष्य का परम अभीष्ट होता है और उसी के लिए वह अहर्निश प्रयत्नशील रहा है। मानव मात्र के प्रत्येक कर्म के पीछेयही आत्म आनंद रहा है।
भारतीय संस्कृति में हर दिन कोई न कोई तीज-त्योहार और पर्व इसी भावना के द्योतक हैं जिनके सहारे मानव समुदाय निरन्तर उल्लास और उत्साह में निमग्न रहकर जीवन यात्रा कोगतिमान करता रहा है।
देश के कुछ हिस्सों में साल भर उत्सवी माहौल रहता है। इन्हीं में वागड़ अंचल भी है जहां विभिन्न पर्व-त्योहारों और उत्सवों की श्रृंखला में स्वाधीनता दिवस तथा गणतंत्र दिवस भीसमाहित हैं। इन्हें आदिवासी क्षेत्रों बांसवाड़ा और डूंगरपुर तथा आस-पास के क्षेत्रों में किसी विशाल मेले से कम नहीं आँका जाता।
इस दिन गांव-कस्बों और शहरों में होने वाले आयोजनों में भारी जनोत्साह लहराता ही है लेकिन बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर दोनों जिला मुख्यालयों पर आयोजित होने वाले जिलास्तरीयमुख्य समारोहों में भी आस-पास के गांवों से बड़ी संख्या में ग्राम्य नर-नारियों का ज्वार उमड़ता है। इन आयोजनों को स्थानीय बोली में ‘झण्डा नो मेरो’ अर्थात झण्डे का मेला नाम दियागया है।
प्रातः होने वाले इन समारोहों में ध्वजारोहण से लेकर अंतिम कार्यक्रम राष्ट्रगान से समाप्ति तक यह ग्राम्य समुदाय डूंगरपुर के लक्ष्मण मैदान तथा बांसवाड़ा के कुशलबाग मैदान मेंजमा रहता है। ये लोग किसी पारंपरिक उत्सव या मेले की तर्ज पर ही सज-धज कर पूरे उल्लास से आते हैं और राष्ट्रीय पर्वों का उत्साह बाँटते हैं।
इन समारोहों की समाप्ति के बाद इनका रुख शहर के बाजारों की तरफ होता है जहाँ खरीदारी के साथ ही खाने-पीने की दुकानों पर खूब भीड़ लगती है। दोपहर बाद तक शहर के विभिन्नस्थलों तथा उद्यानों में भ्रमण के बाद यह ग्राम्य समुदाय वापस गांवों की ओर रुख करता है।
राष्ट्रीय पर्वों पर ग्राम्य समुदाय की बड़ी संख्या और इनमें लहराता उत्साह तथा इन पर्वो का उल्लास इनके चेहरों से अच्छी तरह पढ़ा जा सकता है।
आम ग्रामीणों तक के मन में राष्ट्रभक्ति का दिग्दर्शन कराने वाले ये झण्डे के मेले वागड़ की उत्सवी संस्कृति का अहम् हिस्सा हैं।
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