बाड़मेर राजस्थान के जजमानों की पोषी गई लोक कलाएं देश के पार अपना रुतबा बढ़ा रही हैं। कभी जजमानों के घर उनकी खुशी के लिए गाने बजाने वाले कलाकार विदेशों में देश की पहचान बन रहे हैं। लंगा, मंगनियार, मेघबाल व कालबेलिया कलाकार लोक कलाओं को सहेजने के लिए जजमानों की शुक्रगुजारी कर थकते नहीं हैं। गुरूवार को शहर में कार्यक्रम देने आए इन कलाकारों ने बाड़मेर न्यूज़ ट्रैक से खास बातचीत की। जैसलमेर, जोधपुर व बाड़मेर इलाके की लंगा जातियों के वहां के मुसलमान जजमान हैं। मंगनियार जातियां हिंदू राजपूतों के लिए गाती बजाती हैं। मेघबाल सूफी गायक हैं। कालबेलिया नृत्य सपेरों के लिए रोजी का जरिया है। जजमानों के घर शादी, बच्चे के जन्म व त्योहारों के मौके पर यह कार्यक्रम देते हैं। इसके एवज में मिले ईनाम से इनके घर चलते हैं। 20 हजार से ज्यादा परिवारों की रोटी ऐसे ही चलती है। लंगा मंगनियार दल के लीडर खेता खान कहते हैं कि जजमानों के बूते ही यह कलाएं जिंदा रहीं। इन कलाओं को देश के पार पहुंचाने वाले जोधपुर के कोमल कोठारी रहे। उन्होंने सभी जातियों को जोड़कर लोक विधाओं का नया मंच बनाया। वह कहते हैं कि कलाकारों को जजमानों की वंशबेल जुबानी याद रहती है। जजमानों की मेहरबानी न होती तो लोक कलाएं अपनी मौत मर जातीं। खेता खान अपने समूह के साथ यूरोप, अमेरिका, रूस, कनाडा, ब्राजील, स्वीडन, आस्ट्रेलिया, जापान में कार्यक्रम दे चुके हैं।
कालबेलिया सपेरों का लोक नृत्य है। सांप दिखाने पर प्रतिबंध लगने के बाद सपेरों ने बेटियों को सांप की तरह नचा कर मांगना शुरू कर दिया। कालबेलिया नृत्यांगना शरीर में बिजली की गति व लोच के लिए विश्व में मशहूर है। इसकी अंतर्राष्ट्रीय कलाकार सुआ देवी कहतीं है कि यह मां से विरासत में मिला। तब मजबूरी थी। परिवार चलाना था। अब यही कला सम्मान दे रही है। वह कहतीं हैं कि यह कला पुश्तैनी है। 13 साल की बेटी मलिका ने मुझे देख कर सीखा। 5 साल की बेटी भावना साथ रहती है। यह भी सीख रही है। इनके पति सहसनाथ पुंगी (बीन) बजाने में माहिर हैं। वह कहते हैं कि लोक कलाओं के उत्थान के लिए जिले में अलग से महकमा खुले। इनको बड़े फलक पर विस्तार मिलना चाहिए। यह कलाएं देश की धरोहर हैं। इन्हें जिंदा रखने की खास पहल हो।
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