नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट मुंबई हमले के दोषी पाकिस्तानी आतंकी मोहम्मद अजमल कसाब की अपील पर बुधवार को फैसला सुनाएगा।
कसाब ने इस आतंकी हमले में मिली मौत की सजा के विशेष अदालत के निर्णय को चुनौती दे रखी है। इस हमले में 166 लोग मारे गए थे। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की खंडपीठ ने कसाब की अपील पर 25 अप्रैल को सुनवाई पूरी की थी।
अदालत ने कसाब की याचिका पर करीब ढाई महीने सुनवाई की। शीर्ष अदालत ने कसाब की मौत की सजा पर पिछले साल 10 अक्टूबर को रोक लगा दी थी। मौत का अंतहीन इंतजार कर रहे सैकड़ों कैदियों को नहीं मालूम कि उन्हें जीने का कानूनी अधिकार है या नहीं। कोई स्पष्ट नीति न होने की वजह से न्यायपालिका और कार्यपालिका सजा-ए-मौत पर आखिरी फैसला नहीं कर पा रहीं। जिंदगी भर चलने वाली मौत की सजा पर विवेक शुक्ला की रिपोर्ट मौत से बुरा क्या हो सकता है? शायद मौत का इंतजार। खास तौर पर तब, जब इंतजार कुछ घंटों का नहीं, चंद दिनों या महीनों का नहीं, बल्कि वर्षो का हो। कुछ मामलों में तो इंतजार दशकों का है। भारतीय जेलों में सड़ रहे कैदियों की बड़ी तादाद इसी इंतजार से गुजर रही है, क्योंकि यह तय नहीं हो पा रहा है कि ऐसे खूंखार गुनहगारों के साथ आखिर करना क्या है? उन्हें फांसी के फंदे पर लटका दिया जाए, जैसा कि देश की अदालतें एक-एक मामले में कई-कई बार फैसला कर चुकी हैं या फिर संविधान में दिए गए माफी के प्रावधान के तहत जीवनदान दे दिया जाए। दरअसल, दिक्कत उन्हें फांसी देने या माफी देने से नहीं जुड़ी। दिक्कतहै इन दोनों में से कुछ न करने की, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की। क्या कुछ चल रहा है, यह न तो न्यायपालिका जानती है, न सरकार और न राष्ट्रपति। गुनहगारों और पीड़ितों से इस बात की उम्मीद करना बेमानी है कि उन्हें इस बारे में कुछ पता होगा। तो आखिर किसकी जिम्मेदारी बनती है? कड़वी सच्चाई यह है कि जिम्मेदारी किसी की नहीं बनती। न कोई यह जिम्मेदारी लेने या तय करने में दिलचस्पी रखता है। देवेंद्र सिंह भुल्लर का मामला ले लीजिए। दिल्ली में 1993 में हुए बम विस्फोट में 13 लोग मारे गए। इस मामले में भुल्लर को दोषी ठहराया गया। अगले 13 साल में सेशनकोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट, सभी ने उसे सजा-ए-मौत दी। उसने दया याचिका दाखिल की और मई, 2011 में जाकर राष्ट्रपति ने उसकी याचिका खारिज कर दी। लेकिन इतने लंबे वक्त बाद भी मामले का अंत नहीं हुआ। सितंबर 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने भुल्लर की सजा घटाने पर विचार करने संबंधी वह याचिका स्वीकार कर ली, जिसमें उसने अपने जीने के अधिकार का हवाला दिया था। फिलहाल, यह किसी को नहीं पता कि भुल्लर का भविष्य क्या होगा? अपवाद ज्यादा, नियम कम अगर आपका मानना है कि भुल्लर का मामला अपवाद है, तो जरा इस मामले पर निगाह डालिए, जो इससे भी बदतर हालात बयां कर रहा है। 1991 में राजीव गांधी की हत्या हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने मुरुगन, संतन और ए जी पेरारीवालन को जनवरी 1998 में सजा-ए-मौत दी। इन सभी की दया याचिका अगस्त 2011 में खारिज कर दी गई। एक तरफ जहां अब तक इन्हें फांसी पर नहीं लटकाया जा सका, वहीं दूसरी तरफमद्रास हाईकोर्ट ने फांसी देने में हुई देरी का हवाला देते हुए मामले में स्टे भी दे दिया। गुनहगारों की ओर से दलील पेश करने वाले वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी ने कहा, ‘अगर फांसी का इंतजार कर रहे दोषी को लंबे समय तक जेल में रखा जाता है, तो इसका मतलब है दोहरी सजा। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जो सभी नागरिकों को सुरक्षा का अधिकार देता है।’ किसी को नहीं पता कि इन तीनों हत्यारों को फांसी के फंदे पर कब लटकाया जाएगा? फिर एक मामला पंजाब का भी है, जहां दोषी को इसलिए फांसी नहीं दी जा सकी, क्योंकि जेलर के पास जल्लाद उपलब्ध नहीं था देश में आखिरी फांसी आठ साल पहले हुई थी, जब धनंजय चटर्जी को 2004 में फंदे पर लटकाया गया। फांसी या माफी का मामला एक बार फिर सुर्खियों में तब आया, जब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने दया याचिका के 40 लंबित मामलों का निपटारा किया। उन्होंने 5 याचिकाएं खारिज कर दीं, जबकि 35 अन्य को राहत देते हुए फांसी की सजा उम्र कैद में बदल दी। 18 और दया याचिकाओं पर फैसला होना अभी बाकी है, लेकिन यह कम बड़ी बात नहीं कि उन्होंने फैसला तो किया। उनसे पहले कई राष्ट्रपतियों ने पूरे कार्यकाल में एक भी दया याचिका पर फैसला नहीं किया। जैसा कि बताया गया, राष्ट्रपति का फैसला भी अंतिम नहीं माना जा सकता। जाने-माने वकील मजीद मेनन ने रसरंग से कहा, ‘मैं मानता हूं कि दया याचिकाओं के मामले में देरी कैबिनेट के लेटलतीफ रवैये की वजह से होती है। अगर वहां से राष्ट्रपति को सिफारिश जल्दी भेजी जाने लगें, तो इस स्तर पर होने वाली देरी दूर की जा सकती है।’ राष्ट्रपति दया यचिकाओं के मामले में अकेले फैसला नहीं कर सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 74 के मुताबिक राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल दया याचिकाओं पर मशविरा देता है और महामहिम उसके हिसाब से फैसला करने के लिए बाध्य हैं। हालांकि, अतीत खंगालने पर ऐसे भी कई मामले मिले, जिनमें सरकार की ओर से सलाह मिलने के बावजूद राष्ट्रपतियों ने कई साल तक अंतिम फैसले का एलान नहीं किया। निर्णय में देरी और बैकलॉग के मामले 1990 के दशक की शुरुआत से ज्यादा बढ़े। राष्ट्रपति या सरकार की ओर से दया याचिकाओं पर फैसला करने के लिए कोई समयसीमा तय नहीं है, लेकिन 1980 के दशक के अंतिम वर्षो तक इस तरह के फैसलों में दो-तीन साल से ज्यादा वक्त नहीं लगता था। सीनियर एडवोकेट केटीएस तुलसी के अनुसार, ‘1990 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि लंबित दया याचिकाओं पर दो साल के भीतर फैसला करने को लेकर राष्ट्रपति को बाध्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर मामले में सबूत अलग-अलग होते हैं।’ तब से अब तक मौत या माफी के फैसले लगातार अटकते और लटकते रहे हैं।समयसीमा नहीं होगी तय केंद्रीय गृह राज्य मंत्री मुल्लापली रामचंद्रन ने इसी साल 20 मार्च को लोकसभा में बताया कि दया याचिकाओं पर फैसला करने के लिए कोई समयसीमा तय करने की सरकार की मंशा नहीं है। इसके अलावा सियासी और मजहबी वजहें भी देरी के लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि जब ऐसी चीजें शामिल होती हैं, तो पहले से ढीला रुख रखने वाली सरकार और भी हिचकिचाहट दिखाने लगती है। बलवंत सिंह राजोआना का मामला ले लीजिए, जिसे पंजाब के पूर्व सीएम बेअंत सिंह की हत्या का दोषी ठहराया गया। उसे 31 मार्च, 2011 को फांसी होनी थी। पर पटियाला जेल के जेलर ने कहा कि यह फांसी नहीं हो सकती, क्योंकि उनके पास जल्लाद की व्यवस्था नहीं है। यह अलग बात है कि गृह मंत्रालय ने राजोआना की फांसी पंजाब सरकार के आग्रह पर टाली। बताया जाता है कि इस मामले में राज्य सरकार शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के दबाव में आई। दिसंबर 2001 में संसद पर हमले के गुनहगार मोहम्मद अफजल गुरु को सुप्रीमकोर्ट ने 2004 में सजा-ए-मौत दी। अफजल की दया याचिका लंबे वक्त से राष्ट्रपति के पास फैसले का इंतजार कर रही है। 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले की साजिश रचने और उसे अंजाम देने के दोषी मोहम्मद अजमल कसाब को चार आरोपों के लिए सजा-ए-मौत और पांच आरोपों के लिए उम्र कैद की सजा सुनाई गई। लेकिन कुछ कानूनी जानकारों को आशंका है कि उसे निकट भविष्य में शायद ही फांसी हो पाएगी। फांसी जीरो, फैसले सैकड़ों भारत में पिछले आठ साल में किसी को फांसी नहीं दी गई, लेकिन देश की अलग-अलग अदालतें सजा-ए-मौत देना जारी रखे हुए हैं। प्राप्त जानकारी के मुताबिक 2010 से इस साल जून तक 221 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के मुतबिक 31 दिसंबर, 2010 को 402 लोग फांसी का इंतजार कर रहे थे। जिन राज्यों में सबसे ज्यादा गुनाहगार फांसी का इंतजार कर रहे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश (131), कर्नाटक (60) और महाराष्ट्र (49) प्रमुख हैं। ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं, जो दया याचिकाओं पर फैसले के लिए कोई वक्त निर्धारित करे, लेकिन फिर ऐसा क्यों होता है कि कुछ याचिकाएं लंबे वक्त तक लटकी रहती हैं, जबकि अन्य पर फैसले को लेकर तेजी दिखाई जाती है? सुप्रीम कोर्ट ने इस साल सरकार से यह सवाल किया। लेकिन कोई ठोस जवाब नहीं मिला। 3.85 करोड़ रुपए हर दिन का खर्च वॉल स्ट्रीट जर्नल के माइकल एडिसन हेडन ने अपने ब्लॉग में लिखा है, ‘अंतिम फैसले में कई दशक लग जाते हैं। इसलिए भारत में सैकड़ों कैदी तब तक जेलों में सड़ते रहते हैं, जब तक कि प्राकृतिक कारणों से उनकी मौत नहीं हो जाती।’ हेडन कर्नाटक के बेलगाम सेंट्रल जेल गए। वहां उनकी मुलाकात ऐसे दो कैदियों से हुई, जो मौत मांग रहे हैं, लेकिन उन्हें इंतजार मिल रहा है। सजा-ए-मौत या उसमें होने वाले देरी पर करदाताओं के करोड़ों रुपए खर्च होते हैं। यह पैसा ऐसे सिस्टम पर खर्च हो रहा है, जिसमें कैदियों को दशकों तक फांसी का इंतजार रहता है। और कई तो मौत का इंतजार करते-करते खुद ही मर जाते हैं। दिल्ली की तिहाड़ जेल के पीआरओ सुनील गुप्ता के मुताबिक सरकार हर रोज एक कैदी पर 125 रुपए खर्च करती है। इस हिसाब से देश भर के कैदियों पर एक दिन में 3.85 करोड़ रुपए खर्च होता है। इनमें सजा-ए-मौत और उम्र कैद पाने वाले गुनाहगारों के अलावा विचाराधीन कैदी शामिल हैं। इस देरी के जाने-अनजाने सभी कारणों के बीच देश कम से कम एक मुद्दे पर निश्चित फैसला कर सकता है। हमें इस बात का निर्णय लेना होगा कि क्या सजा-ए-मौत खत्म कर दी जानी चाहिए। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक 175 मुल्क सजा-ए-मौत खत्म कर चुके हैं, जबकि 18 देशों में अभी भी इसका प्रावधान है। चीन में सबसे ज्यादा लोगों को फांसी दी गई, उसके बाद ईरान का नंबर आता है। अमेरिका ने 2011 में करीब 50 लोगों को फांसी दी। महात्मा गांधी के पुत्र ने नाथू राम गोडसे को जीवनदान देने की अपील की थी और खुद गांधीजी भी सजा-ए-मौत पर विरोध जताया करते थे। जिस हिसाब से सजा-ए-मौत के फैसले लटक रहे हैं, ऐसा मालूम देता है कि देश में फांसी पर व्यावाहारिक रोक लगी हुई है। तो क्यों न फांसी पर आधिकारिक रूप से पूर्णविराम लगा दिया जाए? पिछले महीने ही केरल में मावेलीकारा एडिशनल डिस्ट्रिक्ट और सेशन कोर्ट-2 ने 22 साल के विश्वराजन को फांसी की सजा सुनाई। उसे 34 साल की विधवा और एक बच्ची की मां से बलात्कार और उसकी हत्या करने का दोषी ठहराया गया। विश्वराजन ने जो गुनाह किया, वह भले कितना गंभीर हो, लेकिन उसकी जिंदगी लंबी रहेगी, क्योंकि अब वह मौत का इंतजार करेगा। वह दया के लिए गुहार लगा सकता है। वह इंतजार और भी लंबा होगा। ‘अगर सजा-ए-मौत पाए किसी मुजरिम को लंबे समय तक कालकोठरी में रखा जाता है, तो इसका यह मतलब हुआ कि उसे अतिरिक्त सजा दी जा रही है। एक सजा-ए-मौत, और दूसरे कालकोठरी में बिताए दिन। किसी भी मुजरिम को एक जुर्म के लिए दो सजाएं नहीं दी जा सकतीं’ : राम जेठमलानी, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीमकोर्ट ‘1990 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लंबित दया याचिकाओं पर दो साल के भीतर फैसला करने को लेकर राष्ट्रपति को बाध्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर मामले में सबूत अलग-अलग होते हैं’ : केटीएस तुलसी, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीमकोर्ट
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