रेत उड़ाते बाड़मेर में कहर बरपाती बिजली
उमाशंकर मिश्र
umashankar19mishra@gmail.com
बाड़मेर के इस हिस्से में दुर्जन रहते हों ऐसी बात नहीं है, फिर भी यहां उनसे ज्यादा सरकार को किसी सज्जन जिंदल की जरूरत महसूस हुई. सज्जन जिंदल जेएसडब्ल्यू यानी जिंदल स्टील वर्क्स के मालिक हैं.
पांच सितारा होटलों में निवेशकों के सामने अपनेभाषणों में वे अच्छी-अच्छी बातें करते हैं. वे कहते हैं कि वे अपने प्रोजेक्ट के लिए इन्क्लुसिव ग्रोथ की पद्धति अपनाते हैं. सबको साथ लेकर चलते हैं.क्योंकि पर्यावरण भलाई के काम अकेले नहीं हो सकते इसलिए उन्होंने टाईम्स आफ इंडिया के साथ मिलकर एक अर्थ केयर पुरस्कार भी स्थापित कर दिया है. पर्यावरण और लोकजीवन की चिंता यहीं खत्म नहीं होती. इसलिए अपने भाषण में यह भी बताते हैं कि पर्यावरण की चिंता पूरी करने के लिए वे अलगोर और टेरी के साथ मिलकर भी काम कर रहे हैं. इसके बाद पर्यावरण की चिंता किनारे रखकर वे यह बताना शुरू करते हैं कि कैसे जेएसडब्लू 4 अरब डालर की कंपनी हो गयी है और आनेवाले सालों में उनके सामने क्या चुनौतियां रहनेवाली हैं. बिजली बनाने और लोहा खोदने के अपने पर्यावरण हितैषी कामों को वे आगे और तेजी से कैसे बढ़ा सकते हैं.
सज्जन जिंदल का यह भाषण जरूर कुछ विशेषज्ञों ने मिलकर तैयार किया होगा जिसके एवज में उन्हें मोटी रकम मिली होगी. इसलिए उनकी सज्जन चिता को यहीं छोड़ दें. बाड़मेर चलते हैं. बोथिया गांव के 70 वर्षीय बुजुर्ग भंवर सिंह रोज सवेरे लाठी टेकते घर से निकल जाते हैं. मेड़ के किनारों पर बैठकर घण्टों अपने खेतों को निहारते हैं. उन्हें नहीं मालूम कि ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट क्या होता है और उन्हें यह भी समझ नहीं आ रहा कि रानीसा (वसुंधरा राजे) आखिर ऐसा बर्ताव क्यों कर रही हैं. उनकी जमीन किस खुशी में कंपनी को दे रही हैं वे अब तक इसे समझ नहीं पाये हैं. वे कहते हैं "जदे जमीन लेवण रे सुण्यों उण दिन पछे रात भर नींद न आवे." जमीन की चिंता में अपनी नींद गंवानेवाले दद्दा अकेले नहीं हैं. लेकिन उनींदेपने के उन किस्सों के पहले जरा ग्रीनफील्ड का रहस्यभेदन कर लें.
सज्जन जिंदल जानते ही होंगे कि ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट की कुल परिभाषा यह है कि ज्यादातर आधुनिक तकनीकि का प्रयोग हो किसी प्रकार के वर्तमान ढाचें को नुकसान न पहुंचाया जाए. इस तकनीकि विश्लेषण की बदौलत सज्जन जिंदल और वसुंधरा राजे दोनों ही एक दूसरे की पीठ ठोंक कर लाल भले कर दें लेकिन इस तकनीकि विश्लेषण को सहारा बनाएं तो इस मरूभूमि में उजड़ने के लिए कुछ है भी नहीं. रेगिस्तानी इलाका है और खेती,पशुपालन और जंगलों के भरोसे पूरी अर्थव्यवस्था चलती है. अब खेती, जंगल और चारागाह स्थाई निर्माण की श्रेणी में नहीं आते इसलिए तकनीकि रूप से सज्जन जिंदल को यह तमगा मिल जाता है कि वे एक ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. लेकिन इस तकनीकि हरियाली से ज्यादा यहां की वास्तविक जिंदगी महत्वपूर्ण है. नेशनल हाईवे 15 के आसपास के 30 गावों में कोई 8000 हेक्टेयर जमीन पर कब्जा होना है. अब तक 480 हेक्टेयर जमीन पर कब्जा किया जा चुका है और किसानों को 142,000 रूपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भुगतान भी किया जा रहा है. और बातों को छोड़ दें तो पहली शिकायत यहीं से शुरू होती है. स्थानीय लोगों को कहना है कि इलाके में जमीन की कीमत पांच लाख रूपये प्रति हेक्टेयर से भी ज्यादा है. ऐसे में उन्हें इतनी कम कीमत देना उनके जमीन की लूट नहीं तो और क्या है?
फिर भी क्या अगर कीमत मिल जाए तो यहां के किसान जमीन देने के लिए तैयार हैं? बोथिया के ही किसान शैतान सिंह कहते हैं "जमीन तो हम किसी कीमत पर देंगे नहीं, भले ही जान चली जाए. यदि सरकार जबर्दस्ती करेगी तो हम यहीं अपनी जान दे देंगे." शैतान सिंह जिस बेचैनी में ऐसा दावा कर रहे हैं वह अकेले शैतान सिंह की नहीं है. बाबूसिंह बताते हैं "हम और हमारे जानवर दोनों इसी जमीन का दिया खाते हैं. हमारी आत्मा पैसे से नहीं, इस जमीन से जुड़ी हुई है." अब आत्मा की परिभाषा किसी ग्रीनफील्ड बिजनेस डायरेक्टरी में मिलती नहीं इसलिए उनकी इस आत्मा को पहचानने और उसे महत्व देने की जहमत न सरकार उठा रही है और न ही कंपनी.
कंपनी के चेयरमैन सज्जन जिंदल अपने निवेशकों के सामने चाहें जिन शब्दों को चबा लिया हो लेकिन जमीनी हकीकत और ही है. स्थानीय ग्रामीण कोई ग्रीनफील्ड इनर्जी प्रोजेक्ट के विशेषज्ञ तो हैं नहीं फिर भी यही मानते हैं कि बिजलीघर के लिए इतनी जमीन की जरूरत नहीं है. वैसे भी यह एक हजार मेगावाट बिजलीघर का प्रोजेक्ट है जिसे आठ चरणों में पूरा होना है. पहला चरण इस साल के अंत तक शुरू कर देना है. किसान कहते हैं कि जरूरत से ज्यादा जमीन कंपनी इसलिए हड़प रही है क्योंकि बाद में वह ऊंचे दामों पर यह जमीन दूसरों को बेंच देगी. फिलहाल इस बात का जवाब किसी सज्जन जिंदल के पास तो क्या उस तकनीकि के पास भी नहीं है लिंगनाईट और कोयले से बनने वाली बिजली से भारी मात्रा में प्रदूषण फैलता है या नहीं?
ग्रीनफील्ड को हरकर उसकी हरियाली खानेवाली यह योजना बाद में इलाके के तकदीर में काला बदबूदार धुंआ और उससे निकलेवाले रोगों की ही सौगात देगा. इससे पैदा होनेवाली बिजली से जयपुर रोशन हो या दिल्ली भदरेस, जालिपा और कपूरणी के हिस्से में तो विस्थापन, रोग और ऐसी कालिमा सदा के लिए उतर जाएगी जिसको धोने में सैकड़ों साल लग जाएंगे. विस्थापित लोग कहां जाएंगे इसकी कोई योजना अभी तक खुलकर सामने नहीं आयी है. अगर कंपनी अपने निवेशकों के प्रति वचनबद्ध रहती है तो उसे साल के आखिर तक पहले प्लांट को शुरू कर देना है. पूछने पर अधिकारी यही कहते हैं कि हम 2007 की नेशनल रिसेटलमेंट और रिहेबिलिटेशन पालिसी के तहत कदम उठा रहे हैं लेकिन यह पूछने पर उनके पास कोई जवाब नहीं होता कि यह कदम क्या है? कंपनी कुछ बोलती नहीं और जो बोलती है उसका कोई मतलब नहीं होता इसलिए उसकी बात को बार-बार दोहराने का कोई मतलब नहीं रह जाता.
बिजली की शहरी मांग को पूरा करने के लिए गांवों को उजाड़ देना यह विकास का मूलमंत्र बन गया है. इस जरूरी काम में सरकारें हमेशा कंपनियों के साथ खड़ी रहती हैं और हर बार विकास के लिए चारःछह हजार परिवारों को उजाड़ देना विकास के लिए कुर्बानी मान लिया जाता है. सवाल तो यह है कि ऐसी हर कुर्बानी हर गांवों से ही क्यों ली जाती है? क्या शहर के किसी सुविधासंपन्न इलाके को उजाड़कर कभी विकास की किसी योजना पर अमल के बारे में सोचा जा सकता है? अगर नहीं तो हर बार गांवों को ही निशाना क्यों बनाया जाता है? यह सवाल स्थानीय लोगों के जेहन में भी है और मेरे भी. लेकिन जवाब कुछ सूझ नहीं रहा. वैसे स्थानीय लोग बिजली पैदा करने के बारे में एक ऐसी जानकारी देते हैं जो चौंका देती है. वे कहते हैं कि अगर आपको बिजली ही चाहिए तो आप यहां पवन उर्जा के खंभे लगा दीजिए. जैसलमेर आंधियों का इलाका है. आपको बिजली भी मिल जाएगी और हमें उजड़ना भी नहीं पड़ेगा. क्या कोई इस सुझाव को सुन रहा है?
पांच सितारा होटलों में निवेशकों के सामने अपनेभाषणों में वे अच्छी-अच्छी बातें करते हैं. वे कहते हैं कि वे अपने प्रोजेक्ट के लिए इन्क्लुसिव ग्रोथ की पद्धति अपनाते हैं. सबको साथ लेकर चलते हैं.क्योंकि पर्यावरण भलाई के काम अकेले नहीं हो सकते इसलिए उन्होंने टाईम्स आफ इंडिया के साथ मिलकर एक अर्थ केयर पुरस्कार भी स्थापित कर दिया है. पर्यावरण और लोकजीवन की चिंता यहीं खत्म नहीं होती. इसलिए अपने भाषण में यह भी बताते हैं कि पर्यावरण की चिंता पूरी करने के लिए वे अलगोर और टेरी के साथ मिलकर भी काम कर रहे हैं. इसके बाद पर्यावरण की चिंता किनारे रखकर वे यह बताना शुरू करते हैं कि कैसे जेएसडब्लू 4 अरब डालर की कंपनी हो गयी है और आनेवाले सालों में उनके सामने क्या चुनौतियां रहनेवाली हैं. बिजली बनाने और लोहा खोदने के अपने पर्यावरण हितैषी कामों को वे आगे और तेजी से कैसे बढ़ा सकते हैं.
सज्जन जिंदल का यह भाषण जरूर कुछ विशेषज्ञों ने मिलकर तैयार किया होगा जिसके एवज में उन्हें मोटी रकम मिली होगी. इसलिए उनकी सज्जन चिता को यहीं छोड़ दें. बाड़मेर चलते हैं. बोथिया गांव के 70 वर्षीय बुजुर्ग भंवर सिंह रोज सवेरे लाठी टेकते घर से निकल जाते हैं. मेड़ के किनारों पर बैठकर घण्टों अपने खेतों को निहारते हैं. उन्हें नहीं मालूम कि ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट क्या होता है और उन्हें यह भी समझ नहीं आ रहा कि रानीसा (वसुंधरा राजे) आखिर ऐसा बर्ताव क्यों कर रही हैं. उनकी जमीन किस खुशी में कंपनी को दे रही हैं वे अब तक इसे समझ नहीं पाये हैं. वे कहते हैं "जदे जमीन लेवण रे सुण्यों उण दिन पछे रात भर नींद न आवे." जमीन की चिंता में अपनी नींद गंवानेवाले दद्दा अकेले नहीं हैं. लेकिन उनींदेपने के उन किस्सों के पहले जरा ग्रीनफील्ड का रहस्यभेदन कर लें.
सज्जन जिंदल जानते ही होंगे कि ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट की कुल परिभाषा यह है कि ज्यादातर आधुनिक तकनीकि का प्रयोग हो किसी प्रकार के वर्तमान ढाचें को नुकसान न पहुंचाया जाए. इस तकनीकि विश्लेषण की बदौलत सज्जन जिंदल और वसुंधरा राजे दोनों ही एक दूसरे की पीठ ठोंक कर लाल भले कर दें लेकिन इस तकनीकि विश्लेषण को सहारा बनाएं तो इस मरूभूमि में उजड़ने के लिए कुछ है भी नहीं. रेगिस्तानी इलाका है और खेती,पशुपालन और जंगलों के भरोसे पूरी अर्थव्यवस्था चलती है. अब खेती, जंगल और चारागाह स्थाई निर्माण की श्रेणी में नहीं आते इसलिए तकनीकि रूप से सज्जन जिंदल को यह तमगा मिल जाता है कि वे एक ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. लेकिन इस तकनीकि हरियाली से ज्यादा यहां की वास्तविक जिंदगी महत्वपूर्ण है. नेशनल हाईवे 15 के आसपास के 30 गावों में कोई 8000 हेक्टेयर जमीन पर कब्जा होना है. अब तक 480 हेक्टेयर जमीन पर कब्जा किया जा चुका है और किसानों को 142,000 रूपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भुगतान भी किया जा रहा है. और बातों को छोड़ दें तो पहली शिकायत यहीं से शुरू होती है. स्थानीय लोगों को कहना है कि इलाके में जमीन की कीमत पांच लाख रूपये प्रति हेक्टेयर से भी ज्यादा है. ऐसे में उन्हें इतनी कम कीमत देना उनके जमीन की लूट नहीं तो और क्या है?
फिर भी क्या अगर कीमत मिल जाए तो यहां के किसान जमीन देने के लिए तैयार हैं? बोथिया के ही किसान शैतान सिंह कहते हैं "जमीन तो हम किसी कीमत पर देंगे नहीं, भले ही जान चली जाए. यदि सरकार जबर्दस्ती करेगी तो हम यहीं अपनी जान दे देंगे." शैतान सिंह जिस बेचैनी में ऐसा दावा कर रहे हैं वह अकेले शैतान सिंह की नहीं है. बाबूसिंह बताते हैं "हम और हमारे जानवर दोनों इसी जमीन का दिया खाते हैं. हमारी आत्मा पैसे से नहीं, इस जमीन से जुड़ी हुई है." अब आत्मा की परिभाषा किसी ग्रीनफील्ड बिजनेस डायरेक्टरी में मिलती नहीं इसलिए उनकी इस आत्मा को पहचानने और उसे महत्व देने की जहमत न सरकार उठा रही है और न ही कंपनी.
कंपनी के चेयरमैन सज्जन जिंदल अपने निवेशकों के सामने चाहें जिन शब्दों को चबा लिया हो लेकिन जमीनी हकीकत और ही है. स्थानीय ग्रामीण कोई ग्रीनफील्ड इनर्जी प्रोजेक्ट के विशेषज्ञ तो हैं नहीं फिर भी यही मानते हैं कि बिजलीघर के लिए इतनी जमीन की जरूरत नहीं है. वैसे भी यह एक हजार मेगावाट बिजलीघर का प्रोजेक्ट है जिसे आठ चरणों में पूरा होना है. पहला चरण इस साल के अंत तक शुरू कर देना है. किसान कहते हैं कि जरूरत से ज्यादा जमीन कंपनी इसलिए हड़प रही है क्योंकि बाद में वह ऊंचे दामों पर यह जमीन दूसरों को बेंच देगी. फिलहाल इस बात का जवाब किसी सज्जन जिंदल के पास तो क्या उस तकनीकि के पास भी नहीं है लिंगनाईट और कोयले से बनने वाली बिजली से भारी मात्रा में प्रदूषण फैलता है या नहीं?
ग्रीनफील्ड को हरकर उसकी हरियाली खानेवाली यह योजना बाद में इलाके के तकदीर में काला बदबूदार धुंआ और उससे निकलेवाले रोगों की ही सौगात देगा. इससे पैदा होनेवाली बिजली से जयपुर रोशन हो या दिल्ली भदरेस, जालिपा और कपूरणी के हिस्से में तो विस्थापन, रोग और ऐसी कालिमा सदा के लिए उतर जाएगी जिसको धोने में सैकड़ों साल लग जाएंगे. विस्थापित लोग कहां जाएंगे इसकी कोई योजना अभी तक खुलकर सामने नहीं आयी है. अगर कंपनी अपने निवेशकों के प्रति वचनबद्ध रहती है तो उसे साल के आखिर तक पहले प्लांट को शुरू कर देना है. पूछने पर अधिकारी यही कहते हैं कि हम 2007 की नेशनल रिसेटलमेंट और रिहेबिलिटेशन पालिसी के तहत कदम उठा रहे हैं लेकिन यह पूछने पर उनके पास कोई जवाब नहीं होता कि यह कदम क्या है? कंपनी कुछ बोलती नहीं और जो बोलती है उसका कोई मतलब नहीं होता इसलिए उसकी बात को बार-बार दोहराने का कोई मतलब नहीं रह जाता.
बिजली की शहरी मांग को पूरा करने के लिए गांवों को उजाड़ देना यह विकास का मूलमंत्र बन गया है. इस जरूरी काम में सरकारें हमेशा कंपनियों के साथ खड़ी रहती हैं और हर बार विकास के लिए चारःछह हजार परिवारों को उजाड़ देना विकास के लिए कुर्बानी मान लिया जाता है. सवाल तो यह है कि ऐसी हर कुर्बानी हर गांवों से ही क्यों ली जाती है? क्या शहर के किसी सुविधासंपन्न इलाके को उजाड़कर कभी विकास की किसी योजना पर अमल के बारे में सोचा जा सकता है? अगर नहीं तो हर बार गांवों को ही निशाना क्यों बनाया जाता है? यह सवाल स्थानीय लोगों के जेहन में भी है और मेरे भी. लेकिन जवाब कुछ सूझ नहीं रहा. वैसे स्थानीय लोग बिजली पैदा करने के बारे में एक ऐसी जानकारी देते हैं जो चौंका देती है. वे कहते हैं कि अगर आपको बिजली ही चाहिए तो आप यहां पवन उर्जा के खंभे लगा दीजिए. जैसलमेर आंधियों का इलाका है. आपको बिजली भी मिल जाएगी और हमें उजड़ना भी नहीं पड़ेगा. क्या कोई इस सुझाव को सुन रहा है?
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