यथार्थ गीता : आपन करनी पार उतरी
मन बड़ा चंचल है। यह सब कुछ चाहतता है, केवल भजन ही नहीं चाहता। यदि स्वरूपस्थ महापुरुष कर्म न करे, तो देखा-देखी पीछे वाले भी तुरंत कर्म छोड़ देंगे। उन्हें बहाना मिल जाएगा कि यह भजन नहीं करते, पान खाते हैं, इत्र लगाते हैं, सामान्य बातें करते हैं फिर भी महापुरुष कहलाते हैं-ऐसा सोचकर वे भी आराधना से हट जाते हैं, पतित हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूं, तो सब भ्रष्ट हो जाए और मैं वर्णसंकर का कर्त्ता बनूं।
स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर तो देखा सुना जाता है। अर्जुन भी इसी भय से विकल था कि स्त्रियां दूषित होंगी तो वर्णसंकर पैदा होगा, किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं सावधान होकर आराधना में लगा न रहूं, तो वर्णसंकर का कर्त्ता होऊं। वस्तुत: आत्मा का शुद्ध वर्ण है परमात्मा। अपने शाश्वत स्वरूप के पथ से भटक जाना वर्णसंकरता है। यदि स्वरूपस्थ महापुरुष क्रिया में नहीं बरतते तो लोग उनके अनुकरण से क्रियारहित हो जायेंगे, आत्मपथ से भटक जायेंगे, वर्णसंकर हो जायेंगे। वे प्रकृति में खो जायेंगे।
स्त्रियों का सतीत्व एवं नस्ल की शुद्धता एक सामाजिक व्यवस्था है, अधिकारों का प्रश्न है, समाज के लिए उसकी उपयोगिता भी है, किन्तु माता- पिता की भूलों का संतान की साधन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ‘आपन करनी पार उतरी’।
हनुमान, व्यास,नारद,शुकदेव, कबीर, ईसा इत्यादि अच्छे महापुरुष हुए, जब कि सामाजिक कुलीनता से इनका संपर्क नहीं है। आत्मा अपने पुर्व जन्म के गुणधर्म लेकर आता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं - ‘मन: षष्ठानीन्द्रिया प्रकृतिस्थानि कर्षति’। मन सहित इन्द्रियों से जो कार्य इस जन्म में होता है, उसके संस्कार लेकर जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर में का जाता है। इसमें जन्मदाताओं का क्या लगा? उनके विकसा में कोई अंतर नहीं आया। अत: स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर नहीं होता। स्त्रियों के दूषित होने और वर्णसंकर से कोई संबंध नहीं है। शुद्ध स्वरूप की ओर अग्रसर न होकर प्रकृति में बिखर जाना ही वर्णसंकर है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूं, तो सब भ्रष्ट हो जाए और मैं वर्णसंकर का कर्त्ता बनूं।
स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर तो देखा सुना जाता है। अर्जुन भी इसी भय से विकल था कि स्त्रियां दूषित होंगी तो वर्णसंकर पैदा होगा, किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं सावधान होकर आराधना में लगा न रहूं, तो वर्णसंकर का कर्त्ता होऊं। वस्तुत: आत्मा का शुद्ध वर्ण है परमात्मा। अपने शाश्वत स्वरूप के पथ से भटक जाना वर्णसंकरता है। यदि स्वरूपस्थ महापुरुष क्रिया में नहीं बरतते तो लोग उनके अनुकरण से क्रियारहित हो जायेंगे, आत्मपथ से भटक जायेंगे, वर्णसंकर हो जायेंगे। वे प्रकृति में खो जायेंगे।
स्त्रियों का सतीत्व एवं नस्ल की शुद्धता एक सामाजिक व्यवस्था है, अधिकारों का प्रश्न है, समाज के लिए उसकी उपयोगिता भी है, किन्तु माता- पिता की भूलों का संतान की साधन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ‘आपन करनी पार उतरी’।
हनुमान, व्यास,नारद,शुकदेव, कबीर, ईसा इत्यादि अच्छे महापुरुष हुए, जब कि सामाजिक कुलीनता से इनका संपर्क नहीं है। आत्मा अपने पुर्व जन्म के गुणधर्म लेकर आता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं - ‘मन: षष्ठानीन्द्रिया प्रकृतिस्थानि कर्षति’। मन सहित इन्द्रियों से जो कार्य इस जन्म में होता है, उसके संस्कार लेकर जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर में का जाता है। इसमें जन्मदाताओं का क्या लगा? उनके विकसा में कोई अंतर नहीं आया। अत: स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर नहीं होता। स्त्रियों के दूषित होने और वर्णसंकर से कोई संबंध नहीं है। शुद्ध स्वरूप की ओर अग्रसर न होकर प्रकृति में बिखर जाना ही वर्णसंकर है।
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