गुरुवार, 27 मई 2010

लाजवाब हैं बाड़मेर की मृण्कलाएं


लाजवाब हैं बाड़मेर की मृण्कलाएं

बाडमेर: सिंधु नदी और लूणी नदी के मध्य स्थित बाड़मेर का थार क्षेत्र मृण्कलाओं के वैविध्य का प्रमुख केन्द्र रहा है। नदी के पेटे मगरे की जमीन पर तैयार खेत, तालाबों और थार की धरा के बीच के तालरों की मिट्टी मृण्कलाओं का प्राण रही है। मिट्टी को प्राणवान बनाने वाली जातियां- हिन्दू कुम्हार और मोयले कुम्हार ने क्षेत्र की मृण्कलाओं को एक खूबसूरत आयाम दिया है।मिट्टी-पानी से एक मेल होकर लोक रसकता की सृष्टि के सृजक इन कुम्हार शिल्पकारों ने मृण (मिट्टी) कला के कद्रदानों की कला पिपासा को शांत किया। गांव के गरीब से लेकर उच्च वर्ग के लोगों के लिए मृण यानि मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए इस क्षेत्र के मृण्‍कला सृजक अपनी श्रेष्ठता को कायम रखे हुए हैं। बाड़मेर जिले की मृण्कला में दैनिक आवश्यकताओं के कलात्मक बर्तन, मामाजी की मूर्तियां, पचपदरा तथा मोकलसर की मटकियां और परम्परागत शैली की पवाड की नलियां प्रमुख हैं।मुसलमानों में मोयला शैली में महज सोलह बर्तन ही बनाये जाते हैं। इन कलात्मक बर्तनों में प्रमुख रूप से मटकी, तबाक (परात), कड़ली (आटा रखने हेतु), करी (सुराई), दोझाणी (दूध दुहने के लिए), धांगी (रोटी पकाने के लिए), परोटी (दूध जमाने के लिए), कूपा, ओलचवी मटूरा, कुण्डजा कुलड़ी, ताणी, फलमा, गगरी, तसियां हैं। मोयला शैली में कलात्मक बर्तनों में मिट्टी की खुदाई कर कूट-कूट कर भिगो दिया जाता हैं। उसमें बाद में मिट्टी की गढ़े हुए मूरर बर्तनों को पकाने के लिए न्याव के कचरे के ऊपर बर्तनों को ठिकरियों से ढक कर रख दिया जाता है।

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