शनिवार, 14 अप्रैल 2012

देश- विदेश में विख्यात राजस्थानी लोक गायिका रुखमो

 

राजस्थान के थार रेगिस्तान की खास पहचान माण्ड गायिकी को लोक गायिका रुखमों ने नई ऊँचाईयां प्रदान की हैं। थार की एकमात्र गायिका रुखमों ने विकलांग होते हुए भी माण्ड गायिकी की सरताज मल्लिका रेशमा, अलनजिला बाई, मांगी बाई, गवरी देवी की कतार में अपना स्थान बनाया हैं। बाड़मेर के छोटे से गॉव जाणकी में लोक गायक बसरा खान के घर जन्मी रुखमा का जीवन मुफलिसी में गुजरा। आज भी रुखमों गरीबी में जी रही हें। रुखमों की दादी अकला देवी तथा माता आसी देवी अविभाजित भारत के थार क्षेत्र की ख्यातनाम माण्ड़ गायिका थी। आसी के सुरीले कण्ठों ने उन्हे ख्याति दिलाई थी। परिवार में लोक संस्कृति और लोक गायिकी के खजाने ने रुखमों के मन में लोक गीत संगीत के प्रति रुचि भर दी थी। रुखमों ने अपनी माता से माण्ड गायिकी की बारिकीयां सीखी। परिवार में लोक संगीत के माहौल से रुखमों की दीवानगी गायिकी के प्रति बढती गयी। सीखने की ललक के चलते बहुत जल्द रुखमों ने लोक गायिकी एवं संगीत की कला सीख ली। माण्ड का नाम आते ही मर्म स्पर्शी गीत केसरिया बालम आऔ नी पधारो म्हारे देस के स्वर गूँज उठते हैं | उस नायिका का मान मनुहार,मिलन की ललक और विरह वेदना साकार हो उठती हैं जिसको प्रियतम के लौट आने की प्रतिक्षा में दिन रात गिनते गिनते उंगलियों की रेखाएं घिस जाती हैं और तन इतना क्षीण हो जाता हैं कि उंगली की अंगुठी से बांह निकल जाती हैं।

कोई छह दशक पहले थार की थळी में जन्मी रुखमों भी ऐसी गायिका हैं,जिसे ना केवल हजारों लोक गीत कण्ठस्थ हें,बल्कि अपनी मौलिक शैली में खटके और मुर्कियों का प्रयोग कर उन्होने माण्ड गायिकी को नये आयाम प्रदान किये हैं। माण्ड समारोह हो या अन्य कार्यक्रम, रुखमों के सुरीले कण्ठ की आवाज़ से श्रौता भाव विभोर हो उठते है। रुखमों को लोक गीत संगीत की शिक्षा अपने परिवार से परम्परागत रुप से मिली हैं। अपने मातापिता के साथ गांवो के उच्च घरानों में गाते उसने लोक गीतों की जुबान सीखी। रुखमों में सीखने की गजब की ललक को देखते हुए उनके पिता ने लोक गायिकी के परम्परागत उस्तादों के पास गायकी की बारिकियां सीखने भेजा। रुखमों ने स्थानीय कार्यक्रमों में लोक माण्ड गायिकी शुरु की और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। रुखमों की लोक गायिकी में गजब की कशिश है जिसके चलते उनकी ख्याति जल्द चारो और फैल गईं। दलित समाज की परम्पराओं को तोड़ कर माण्ड गायिकी को थार के मरुस्थल से सात समुन्द्र पार विदेशो में ख्याति दिलाने वाली क्षैत्र की पहली माण्ड गायिका रुकमा देवी को थार की लता कहा जाता है | वह आर्थिक अभाव में मुफलिसी के दौर से गुजर रही हैं।संदुक में भरे सम्मान और पुरस्कार उसे दो वक्त की रोटी नहीं दे पा रहे। रुकमा विकलांगता के आगे कभी नहीं हारी मगर अब मुफलिसी के आगे खुद को लाचार महसूस कर रही है । थार की थळी के लोक गीतों को अपने सुरीले कण्ठों से सात समुन्द्र पार पहुँचने वाली रुकमा को दाद तो खूब मिली मगर दो वक्त चुल्हा जले इतनी कमाई नहीं। दोनो पैरो से विकलांग रुकमों की गायिकी में गजब हैं। ढोल की थाप पर जब वह माण्ड शैली में केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देस गाती हैं तो लोक संगीत प्रेमी मदमस्त हो जाते है | लगभग चालीस से अधिक देशो में अपनी माण्ड गायिकी की छटा बिखेरने वाली रुकमों ने समस्त राजस्थान व भारत के प्रमुख शहरों में हजारों कार्यक्रम किये है । दोनो पांवों से विकलांग रुखमा देवी इस वक्त बाड़मेर से पैंसठ किलोमीटर दूर रामसर गांव के छोर पर बिना दरवाजों के कच्चे झौंपड़े में रह रही हैं। लोक गीत संगीत की पूजा करने वाली रुकमा देवी ने अपने जीवन के पचास साल माण्ड गायिकी को परवान चढ़ाने में निकाल दिये। अनपढ,विकलांग,विधवा,पिछड़ी,और दलित महिला कलाकार को देश विदेश में मान सम्मान खूब मिला | राष्ट्रीय देवी अहिल्या सम्मान,सत्यति सम्मान, भोरुका सम्मान, कर्णधार सम्मान सहित अनेक प्रमाण पत्रों, ताम्रपत्र लोह पत्र के सम्मान से रुकमा की संदुक भरी पड़ी हैं। रुकमा देवी के नाम से इन्टरनेट पर साईटें भरी पड़ी हें। इतना नाम होने के बावजूद रुकमा अपने रहने के लिये एक आशियाना नहीं बना सकी। रामसर गांव के एक कोने में मुफलिसी का दौर गुजार रही है। रुकमा देवी ने बताया कि वह माण्ड गायिका होने की कीमत चुका रही है | सरकार की तरफ से कोई सहायता नहीं मिली। बीपीएल में चयन तक नहीं हो पाया हैं । विधवा एवं विकलांग होने के बावजूद पेंशन नहीं मिलती। सरपंच कहता हैं कि रुकमा को भला क्या कमी। उम्र के इस पड़ाव में यजमानों के यहॉ मांगने नहीं जा सकती। एक कलाकार के जीवन का अन्त इतना बुरा हो सकता हैं सोचा ना था।


लेकिन दोनो पांवो से विकलांग रुखमों ने कभी हिम्मत नहीं हारी। घर परिवार की जिम्मेदारियॉ निभाने के साथ साथ अपनी प्रतिभा को जिन्दा रखना सबसे बड़ी चुनोती थी,रुखमों के सामने,। रुखमों ने अब तक सैकड़ो कार्यक्रम देश विदेश में देकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। रुखमों ने लोक गायिकी की पारम्परिक मोलिकता को बनाए रखां। रुखमों का मानना हैं कि लोक गीतो की भाषा से खिलवाड़ करना, उनकी धुन और लय में आधुनिक परिर्वतन करना तथा उनका फिल्मीकरण करना गलत हैं। इससे लोक गीतों की मौलिकता खत्म होती हैं। रुखमों के माण्ड़ गायिकी में सिद्धहस्ती के परिणामस्वरुप विदेशी संगीत प्रेमी माण्ड गायिकी सीखने रुखमों के पास आते हैं। रुखमों की शार्गिद आस्ट्रेलिया निवासी सेरहा मेडी ने माण्ड गायिकी सीख जवाहर कला केन्द्र जयपुर में अपनी प्रस्तूति केसरिया बालम दे कर सबको चौंका दिया। मेडी ने मंच पर रुखमों के साथ केसरिया बालम,चूड़ियॉ और पणिहारन लोक गीतों की प्रस्तुतियां देकर श्रोताओं को मद मस्त कर दिया। रुखमों के लिये यह कार्यक्रम यादगार बन गया। मेडी ने दस दिन तक रुखमों के सानिध्य में रामसर के टूटे फूटे झोंपड़े में रहकर माण्ड गायिकी सीखी। मेडी ने पहली बार थार महोत्सव में रुखमों के साथ माण्ड गायन कर ख्याति अर्जित की।

विख्यात रंगमंच कर्मी मल्लिका साराभाई ने रुखमो के जीवन पर डिस्कवरी चैनल पर एक घंटे का वृत चित्र प्रसारित कर उनकी ख्याति में चार चान्द लगा दिए। जीवन के इस पड़ाव में रुकमा को दर्द है कि उनकी माण्ड गायिकी की विरासत उसके साथ खत्म हो जाएगी। इस कला को वह जिन्दा रखना चाहती हैं | मगर कोई आगे नहीं आ रहा हैं। रुकमा की इस विरासत को उसकी छोटी बहु हनीफा अपनाने का प्रयास कर रही हैं। ताकि रुकमा की विरासत जिन्दा रहे।

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