शनिवार, 26 जनवरी 2013

गायब हुआ गण का सुकून तंत्र हथिया रखा है तांत्रिकों ने


गायब हुआ गण का सुकून
तंत्र हथिया रखा है तांत्रिकों ने

डॉदीपक आचार्य
आज के दिन हर कहींहर बार मचता है शोरऔर दो-चार दिन की धमाल के बाद फिर खो जाता हैबिना पेड़ों वाली पहाड़ियों के पार। आजादी के इतने सालों बाद भी गण को जिस तंत्र की तलाश थी उसका गर्भाधान तक नहीं हो सका अब तकया कि लाख प्रयासों के बाद भी एबोर्शन ने कहाँ पनपने दियाहै तंत्र के पुतले को।

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Happy Republic Day!
‘Salaam India!
Vande “Mataram.
रोटीकपड़ा और मकान के लिए आज भी आम आदमी दर-दर की ठोकरें खा रहा है। नून-तेल लकड़ी की जुगाड़ में इतनी उमर खपाने के बाद भी गणतंत्र का परसाद वह अच्छी तरह चख भी नहीं पाया है। हमारा गणतंत्र बढ़ती उमर के बावजूद बौनसाई हालत में कैद पड़ा है। तंत्र तितर-बितर हो रहा है,कहीं इसे कुतरा-कुचला जा रहा है तो कहीं यह दीमकों के डेरों की भेंट चढ़ रहा है। कहीं पेन की नोक वाले पेंगोलिन तंत्र से चिपटकर खुरचने में लगे हैं।
किसी जमाने में गण के लिए बना तंत्र अब गिन-तंत्र बन गया है। जहां गण से वास्ता दूर होता जा रहा है और हर कोई गिनने में दिन-रात जुटा हुआ है। जिन मल्लाहों के भरोसे गणतंत्र की नैया है वे पाल की आड़ में पाँच साल तक एक-एक दिन गिन-गिनकर गिनने में जुटे हुए हैं।
फाईव स्टार होटलों.सीदफ्तरों से लेकर फार्म हाऊसों तक में आराम फरमाते हुए प्लानिंग बनाने वाले अपुन के कर्णधारों का अब  गुण से वास्ता रहा है  गण से। अलग-अलग रंगों के झंड़ों और टोपियों के साथ गण की सेवा में उतरने वाले अखाड़चियों की हकीकत किससे छिपी है। गणतंत्र केकल्पवृक्ष ने पिछले बरसों में इतने पतझड़ देखे हैं कि बेचारा गण सूखी पीली पत्तियों की तरह दूर से दूर छिटकहवा में उड़ता रहा है। हर पाँच साल में हवाएँ आती हैं और गण को बहला फुसलाकर रफू हो जाती हैं। ऐेसे में बेचारा गण  घर का रहा  घाट का।
शिलान्यास से लेकर उद्घाटनलोकार्पणविमोचनस्वागतसम्मानरैलियोंबैठकों और सभाओं से लेकर दफ्तरों तक पसरे हुए तंत्र के नाम पर अब आई..एस., आर..एसआई.पी.एसआर.पी.एसऔर जाने कौन-कौन से आई.एस.आईमॉर्का वाले तांत्रिकों की पण्डा परम्परा गण का भाग्यबांचने दिन-रात भिड़ी हुई है।
कभी लाल टोपीसफेद टोपी तो कभी कालीकभी किसी रंग का लिबास तो कभी कोई और चौगा। यहाँ सब कुछ बदल जाता है गाँधी छाप को देखकर। ख़ास लोग दरवाजे से लेकर दिल्ली तक रंग बदल लेते हैं। कपड़ों की तरह बदल लेते हैं ईमान-धरम। गण बेचारा टुकर-टुकर कर देखता जाता है। कभीवह हॉकिम को बिसलरी की बोतल से हलक तर करते देखता है तो कभी फंक्शन्स में मेवों-मिठाइयों के बीच रमे हुए। लाल बत्ती वाली गाड़ी के खतरों को अब अच्छी तरह  समझने लगा है गण।
हर साल आता है गणतंत्र। एक दिन गण का और बाकी दिन तंत्र वाले तांत्रिकों के। दान-दच्छिना मिली नहीं कि फाइलों में मंत्र फूंक कर प्राणदान करने से लेकर सारे तंतर-मंतर में माहिर हैं अपने ये उस्ताद। महारानी से लेकर दरबारियों तक को अपने वशीकरण मंत्रों से बोतल में बन्द करने की कला सेवाकिफ हैं ये। आखिर अंग्रेजों की शिक्षा-दीक्षा को ये काले अंग्र्रेज अभी नहीं तो कब आजमाएंगे।
समस्याओं के पहाड़ों के बीच धंसा गण कराहने लगा हैदफ्तरों में लम्बी लाइनें हैं और फाइलों की रेल छुक-छुक कर चलती है उधार के ईंधन से। यहां सब फ्री स्टाईल चल रहा है। गण को दरकिनार कर तंत्र हावी होता जा रहा है। बिना कुछ दान-दक्षिणा के कौन सा देवता रीझता है फिर ये हाकिम तोइंसान हैं। इनके भी अपने पेट हैंबाल-बच्चे हैंबैंक लॉकर हैं और लक्ष्मी को कैद करने के तमाम नुस्खों की महारथ। ये ही तो वह बात है जिसने इन्हें गण से गणमान्य बना डाला है।
आईये गणतंत्र के इस महान पर्व पर हम गणमान्यों का खुले दिल से अभिनंदन-वन्दन करें और ठिठुरते-कराहते गण के प्रति आत्मीय सहानुभूति व्यक्त कर उसे सान्त्वना प्रदान करें।