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सोमवार, 26 जून 2017

तीखी बात लालकृष्ण आडवानी भारतीय राजनीति में असफल क्यों हुए!



तीखी बात

लालकृष्ण आडवानी भारतीय राजनीति में असफल क्यों हुए!



-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत के राजनीतिक गगन पर विगत तीन दशकों से सितारे की तरह चमकते हुए लालकृष्ण आडवानी वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी प्राप्त नहीं कर सके तथा 2017 में राष्ट्रपति की कुर्सी भी उनकी पहुंच से बहुत दूर सिद्ध हुई। ये वही लालकृष्ण आडवानी हैं जिन्हें भाजपा का लौहपुरुष कहा जाता था। ये वही लालकृष्ण आडवानी हैं जिन्होंने 1984 के आमसभा चुनावों में भाजपा को केवल 2 सीटें प्राप्त होने के बाद अध्यक्ष के रूप में पार्टी की कमान संभाली और 1989 के आम चुनावों में बीजेपी को लोकसभा में 86 सीटें दिलवाने में सफल रहे। 1984 की 2 सीटों वाली पार्टी 1989 में वीपी सिंह की सरकार को समर्थन देकर केन्द्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनवाने में सफल रही। 1990 में आडवानी ने रामरथ यात्रा का आयोजन करके बीजेपी को आम हिन्दू की पार्टी बनाया और वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस खींच लिया। 1990 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 120 सीटें जीतीं और उत्तर प्रदेश की विधान सभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।

आडवानी का रामरथ और आगे बढ़ा तथा 1992 में लालकृष्ण आडवाणी की उपस्थिति में बाबरी मस्जिद ढहने के बाद 1996 में हुए आम चुनावों में बीजेपी 161 सीटें लेकर लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। पहली बार भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने क्योंकि भाजपा को समर्थन देने वाली अन्य पार्टियों ने वाजपेयी को हिन्दुत्व का मुलायम चेहरा और आडवानी को हिन्दुत्व का सख्त चेहरा माना। यह सरकार केवल 16 दिन चली। बीजेपी ने 1998 का मध्यावधि चुनाव एनडीए के बैनर तले लड़ा और फिर से अटलबिहारी वाजपेई के नेतृत्व में बीजीपी की सरकार बनी क्योंकि एनडीए के घटकों को हार्ड लाइनर आडवानी की जगह सॉफ्ट लाइनर वाजपेयी अधिक अनुकूल जान पड़े। मई 1999 में जयललिता के समर्थन वापस लेने से बीजेपी की यह सरकार भी गिर गई। अक्टूबर 1999 के लोकसभा चुनावों में एनडीए ने जयललिता के बिना ही 303 सीटें जीतीं जिनमें से बीजेपी की 183 सीटें थीं। एनडीए के घटकों ने एक बार फिर अटलबिहारी वाजपेयी का नेतृत्व स्वीकार किया और आडवानी प्रधानमंत्री की कुर्सी से वंचित रह गए। उन्हें उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री पद से संतोष करना पड़ा।

लालकृष्ण आडवानी का रामरथ केन्द्र में तीन बार भाजपा की सरकार बनाने में सफल रहा किंतु आडवानी को प्रधानमंत्री नहीं बना सका। एनडीए के घटक भले ही वाजपेयी को पसंद करते रहे किंतु जनता, अटल बिहारी वाजपेयी की सॉफ्ट लाइनर छवि से शीघ्र ही ऊब गई और 2004 में भाजपा को 10 साल के लिए सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। लालकृष्ण आडवानी के सख्त हिन्दुत्व चेहरे की वजह से पार्टी तो आगे बढ़ी किंतु आडवानी को उसका लाभ मिलने की बजाय नुक्सान हुआ। वाजपेयी के सॉफ्ट लाइनर चेहरे की वजह से उन्हें खुद को तो लाभ हुआ किंतु पार्टी को नुक्सान हुआ। 2009 का लोकसभा चुनाव लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हुआ तथा पार्टी द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बताया गया किंतु भाजपा एक बार फिर चुनाव हार गई।

वाजपेयी सरकार में रहते हुए ही आडवानी ने अपनी लौह पुरुष वाली छवि को तोड़ने वाले उपाय आरम्भ कर दिए ताकि एनडीए के घटक वाजपेयी की जगह आडवाणी को पसंद करने लगें। उन्होंने वक्तव्य दिया कि धर्म के आधार पर जम्मू-कश्मीर के टुकड़े नहीं होंगे। जबकि हिन्दुत्ववादियों का आरम्भ से यही दृष्टिकोण रहा है कि घाटी को लद्दाख और जम्मू से अलग किया जाए। कश्मीरी पण्डितों के मुद्दे पर भी गृहमंत्री आडवाणी के रुख को कभी पसंद नहीं किया गया। जम्मू में उनका इतना विरोध हुआ कि उनके समर्थकों ने ही आडवाणी को धक्का देकर नीचे गिरा दिया।

वर्ष 2005 में आडवानी पाकिस्तान गए और जिन्ना की मजार पर जाकर जिन्ना के गुणगान करते हुए उसे धर्म निरपेक्ष बता आए। इस वक्त्वय से भाजपा के भीतर हाय-तौबा मच गई। मदनलाल खुराना सहित अनेक वरिष्ठ नेताओं ने आडवाणी के वक्तव्य का विरोध करते हुए उनसे लोकसभा में नेता विपक्ष का पद एवं पार्टी के अध्यक्ष का पद छोड़ने की मांग की। मुरली मनोहर जोशी एवं उमा भारती भी उनके विरोध में आ गए। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि भारत की आजादी के समय से ही हिन्दुत्ववादियों ने भारत की साम्प्रदायिक समस्याओं के लिए कांग्रेस तथा जिन्ना दोनों को बराबर का जिम्मेदार ठहराया है। इस प्रकरण में आडवाणी ने त्यागपत्र नहीं दिया तथा आगे की तिथियां देते रहे।

आडवाणी के जिन्ना प्रकरण का हिन्दुत्वावादी जनता पर बहुत बुरा असर हुआ किंतु आडवाणी ने इससे कोई सीख नहीं ली तथा अपनी छवि को सॉफ्ट बनाने की तरफ आगे बढ़ते रहे। आडवाणी ने अल्पसंख्यक मतदाताओं को खुश करने के लिए वक्तव्य दिया कि जब पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी एक हो सकते हैं तो भारत और पाकिस्तान एक क्यों नहीं हो सकते! यह तर्क आम हिन्दू के गले नहीं उतरा क्योंकि पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के नागरिक एक नस्ल, एक जाति और एक ही धर्म के थे जिन्हें एक ओर इंग्लैण्ड और उसके मित्रों ने तथा दूसरी ओर रूस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बलपूर्वक बन्दर-बांट करके अलग किया था जबकि भारत और पाकिस्तान की जनता धर्म के नाम पर पांच लाख लोगों को खून बहाकर और पांच करोड़ लोगों को बेघर करके अलग हुई थी।

बाबरी मस्जिद ध्वंस मुकदमे में आडवाणी ने न्यायालय में वक्तव्य दिया कि मैं बाबरी मस्जिद को तोड़ने नहीं अपितु बचाने गया था। वे स्वयं उपप्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री रहते हुए इस मुकदमे से साफ बाहर निकल आए किंतु उनके साथी मुरली मनोहर जोशी आदि इसमें फंसे रह गए। इस घटना से हिन्दुत्वादियों की दृष्टि में आडवाणी की छवि और ज्यादा खराब हुई। जब हिन्दुत्ववादी चिंतकों ने देश में बढ़ते हुए आतंकवादी हमलों के प्ररिप्रेक्ष्य में इस्लामिक आतंकवाद की बात कही तो आडवाणी ने वक्तव्य दिया कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। हिन्दुत्ववादियों ने आडवाणी की इस बात को भी पसंद नहीं किया। क्योंकि कांग्रेस ने मालेगांव बम विस्फोट तथा अजमेर दरगाह बम विस्फोट के बाद हिन्दुत्वादियों पर भगवा आतंकवाद का आरोप लगाया था किंतु चौतरफा विरोध होने पर कांग्रेस ने बयान बदलते हुए कहा था कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। जब यही बात आडवाणी ने दोहराई तो हिन्दुत्वादियों को पसंद नहीं आई।

मनमोहनसिंह सरकार के समय आडवाणी ने मांग की कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए क्योंकि उन्हें लगता था कि दिल्ली से भाजपा का राज्य कभी जा ही नहीं सकता। इसलिए भले ही केन्द्र में कांग्रेस की सरकार रहे किंतु दिल्ली की राज्य सरकार भाजपा के पास रहेगी जबकि भारत की जनता अच्छी तरह जानती थी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना देश के लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकता है। जिस नगर में देश क राजधानी हो, उस नगर की पुलिस दूसरे दल की सरकार के हाथों में होने से कई तरह की गंभीर समस्याएं खड़ी हो सकती है!

आडवाणी ने अपनी पुस्तक माई कण्ट्री माई लाइफ तथा अपने ब्लॉग लेखन से भी हिन्दुत्ववादियों को नाराज किया और पार्टी के भीतर आडवाणी की खुलकर आलोचना होने लगी। आडवाणी ने नाराज होकर 11 जून 2013 को पार्टी के सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया किंतु पार्टी ने यह कहकर उन्हें पार्टी के समस्त पदों पर बने रहने के लिए सहमत कर लिया कि पार्टी में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। 2014 के लोकसभा चुनावों के आते-आते आम जन में कांग्रेस की नीतियों का विरोध चरम पर पहुंच गया और मोदी का हिन्दुत्व आम जन के सिर चढ़कर बोलने लगा तब भी आडवाणी जनता की नब्ज नहीं पकड़ पाए। उन्होंने हार्ड लाइनर माने वाले नरेन्द्र मोदी का इतना विरोध किया कि आडवाणी, पार्टी के भीतर ही नकार दिए गए। उन्हें न केवल प्रधानमंत्री की कुर्सी से वंचित रहना पड़ा अपितु 2017 में पार्टी ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तक घोषित नहीं किया। इस प्रकार आडवाणी को अटलबिहारी वाजपेयी के समय में हार्ड लाइनर होने का और मोदी के समय में सॉफ्टलाइनर होने का नुक्सान हुआ और वे प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति की कुर्सियों के बहुत नजदीक पहुंचकर भी उनसे वंचित रह गए।

यद्यपि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की कुर्सियां सफलता का पैमाना नहीं हैं तथापि जब राजनीतिक व्यक्ति को उसके विचारों के लिए उसके ही अनुयाइयों, समर्थकों एवं मित्रों द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाए तो उसे राजनीतिक विफलता माना जाना चाहिए। आडवाणी के पास आज अनुयाई, समर्थक और मित्र, तीनों का ही लगभग अभाव है। यही उनकी राजनीतिक विफलता है। आडवाणी यह बात समझने में विफल रहे कि देश को उनकी आवश्यकता एक दृढ़ हिन्दू नेता के रूप में थी न कि धर्मनिरपेक्ष वादी हिन्दू नेता के रूप में। उनकी राजनीतिक विफलता का सबसे बड़ा कारण भी यही प्रतीत होता है।