रविवार, 21 सितंबर 2014

पापाें एवं अपकीर्ति से छूटकारा चाहते हैं तो इस प्रसंग को पढ़ें या सुनें

यदुवंश में निघ्न नाम के महाप्रतापी राजा थे, जिनके प्रसेन आैर सत्राजित् नामक दाे पुत्र हुए। प्रसेन आैर सत्राजित् दाेनाें महान् याेद्धा थे। शत्रु उनके नाम से कांपते थे। सत्राजित् भगवान् सूर्य के परम भक्त थे। वे बड़ी ही भक्ति-पूर्वक नित्य भगवान् सूर्य की अराधना करते थे। एक बार रथियाें में श्रेष्ठ सत्राजित् सूर्याेपस्थान करने के लिए प्रात काल समुद्र तट पर गए। जिस समय सत्राजित् सूर्याेपस्थान कर रहे थे, उसी समय भगवान सूर्यनारायण परम प्रसन्न हाेकर उनके सामने खड़े हाे गए।पापाें एवं अपकीर्ति से छूटकारा चाहते हैं तो इस प्रसंग को पढ़ें या सुनें
भगवान् सूर्य के तेज से सत्राजित् की आंखें चाैधियां गई। वे प्रयास करने के बाद भी भगवान् सूर्य काे नहीं देख पा रहे थे इसलिए उन्हाेंने अपने सामने खडे़ सूर्यदेव से कहा, प्रभु जैसे मैं प्रतिदिन आपका आकाश में दर्शन करता हूं, वैसे ही प्रचण्ड तेज के रूप में आज भी देखूं, फिर आपके मित्रतावश दर्शन देने की क्या विषेशता हुई। इतना सुनते ही भगवान सूर्यनारायण ने स्यमन्तकणि काे अलग रख दिया। अब सत्राजित् ने भगवान् सूर्य के परम मनाेहर रूप का दर्शन किया। उन्हाेंने दाे घड़ी तक उनसे बात भी की। जब भगवान् सूर्य लाैटने लगे ताे सत्राजित् ने कहा, प्रभु आप जिस दिव्यमणि से तीनाें लाेकाें काे प्रकाशित करते हैं, वह मझे देने की कृपा करें।

भगवान् सूर्य ने कृपा करके वह मणि सत्राजित काे दे दी। सत्राजित जब स्यमन्तकणि काे धारण करके द्वारकापुरी मे गए ताे नगरवासियाें काे लगा कि भगवान् सूर्य आ रहे हैं। इस प्रकार नगरवासियाें काे आश्चर्यचकित करते हुए सत्राजित् अपने रनिवास में चले गए। इस मणि की यह विशेषता थी कि इसके प्रभाव से प्रतिदिन इससे आठ बार साेना झड़ता था। जहां यह रहती थी उस देश में मेघ समय से वर्षा करते थे। आगे चलकर इसी मणि काे लेकर भगवान श्री कृष्ण काे कलंक लगा। जाे इस प्रसंग काे पढ़ता व सुनता है वह सम्पूर्ण पापाें एवं अपकीर्ति से छूटकर परम शान्ति का अनुभव करता है।

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