रविवार, 11 सितंबर 2016

रामदेवरा के बाबा कृष्ण -द्वारकाधीश के असल अवतार



रामदेवरा के बाबा कृष्ण -द्वारकाधीश के असल अवतार


राजस्थान प्रदेश के पश्चिमी दिशा में स्थित पोकरण नगर के पास रामदेवरा नामक एक स्थान में कृष्ण द्वारकाधीश के असल अवतार रामदेव जी के समाधी धाम है। प्रति वर्ष यहां रामदेव जी की अवतरण तिथि भादवा मास की शुक्ल द्वितीया से एकादशी तक विशाल एवं प्रसिद्व मेला चल रहा है। इस मेले में अब तक लाखों की संख्या में जातरुओं ( श्रृद्धालू लोग ) रामदेवरा पहुंच कर बाबा रामदेव जी की समाधी ( निज मंदिर ) के दर्शन एवं ढोक कर अपने घरों की ओर लौट रहे है।

ये भक्त श्रृद्धालू विभिन्न साधनों से या पैदल यात्रा ,संघ व कनक दण्डवत करते हुए पहुंच रहे है तथा बाबा के दर्शन करके अपने कृतार्थ एवं धन्य महसूस करते है।

रामदेव जी की

जीवन लीला:- कृष्ण द्वारकाधीश के असल अवतार रामदेव जी के इस धरा पर अवतरण लेने की कथा , पिता अजमाल जी के समुन्द्र में पहुंचने , श्रीनारायण से क्षिर सागर में वचन पाने इत्यादि से सभी भक्त परिचित है। बाबा रामदेव जी अपने जीवन लीला में वीर और संत दोनों है। अवतार से समाधी लेने तक बाबा ने जीवन-पर्यन्त तक अछूतों का उद्धार किया तथा अनाथ , दीन-दुःखियों की सेवा की। इस दौरान बाबा को डालीबाई ,डालबाई नामक एक अनाथ लड़की मिली बाबा ने उसको घर लाकर बहिन की तरह पाला व पोसा जो बाद में उनकी अनन्य भक्त हुई। डालीबाई को बाबा रामदेव जी ने उनके परम भक्त धारुराम मेघवाल के कोई संतान नहीं होने से डालीबाई के पालन की जिम्मेवारी उन्हें सौंपी।

बाबा रामदेव जी के प्रसंग के साथ ही उनकी अनन्य भक्त डालीबाई का नाम जुड़ा हुआ है।


समाधी का वर्णन:- कहते हैं कि जब रामदेव जी के भादवा शुक्ल पक्ष की दशमी को समाधी लेने की तैयारियांॅ हो रही थी , तब डालीबाई जंगल में गायों के बछड़ा चरा रही थी तब उन्हें रुणैचा में विभिन्न वाद्ययंत्रों की ध्वनि सुनायी दी। अपनी जिज्ञासा के लिए उधर से जा रहे एक पथिक से पूछा कि यह वाद्ययंत्रों की आवाज सुनाई दे रही है, उस पथिक ने बताया कि अजमालजी के कंुंवर स्वर्ग को पधार रहे है। यह सुन कर डालीबाई समाधी के लिए अति उत्कंठित हुई एवं पथिक से बछड़ों को थौड़ी देर तक चरवाने का निवेदन किया किन्तु उसको दूर जाना था , समय कम था। अंत में डालीबाई बछड़ों को ही रामदेव जी की सौंगध दिला कर कहती है तुम सांझ होने पर अपने घर आ जाना। इतना कह कर डालीबाई दौड़ती हुई रुणैचा पहुंची जहां रामसरोवर की पाल पर रामदेवजी के समाधी की तैयारियाॅं चल ही थी और रामदेव जी खड़े रह कर उत्सव मना रहे थे।

डालीबाई ने अपने ईष्टदेव रामदेव जी से कहा कि यह जो समाधी खोदी जा रही है यहां पर तो मैं समाधी लूंगी क्योंकि यह स्थान विधाता द्वारा मेरे लिए ही निश्चित किया गया है। आपकी समाधी इस स्थान से 11 कदम पश्चिम की ओर होगी। यहां खड़ाउ ,हस्तवाद्य ,मंूदड़ा (कड़ा) ,तूम्बी निकलेगी। डालीबाई की यह बात सुन कर एकत्रित जन समूह का कुतूहल बढ़ा। जब रामदेव जी ने डालीबाई से पूछा कि तेरी समाधी के क्या लक्षण है! तब डालीबाई ने बताया कि जिस स्थान पर आटी ,डोरा एवं कांगसी निकल आए वही मेरी समाधी का स्थान है। उस स्थान के खोदने पर वस्तुतः आटी ,डोरा और कांगसी निकल आए, रामदेव जी अपनी भक्त डालीबाई के इस चमत्कार से गद्गद हो गये और वहीं पर समाधी लेने की आज्ञा दी। इस प्रकार रामदेव जी से एक दिन पूर्व भादवासुदी दशमी को डालीबाई ने समाधी ली।

बाबा रामदेव जी ने शुक्ल एकादशी को समाधी ली:- इस प्रकार डालीबाई की समाधी के पश्चात रामदेव जी एक बार अपने बंधु-बांधवों के साथ पुनः घर लौट आए। एक रात रामदेव जी को अपने साथ फिर पाकर लोगों ने मन ही मन डालीबाई को धन्यवाद दिया। कहा जाता है कि दूसरे दिन प्रातः समाधी लेने से पूर्व बाबा रामदेव जी ने शोक संतप्त जन समुदाय को आध्यात्मिक उपदेश दिया और अपने पिता अजमाल , माता मेणादे , भाई विरमदेव , भाभी व रानी नेतलदे को भी ज्ञानोपदेश देते हुए उन्हें मोह-ममता के दलदल से निकालने का प्रयत्न किया।



इतना सब करने पर भी उन सब का करुण रुदन रुका नहीं, एकत्रित जनसमुदाय का रुदन, कोलाहल और विलाप शांत नहीं हुआ तक रामदेव जी नें तंवरों को यह वरदान दिया कि आप लोग किसी के कहने पर मोह के वसीभूत होकर मेरी समाधी फिर खोदना मत ,आपकी हर पीढी में मुझ जैसा पीर होता रहेगा। तंवरों को यह एक वरदान देकर भादवासुदी एकादशी संवत् 1442 को रामदेव जी ने जीवित समाधी ले ली। रामदेव जी के वंशजों की बीसवीं पीढ़ी में श्री भोंमसिंह तंवर गादीपति है।

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