बुधवार, 25 दिसंबर 2013

बालार्क मंदिर में सुर्य देवता और उसकी पत्नी रानादे आस्था केंद्र केन्द्र है लाल चंदन की काष्ठ प्रतिमाएं

आस्था केंद्र केन्द्र है लाल चंदन की काष्ठ प्रतिमाएं


पत्थर की तरह लकड़ी भी अपने भीतर पवित्रता छिपाएं हुए है, तभी पशिचम की दुनिया के लोग किसी के लिए दुआ करते समय लकड़ी को छूकर 'टचवुड' कहते है। पूर्व में भी यह मान्यता काफी पुरानी है। भारत के पशिचम में भी बहुत पुरानी, भारत के पशिचम अर्थात राजस्थान में उससे भी पुरानी और राजस्थान के पशिचम यानी बाड़मेर में सदियों पुरानी है। बाड़मेर शहर के बालार्क मंदिर  में सुर्य देवता और उसकी पत्नी रानादे की प्रतिमाएं लकड़ी की बनी हुर्इ है। अतिप्राचीन काष्ठ प्रतिमाएं यहां सूर्य व सूर्य की पत्नी पूजा करने आए भक्तो को इतिहास की अमर गाथाओ से हर दिन रुबरु करवाती है।


इन प्रतिमाओं के यहां स्थापित होकर सांचोरा जोशी समाज के लिए आस्था को केन्द्र बनने के पीछे की लोक कथा यू हैै। तालाब के पास मिटटी से अवतरित बालार्क (सूर्य का बालरुप) व रानादे की प्रतिमाओं को जब ऊंटगाडी पर रखा गया। उसी क्षण ऊंट ने चलना आंरभ किया। ऊंट अपने आप ही एक निशिचत दिशा की ओर बढने लगे। लगातार तीस किलोमीटर चलने बाद ऊंट गाडी जोशियों के निचले बास में रुक गर्इ। फिर यहां स्थापित होने के बाद बालार्क देवता की प्रतिमा जन आस्था का केन्द्र बन गर्इ। बाड़मेर से 30 किलोमीटर दूर बिशाला गांव है। वहां से ही ये प्रतिमाएं लार्इ गर्इ। लोकथानक में इसके आगमन का धुंधला चित्र मिलता है। लेकिन इस सवाल पर इतिहास मौन है। वह यह नही बताता कि मूलत: ये प्रतिमाएं किसी स्थान से आर्इ और वे पत्थर की होने की बजाय काष्ठ की ही क्यो थीं? यह सत्य है कि इसको पूजने वाले सांचोरा ब्राहमन सांचोर के आसपास के क्षेत्र से पलायन कर बाड़मेर में बस गए। मुसिलम आक्रमणकारियों के भय से सांचोरा ब्राहमनो को संभवत: पत्थर की जगह काष्ठ की प्रतिमाएं बनाने पर विवश किया। उन्हें पलायन के बाद अपने घर के साथ-साथ अपने इष्ट की मूर्तियों को पीछे वीराने में छोड़ने में बड़ा दु:ख होता था। फिर पत्थर की तरह लकड़ी भी आकार में बदल कर र्र्इश्वर के विभिन्न रुप ले सकती थी। उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले लाया जा सकता था चूंकि यह मरु प्रदेश काष्ठ की प्रतिमाओं के लिए सुरक्षित जगह थी, इसलिए बाड़मेर एवं अन्य स्थलों पर शरण लिए सांचोरा ब्राहमन उन्हें यहां लाए और स्थापित कर दिया। और आज भी अपने आसपास सुख व शांति का आशीर्वाद देने के लिए हर क्षण मौजूद पाते है। मंदिर में पूजा पुषिट मार्ग की पंरपराओं के अनुसार होती है। इसका कारण सांचोरा जोशियो के वल्लभाचार्य के प्रभाव में आकर पुषिटमार्गीय होना है। नाथद्वारा में आज भी पुषिट मार्ग की प्रधान पीठ है और इसकी मुखिया परंपरा में सांचोरा जोशी ही रहे है।
बालार्क मंदिर में श्री नाथ जी का एक भव्य चित्र है। जो इसका संबंध नाथद्वारा से जोड़ता है। इसलिए चित्रो एवं प्रतिमाओं का मूल एक होना जितना स्पष्ट चित्र इतिहास के आर्इने में दिखाता है। उतना ही धुंधला अक्स गहरार्इ में सोचने पर उभरता है। लेकिन इतिहास में हुर्इ वारिशो के बाद बने इन्द्रधनुष सबकों नही दिखते, उनके कभी-कभी सपने आते है। ओर उनमें यहां के बुजुर्गो को सत्याभास मिलता है। ये प्रतिमाएं लाल चंदन की लकड़ी पर बनी है। इन पर काला लेप है। इसी कारण ये अभी भी अक्षुण बनी हुए है। बालार्क प्रतिमा उदीच्च शैली को सूर्य प्रतिमा है। इसमें प्रतिमा बूट पहने होती है इसी शैली की अन्य सूर्य प्रतिमाएं भारत में मिली है। यही वजह इनके पूर्व मध्यकाल से भी पूर्व होने की है। प्रतिमाओं को अपने में समेटे मंदिर का शिल्प लगभग दो सौ वर्ष पुराना है जो तत्कालीन शिल्प से मिलता-जुलता है।
लकड़ी की होने के कारण पलायन को मजबूर होते इन ब्राहमनो को इन्हे सुरक्षित रखने में कठिनार्इ नही हुर्इ। बाड़मेर में निरापद स्थान पाने के कारण यहां बस गर्इ और आज भी है। जिस बालार्क मंदिर में ये प्रतिमाएं है। वह सांचोरा ब्राहमणों की मुख्यत: आबादी वाले जोशीवास में है। इनके बारे में इतिहासकार कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक एनाल्स एण्ड एटिकिवटीज आफ राजस्थान में लिया है।

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