गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

बहरूपिये की कला को आगे बढ़ा रहे हें राजू बहरूपिया


बहरूपिये की कला को आगे बढ़ा रहे हें राजू बहरूपिया 

बाड़मेर सीमावर्ती बाड़मेर जिले में दो पीढियों से बहरूपिये की कला को राजू राव  और उसके ममेरे भाई मुकद्दर ने ज़िंदा रख लोगो का मनोरंजन कर अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल रहे हें .भारत में बहुरूप धारण करने की कला बहुत पुरानी है. राजाओं-महराजाओं के समय बहुरूपिया कलाकारों को हुकूमतों का सहारा मिलता था. लेकिन अब ये कलाकार और कला दोनों मुश्किल में है.आज उनको अपने परिवार के पालन पोषण के लिए इस कला को आगे बढ़ा रहे हें .उसका कारण  भी राजू बताते हें की उसे शिक्षा का माहौल नहीं मिला जिसके कारन पढ़ नहीं पाया .पिताजी के मार्गदर्शन में इस कला को आगे बढ़ा रहा हूँ .

इन कलाकारों का कहना है कि समाज में रूप बदल कर जीने वालों की तादाद बढ़ गई है. लिहाजा बहरूपियों की कद्र कम हो गई है.

इन कलाकारों में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. मगर वे कला को मज़हब की बुनियाद पर विभाजित नहीं करते. मुसलमान बहरूपिया कलाकार हिंदू प्रतीकों और देवी-देवताओं का रूप धारण करने में गुरेज़ नहीं करता तो हिंदू भी पीर, फ़कीर या बादशाह बनने में संकोच नहीं करते.


ये कला बहुत बुरे दौर से गुज़र रही है. मेरे ख़्याल से सबसे ज़्यादा बहुरूपिया कलाकार राजस्थान में ही हैं. पुरे देश में कोई दो लाख लोग हैं जो इस कला के ज़रिए अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं.

रमेश बहरूपिया बाड़मेर उम्र साठ  साल
रमेश बहरूपिया बाड़मेर जिले सहित पश्चिमी राजस्थान के कई जिलो  में कई वर्षों से इस कला को प्रोत्साहित करते रहे हैं. वो कहते है, “ये कला बहुत बुरे दौर से गुज़र रही है. मेरे ख़्याल से सबसे ज़्यादा बहरूपिया कलाकार राजस्थान में ही हैं. पूरे देश में कोई दो लाख लोग हैं जो इस कला के ज़रिए अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं.”

बाड़मेर के राजू राव को  को ये फ़न अपने पिता रमेश राव  से विरासत में मिला है. वो बड़े मन से इस कला का प्रदर्शन करते हैं. लेकिन उनके तीनो बेटों ने इससे हाथ खींच लिया है. बेटों का कहना है कि ‘इस कला की न तो कोई कद्र करता है और ना ही इसका कोई भविष्य है.’
रमेश राव  कहते हैं, “हमें पुरखों ने बताया था कि बहरूपिया बहुत ही ईमानदार कलाकार होता है. राजाओं के दौर में हमारी बड़ी इज़्जत थी. हमें ‘उमरयार’ कहा जाता था. हम रियासत के लिए जासूसी भी करते थे. राजपूत राजा हमें बहुत मदद करते थे और अजमेर में ख्वाज़ा के उर्स के दौरान हम अपनी पंचायत भी करते थे. आज हर कोई भेस बदल रहा है. बदनाम हम होते हैं. लोग अब ताने कसते हैं कि कोई काम क्यों नहीं करते.”

बहुरूपिया कलाकार को राजाओं के दरबार में काफ़ी इज़्जत मिलती थी

राव कहते हैं कि बहरूपिया के 52 रूप है. जो भय पैदा कर दे वो ही बहरूपिया है. कृष्ण ने गुजरात में हिंसा का वो दौर देखा है ‘जब बस्तियां मज़हब की हदों में बंट गई थीं और सियासत या तो शरीके-जुर्म थी या फ़रार हो गई थी.’ मगर ये बहरूपिया कलाकार बस्तियों में भाईचारे का पैगाम बाँटते रहे.

हम इस कला को ज़िंदा रखना चाहते हैं. हम हिंदू भेस धारण कर मुस्लिम बस्तियों में जाते हैं और प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हैं.

रमेश राव  बहरूपिया
नए नए रूप धारण करने के चलन का ज़िक्र महाभारत में भी है. महाभारत में भगवान कृष्ण के कई रूप धारण करने की बात है और उन्हें छलिया भी कहा गया.मगर अब जैसे भारत में 60 साल की कहानी रुख़ से नक़ाब हटने का किस्सा बन गई हो. कभी किसी धार्मिक हस्ती का चेहरा बेनकाब होता है तो कभी किसी नेता का.ये कलाकार जब अपना हुनर दिखाते हैं और दावा करते हैं कि वे ही असली बहुरूपिए हैं तो तमाशबीन चक्कर में पड़ जाते हैं. उन्हें लगता फिर वो कौन हैं जो ऊँचे मुकाम और मंचो पर बैठे हैं.

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