जैसलमेर पर्यटकों को लुभाती कठपुतली कला को सरकारी संरक्षण की दरकार
चन्दन सिंह भाटी
जैसलमेर राज्य के प्रमुख आकर्षणों में से एक इसकी सदियों पुरानी, जोशीली प्रदर्शन कला है जिसे 'कठपुतली' कहा जाता है, जिसमें 'कठ' का अर्थ लकड़ी और 'पुतली' का अर्थ गुड़िया होता है। 2006 में भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग प्राप्त करने के बाद, 'कठपुतली' एक जीवंत कला है जो इस क्षेत्र के सामाजिक ताने-बाने का एक अनिवार्य हिस्सा है।जैसलमेर के पर्यटन को नई ऊंचाइयां देने में कठपुतली कला का बड़ा योगदान हैं ,इसी योगदान को देखते हुए राजपरिवार के कठपुतली कलाकारों को किले की चढ़ाई पर निश्चित स्थान दे रखा हैं ,जंहा ये अपनी कठपुतली कला से पर्यटकों को आकर्षित करती हैं ,इसी से इनकी जीविका चलती हैं ,
परंपरा के तार
जैसलमेर की कठपुतली एक हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी कठपुतली कला है। इसे मुख्य रूप से 'भाट' समुदाय (राजस्थान का एक खानाबदोश समुदाय) द्वारा खेला जाता है, जो दावा करते हैं कि यह कला उनके पूर्वजों द्वारा क्षेत्र के शाही परिवारों के लिए निभाई जाती थी। 'भाट', जिन्हें कभी-कभी 'नट' भी कहा जाता है, कठपुतली कलाकार थे जो अपने चलायमान थिएटर के साथ गाँव-गाँव घूमते थे। वे पौराणिक और सामाजिक परंपराओं के नायकों की कहानियाँ सुनाकर लोगों का मनोरंजन करते थे। आज, ये समुदाय राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों में बस गए हैं और इस प्राचीन कला का अभ्यास करना जारी रखते हैं। राजस्थान की कठपुतली की अपनी अनूठी विशेषता है। लकड़ी के एक ही टुकड़े से उकेरी गई ये कठपुतलियाँ लगभग 30 सेंटीमीटर ऊँची होती हैं, साथ ही सिर पर पहना जाने वाला कपड़ा भी उसी लकड़ी से उकेरा जाता है। कठपुतली की आँखें लम्बी और शैलीबद्ध होती हैं जबकि चेहरे आमतौर पर पीले रंग से रंगे होते हैं। शरीर और अंग आम की लकड़ी से बने होते हैं और उनमें रुई भरी होती है। ज़्यादातर कठपुतलियों के पैर नहीं होते हैं और इसलिए वे स्वतंत्र रूप से हरकत करती हैं। लंबी डोरियों से जुड़ी कठपुतलियों को लंबी लटकती हुई स्कर्ट में लपेटा जाता है जो गायब पैरों को छुपाती है। उनकी उंगलियों के चारों ओर लपेटी गई डोरियों के हल्के झटके से कठपुतली कलाकार इन कठपुतलियों के हाथ, गर्दन और कंधों की गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं।
दो तार वाली क्यारियों को लंबवत रखकर और उनके बीच बांस बांधकर दर्शकों के सामने कठपुतली का प्रदर्शन प्रस्तुत किया जाता है। पीछे की तरफ गहरे रंग का पर्दा लटका होता है, जबकि सामने की तरफ तीन मेहराबों वाला एक रंगीन पर्दा, जिसे तिबारा कहा जाता है, लटका होता है। यह पर्दा प्रदर्शन के दौरान कठपुतली कलाकारों के शरीर और पैरों को छुपाता है। संवादों को महिलाओं द्वारा गाए गीतों और ढोलक (संगीत वाद्ययंत्र) के संगीत के साथ समन्वित किया जाता है, जबकि कठपुतली भाटों की उंगलियों की धुन पर नाचती हैं जिस कुशलता से नट कठपुतलियों को अपनी उंगलियों की लय पर नचाते हैं, वह वाकई मंत्रमुग्ध कर देने वाला होता है। कठपुतली शो में पेश की जाने वाली कई कहानियों में से सबसे लोकप्रिय कहानी राजा अमर सिंह राठौड़ की है, जो शाहजहां के समय में रहते थे।
कठपुतली' की विरासत
राजस्थान कठपुतली एक ऐसी कला है जो सिर्फ़ मनोरंजन का साधन ही नहीं है, बल्कि नैतिक और सामाजिक शिक्षा का माध्यम भी है। दहेज प्रथा, महिला सशक्तिकरण, अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी और स्वच्छता जैसे मुद्दों को अक्सर प्रदर्शनों के माध्यम से उठाया जाता है। आज देश भर में कई संगठन स्वास्थ्य, शिक्षा और मानवाधिकारों पर प्रभावी जानकारी फैलाने के लिए इस कला का उपयोग कर रहे हैं। राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, कठपुतली का कला रूप स्थानीय लोगों की परंपराओं, मान्यताओं और जीवनशैली को दर्शाता है।
एक अनमोल यादगार
राजस्थान की कठपुतली दुनिया भर में मशहूर हैं और पर्यटकों के लिए लोकप्रिय स्मृति चिन्ह हैं। प्रसिद्ध शासकों- शिवाजी महाराज, महाराजा जय सिंह और महाराणा प्रताप के चित्रों जैसे विभिन्न रूपों में उपलब्ध, या जानवरों की आकृतियों- ऊँट, हाथी और घोड़े के साथ दरवाज़े पर लटकाने के रूप में या यहाँ तक कि खिलौनों के रूप में भी; कठपुतली एक ऐसी यादगार चीज़ है जो आपको हमेशा भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की याद दिलाएगी।
सरकारी सरंक्षण की दरकार
रंग-बिरंगी कठपुतलियां हमारे एंटरटेनमेंट के साथ-साथ सामाजिक सन्देश देने का भी माध्यम बनती रही हैं। पर्यटकों खासकर महिलाओं और बच्चों को भी यह सबसे ज्यादा आकर्षित करती हैं। यही वजह रही कि विदेशों ने भी हमारी इस पारंपरिक लोक कला को अपनाया, लेकिन जैसलमेर में अब यह कला लुप्त होने लगी हे । जिले में कठपुतली कलाकार भी इसे छोड़ने की बात कर रहे हैं।सरकारी कार्यक्रमों के में पहले कठपुतली कला को प्राथमिकता दी जाती थी जिससे कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शन दिखने के साथ घर परिवार चलने लायक पैसा मिल जाता था , सोशल मीडिया का दौर शुरू होने के बाद सरकारी प्रचार प्रसार लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रशासन ने भी अब इस कला से मुंह मोड़ लिया है। अपनी पूरी आजीविका इसी कला के जरिए करने वाले बुजुर्ग कलाकार अब जीने को मुहाल हैं।इनकी अंगुलियों के इशारों पर नाचती कठपुतलियों का जादू आज भी कायम है, लेकिन अब कार्यक्रमों का टोटा और कला विस्तारकों की रुचि में कमी इस कला काे पूर्ण विराम लगाती दिख रही है। अपना पूरा जीवन इसी कला के लिए खपा देने वाले कई कठपुतली कलाकार परिवार अब इसे छोड़ने की बात कर रहे है।
सरकारी प्रचार प्रसार में उपेक्षित हो गई है कला
कई सालों तक कठपुतलियों की मदद से सरकारी योजनाओं के प्रचार पसार, शौर्य गाथा, एंटरटेनमेंट करने का कार्य किया। पहले सरकारी योजनाओं की जानकारी देने के लिए गांव-गांव में कठपुतलियों का खेल दिखाया जाता था, लेकिन आज कल सोशल मीडिया का जमाना आ गया। प्रशासन की ओर से भी सरकारी प्रचार प्रसार के लिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसे संरक्षण देने के लिए पूर्व में कई बार प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों से मांग हो चुकी है।
सरकारी योजनाओ का लाभ नहीं
मलका प्रोल के पास कठपुतली कलाकारों के कच्चे मकानों में निवास हैं ,इन परिवारों को सरकारी योजनाओं से प्राथमिकता से जोड़ने की जरूररत हैं ,इन्हे प्रधानमंत्री आवास योजना का कोई लाभ नहीं मिल रहा ,साथ खाद्यान , स्ट्रीट वेंडर ,स्वयं सहायता समूह ,सरकारी ऋण ,सहित किसी योजना का लाभ नहीं मिल रहा ,जिला प्रशासन को इनकी प्राथमिकता के आधार पर सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए ताकि ये अपनी कला को आगे बढ़ा सके ,देवी सिंह चौहान ,निवर्तमान पार्षद वार्ड 11
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