विश्व_जल_दिवस भारत में एक मात्र पंद्रहवीं शताब्दी में बनाई जल संग्रहण की खडीन पद्धति जैसलमेर में

 विश्व_जल_दिवस 

भारत में एक मात्र पंद्रहवीं शताब्दी में बनाई जल संग्रहण की खडीन पद्धति जैसलमेर में

मानसून की बारिशों के बाद जैसलमेर के सारे खडीन पानी से हुए थे लबालब ,रबी की बेहतर फसल  


चन्दन सिंह भाटी



जैसलमेर इस बार मानसून के रेगिस्तानी इलाके जैसलमेर में मेहरबान रहने से  इस बार जैसलमेर में जल संग्रहण पद्धति के सारे खडीन पानी से लबालब भर गए थे   इससे रबी की बेहतर फसल  किसानों को मिली 

,भारत में जैसलमेर ही एक मात्र ऐसा स्थान हे जंहा जल संग्रहण की खास पद्धति खडीन पंद्रहवी शताब्दी से उपयोग में लाई जा रही हैं ,पारम्परिक खेती करने की यह पद्धति आज भी जैसलमेर के लोगों के लिए जीवनरेखा बनी हुई हैं ,लम्बे अर्से बाद मानसून के मेहरबान रहने से जिले के सारे खडीनों में पानी का भराव पूरा हुआ ,जैसलमेर के पहाड़ी क्षेत्रों में खेती की यह पारम्परिक पद्धति हैं जो आज भी जिन्दा हैं ,खडीन खेत के किनारे सिद्ध-पाल बाँधकर वर्षा-जल को कृषि भूमि पर संग्रह करने तथा इस प्रकार संग्रहीत जल से कृषि भूमि में पर्याप्त नमी पैदाकर उसमें फसल उत्पादन करने की एक परम्परागत तकनीक है।जिले में डेढ़ा ,जाजिया ,मसुराड़ी ,हड्डा ,खाभा ,काहला ,धनुवा ,मुहार सहित कई पहाड़ी क्षेत्रो की ढलान में खडीन बने हुए हैं ,मरुस्थल में जल-संग्रह तकनीकों का विवरण बिना खडीन के नाम से अधूरा है। पश्चिमी राजस्थान के जल विशेषज्ञ भी इस तकनीक को जल-संग्रह की महत्त्वपूर्ण तकनीक के रूप में देखते हैं तथा इसे आज के परिप्रेक्ष्य में भी जरूरी मानते हैं। खडीन को धोरा भी कहा जाता है।

क्या हे खडीन

राजस्थान के थार मरुस्थलीय क्षेत्र में पानी की कमी के कारण फसलें बहुत प्रभावित होती हैं। भूमि में जल की कमी तथा भूमिगत जल की क्षारीयता के कारण यह समस्या और भी जटिल हो जाती है। ऐसे में वर्षा-जल ही शुष्क खेती का एकमात्र स्रोत है। खडीन द्वारा वर्षा-जल को रोकना, एक अतिउपयोगी तकनीक बन जाती है।खडीन एक विशेष प्रकार की भूमि पर बनाया जाता है। इसके लिये कठोर, पथरीली तथा अत्यन्त कम ढालदार ‘जेन्टिल स्लोप’ भूमि अनुकूल रहती है। उक्त भूमि पर जब वर्षा होती है तो वर्षा-जल खडीन के अन्दर इकट्ठा हो जाता है, जो सामान्यतया एक या दो फसलों के लिये पर्याप्त नमी प्रदान करता है।सूखा पड़ने की स्थिति में भी खडीन भूमि पर कुछ न कुछ फसल व चारे की पैदावार अवश्य हो जाती है। अध्ययनों द्वारा यह साबित हो चुका है कि खडीन काश्तकार, खडीन बिन काश्तकार से बेहतर स्थिति में जी रहे हैं।

ऐसा कहा जाता है कि खडीन सर्वप्रथम पन्द्रहवीं शताब्दी में पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा जैसलमेर क्षेत्र में बनाई गई। उस दौरान पालीवाल ब्राह्मणों को जमीन खडीन बनाने के लिये दी जाती थी तथा उसका स्वामित्व राजा के पास ही होता था। उस जमीन पर की गई फसल का चौथा हिस्सा राजा को दिया जाता था।  

खड़ीन के फायदे

सामान्य वर्षा होने पर खडीन क्षेत्र में अनाज तथा चारे की फसलों का उत्पादन बिन खडीन वाली भूमि से 2.5 से 3.5 गुना अधिक होता है। कम वर्षा होने पर भी खडीन क्षेत्र में चारे का उत्पादन अवश्य हो जाता है, जबकि बिना खडीन वाले क्षेत्र में उत्पादन शून्य हो जाता है।खडीन क्षेत्र में पानी के साथ बारीक तथा उपजाऊ मिट्टी के कण आकर जमा होते रहते हैं। लम्बे समय तक नमी बने रहने के कारण सूक्ष्म जीव क्रिया (माइक्रोबियल एक्टीविटी) तेज हो जाती है। अतः खडीन क्षेत्र की मिट्टी अधिक उपजाऊ हो जाती है।खडीन क्षेत्र में मिट्टी में पर्याप्त नमी होने के कारण बड़ी संख्या में झाड़ियाँ तथा पेड़ तेजी से विकसित हो जाते हैं।खडीन क्षेत्र की विद्युत सुचालकता, बिन खडीन वाली भूमि से कम होती है।खडीन क्षेत्र में भूजल की क्षारियता, बिन खडीन वाली भूमि के भूजल की क्षारियता से कम होती है।आगोर से जानवरों का मल भी बह कर खडीन क्षेत्र में आ जाता है, जो खाद के रूप में भूमि की उत्पादकता को बढ़ाने में मदद करता है।

फसले

खडीन में बरसात में  एकत्रित पानी को तीन से चार माह तक रखा जाता हे जिससे  जमीन में पर्याप्त नमी आ जाती हैं ,सितम्बर के अनंत में खडीन के पानी की निकासी की जाती हैं ,इसके बाद खडीन की जमीन पर रबी की फैसले बोई जाती हैं ,अमुमन जैसलमेर में गेहूं और चने की फसल ली जाती हैं ,जैसलमेर के खडीनों में उत्पादित चने की क्वालिटी बेहतरीन होने से इसकी मांग बहुत ज्यादा रहती हैं ,खडीन  उत्पादित चने का स्वाद भी निराला होता हैं ,


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