अंतिम संस्कार से पहले अर्थी से उठकर भागा 'मुर्दा':भीलवाड़ा में निकली जिंदा व्यक्ति की अंतिम यात्रा; 425 साल पुरानी परंपरा


 अंतिम संस्कार से पहले अर्थी से उठकर भागा 'मुर्दा':भीलवाड़ा में निकली जिंदा व्यक्ति की अंतिम यात्रा; 425 साल पुरानी परंपरा





 भीलवाड़ा में शुक्रवार को मुर्दे की सवारी निकली। अर्थी पर जिंदा व्यक्ति को लेटाया गया। ढोल-नगाड़े और सीटियां बजाते हुए लोगों ने बाजार से होकर उसकी अंतिम यात्रा निकाली। अंतिम संस्कार से पहले अर्थी पर लेटा व्यक्ति उठकर भाग गया। फिर लोगों ने पुतले का अंतिम संस्कार किया। पुतले को जूते-चप्पल भी मारे गए।




भीलवाड़ा में शीतला सप्तमी पर यह अनोखी परंपरा 425 साल से निभाई जा रही है। इसे डोल महोत्सव भी कहा जाता है। इस अंतिम यात्रा में शामिल कोई भी व्यक्ति रोता नहीं। यहां होली के 7 दिन बाद धुलंडी होती है। लोगों ने आज सुबह 9 बजे से एक-दूसरे को रंग लगाना शुरू कर दिया था।




डोल महोत्सव आयोजन समिति के सदस्य पूनम सिसोदिया ने बताया- डोल महोत्सव के लिए सर्राफा बाजार में ही घास-फूस का पुतला (डमी) तैयार किया गया। लोगों ने इस पुतले को कपड़े पहनाए और सजाकर तैयार किया। दोपहर 12 बजे यह पुतला बनकर तैयार हो गया। इस दौरान भीलवाड़ा शहर के सर्राफा बाजार के व्यापारियों और आयोजन समिति सदस्यों ने सारी व्यवस्थाएं संभाली।


पद्मश्री से सम्मानित स्वांग कलाकार जानकीलाल भांड ने बताया- दोपहर 1:30 बजे तैयार पुतला सर्राफा बाजार लाया गया। लोग ढोल-नगाड़े बजाते हुए पुतला और झंडा लेकर बड़ा मंदिर पहुंचे। यहां से चित्तौड़वालों की हवेली तक गाजे-बाजे के साथ पुतला पहुंचाया।

इस दौरान रास्ते में डोल महोत्सव के लिए चंदा इकट्ठा किया। सर्राफा बाजार से एक किलोमीटर दूर चित्तौड़वालों की हवेली के पास अर्थी (डोल) तैयार की गई।

अंतिम यात्रा के लिए शहरवासी को मुर्दा बनाकर अर्थी पर लेटाया गया। दोपहर 3 बजे चित्तौड़वालों की हवेली से मुर्दे की अंतिम यात्रा शुरू हुई। इसमें बड़ी संख्या में शहरवासी शामिल हुए। ढोल-नगाड़े लेकर शोर-शराबा करते हुए अंतिम यात्रा आगे बढ़ी।

सीटियां बजाई। मुर्दे पर गोबर-गंदगी और जूते फेंके। झाड़ू से उसकी पिटाई की और गुलाल फेंकी। इस दौरान हंसी-ठिठोली चलती रही। लोगों ने एक-दूसरे को गुलाल लगाया और शीतला सप्तमी की बधाई दी।


शाम 4 बजे अंतिम यात्रा बड़ा मंदिर होते हुए बाहला पहुंची। जहां अर्थी पर लेटा व्यक्ति उठकर भाग गया। इसके बाद लोगों ने डोल (अर्थी) और पुतले को जला दिया। लोग पुतले पर जूते-चप्पल मारते भी नजर आए। इसी के साथ मुर्दे की सवारी परंपरा पूरी हुई।



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