जैसलमेर होली की रंगत बरकरार ,अब भी होता परम्पराओ का निर्वहन।
सोनार दुर्ग में लगता है बादशाह का दरबार और निकाली जाती है सवारी
चंदन सिंह भाटी
जैसलमेर. पाक सीमा से सटे सरहदी जैसलमेर जिले में होली पर्व को लेकर उल्लास, उत्साह व मस्ती से युक्त माहौल है तो भक्ति के साथ परंपराओं का भी निर्वहन भी होता है। जैसलमेर तीज त्योहारों को उल्लास साथ अब भी मनाता हैं ,रंगोत्सव होली के प्रति स्थानीय लोगों में दीवानगी बरकरार हैं , होली की विभिन परम्पराओं का निर्वहन अब भी होता हैं ,होलाष्टक के साथ ही होली की रंगत शुरू हो जाती हैं ,होली के गेरिये शुद्ध और अशुद्ध फाग दोनों पारम्परिक रूप से गाते हैं, यहाँ की फाग गायकी विख्यात हैं.
जैसलमेर के आराध्य बाबा लक्ष्मीनाथ मंदिर प्रांगण में फागोत्सव से शुरू
होलाष्टका लगने वाले दिन ही जैसलमेर में आराध्य देव बाबा लक्ष्मीनाथ जी के मंदिर प्रांगण में होली के रसिये एकत्रित होते हैं ,ढोल ,चंग ,मृदंग के साथ फागों का दौर शुरू होता हैं ,पहले दिन लक्ष्मीनाथ जी के साथ फूलों की होली खेली जातीहैं, यह परम्परा सदियों से चली आ रही हैं ,लक्ष्मीनाथ मंदिर से गेरियों की टोली फाग गाते हुए निकलती हे शहर भ्रमण करते हुए राज परिवार पहुंचती हैं ,राजपरिवार के साथ सामूहिक फाग गाये जाते हैं ,राज परिवार होली के गेरियो का पारम्परिक सत्कार करते हैं,उनके साथ पारम्परिक रूप से होली खेलते हैं
बादशाह-शहजादे की परंपरा
इन सबके बीच एक ऐसी परंपरा है जो जैसलमेर की होली को अन्य स्थानों की होली से कुछ अलग बनाती है, वह है बादशाह-शहजादे की पंरपरा। वर्षों से इस परंपरा का निर्वहन आज भी किया जाता है। समय बदला, लोग बदले, माहौल बदले और स्वर्णनगरी में विकासात्मक बदलाव हुए, बावजूद इसके बादशाह-शहजादे की परंपरा आज भी निभाई जा रही है। होली के दिन माहौल में जब बदशाही बरकरार, शहजादा सलामत... के जयकारे गूंजते हैं तो यह लगने लगता है कि बादशाह व शहजादे की की सवारी आ रही है। सोनार दुर्ग में धुलंडी के दिन बादशाह और शहजादा का स्वांग होता है। इसमें एक बादशाह बनाया जाता है। इसी तरह शहजादों के स्वांग के लिए बालकों को तैयार कर बिठाया जाता है। एक दिन के बादशाह बनने का गौरव पुष्करणा समाज के व्यास जाति के विवाहित व्यक्ति को ही मिलता है। सोनार दुर्ग स्थित बिल्ला पाड़ा में बादशाह का दरबार लगता है ,
गैरों से गहराता है होली का रंग
परंपरागत रुप से विभिन समाज की ओर से निकाली गई गैरों से होली का रंग और गहरा हो जाता है। गुलाल, अबीर उड़ाते और होली के उन्माद में मचलते व तबले की थाप पर थिरकते बच्चे, युवा और बुजुर्ग बादशाह के दरबार में शामिल होते हैं और उसके बाद निकाली जाने वाली सवारी में भी फाग गीत गाते हुए साथ चलते हैं। यह नजारा देखने दूर-दराज से लोग आते हैं। लक्ष्मीनाथ मंदिर पहुंचकर जब बादशाह से पूछा जाता है कि बादशाह क्या फरमाता है तो बादशाह बना व्यक्ति अपनी श्रद्धानुसार राशि या फिर गोठ की घोषणा करता है। जिस घर का सदस्य बादशाह या शहजादा बनता है, उनके यहां बधाइयोंं का तांता लग जाता है। इस मौके पर सैकड़ों कैमरे की नजर इस अनूठी प्रथा पर रहती है। इस तरह की होली को देखने सात-समंदर पार से भी सैलानी आते हैं।
बादशाह शहज़ादे की परम्परा की किदवंती
वर्षों पहले हुई बादशाह-शहजादा की प्रथा के पीछे, वैसे तो कई किदवंतियाँ प्रचलित है। जो दंत कथा ज्यादा प्रचलित है वह यह है कि जैसलमेर से दूर किसी बाहरी क्षेत्र से एक व्यास जाति का ब्राह्मण अपने धर्म परिवर्तन के भय से भाग कर जैसलमेर आया था। उस दिन होली का अवसर था। जैसलमेर आकर जब उसने अपनी पीड़ा यहां के लोगों को बताई तो उन्होंने होली पर्व के स्वांग के तौर पर उसे बादशाह का स्वांग कर तख्त पर बिठा दिया। जब ब्राह्मण को खोजने संबंधित क्षेत्र के बादशाह के लोग यहां आए तो वे खुश हो गए कि ब्राह्मण का धर्म परिवर्तन हो गया है, जबकि यह होली का स्वांग था। उसके बाद वे यहां से खुश होकर लौट गए। इसके बाद से यहां बादशाही बरकरार, शहजादा सलामत...की परंपरा का निर्वहन किया जाता है।
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