बाड़मेर प्रह्लाद में आस्था के चलते बिश्नोई समाज नही करता होली दहन
श्रीराम ढाका @धोरीमन्ना
बाड़मेर पेड़ व वन्यजीवों को बचाने के अपने प्राण न्यौछावर करने वाले बिश्नोई समाज पर्यावरण संरक्षण व आस्था के चलते होली दहन करना तो दूर, उसकी लौ भी नहीं देखते हैं।
होली दहन कि लौ नही देखने के पिछे भी मान्यता हैं कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया था ओर बिष्णु भगवान ने 12 करोड़ जीवो के उद्धार के लिए वचन देकर कलयुग में भगवान जाम्भोजी के रूप में अवतरित हुए बिश्नोई समाज स्वयं को प्रहलाद पंथी मानते है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा न सिर्फ पानी कि बर्बादी रोकता है, बल्कि पर्यावरण को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
जरूरी है होली का पाहल (कलश) करना
होलिका दहन से पूर्व जब प्रहलाद को गोद में लेकर बैठती है, तभी से शोक शुरू हो जाता है सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने व होलिका के दहन के बाद विश्नोई समाज खुशी मनाता है, लेकिन किसी पर कीचड़, गोबर, रंग नहीं डालते हैं बिश्नोई समाज के अनुसार प्रहलाद विष्णु भक्त थे
विश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर विष्णुजी के अवतार थे कलयुग में संवत 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को भगवान जंभेश्वर ने कलश की स्थापना कर पवित्र पाहल पिलाकर विश्नोई पंथ बनाया था जांभाणी साहित्य के अनुसार तब के प्रहलाद पंथ के अनुयायी ही आज के विश्नोई समाज के लोग हैं, जो भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं उन्होंने बताया, जो व्यक्ति घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में सामूहिक होने वाले पाहल से पवित्र जल लाकर उसे ग्रहण करते हैं
सूर्यास्त से पूर्व बनता है खिचड़ा
होली दहन से पूर्व संध्या पर होलिका जब प्रहलाद को लेकर आग में बैठती है तभी से प्रहलाद पंथी शोक मनाते हैं विश्नोई समाज में आज भी यह परंपरा मौजूद है शाम को सूरज छिपने से पहले ही हर घर में शोक स्वरूप खिचड़ा (सादा भोजन) बनता है सुबह खुशियां मनाई जाती हैं तब हवन पाहल ग्रहण करते हैं। ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है प्रहलाद की वापसी पर हवन कर कलश की स्थापना की थी ऐसी मान्यता है, होली पर स्थापित प्रहलाद पंथ आगे चलकर हरिशचंद्र ने त्रेता युग में पुन: स्थापित किया द्वापर में युधिष्ठिर ने इसी पंथ को स्थापित किया कलयुग में विष्णु अवतार गुरु जांभोजी ने इसी पंथ को पुन: स्थापित किया
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श्रीराम ढाका @धोरीमन्ना
बाड़मेर पेड़ व वन्यजीवों को बचाने के अपने प्राण न्यौछावर करने वाले बिश्नोई समाज पर्यावरण संरक्षण व आस्था के चलते होली दहन करना तो दूर, उसकी लौ भी नहीं देखते हैं।
होली दहन कि लौ नही देखने के पिछे भी मान्यता हैं कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया था ओर बिष्णु भगवान ने 12 करोड़ जीवो के उद्धार के लिए वचन देकर कलयुग में भगवान जाम्भोजी के रूप में अवतरित हुए बिश्नोई समाज स्वयं को प्रहलाद पंथी मानते है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा न सिर्फ पानी कि बर्बादी रोकता है, बल्कि पर्यावरण को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
जरूरी है होली का पाहल (कलश) करना
होलिका दहन से पूर्व जब प्रहलाद को गोद में लेकर बैठती है, तभी से शोक शुरू हो जाता है सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने व होलिका के दहन के बाद विश्नोई समाज खुशी मनाता है, लेकिन किसी पर कीचड़, गोबर, रंग नहीं डालते हैं बिश्नोई समाज के अनुसार प्रहलाद विष्णु भक्त थे
विश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर विष्णुजी के अवतार थे कलयुग में संवत 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को भगवान जंभेश्वर ने कलश की स्थापना कर पवित्र पाहल पिलाकर विश्नोई पंथ बनाया था जांभाणी साहित्य के अनुसार तब के प्रहलाद पंथ के अनुयायी ही आज के विश्नोई समाज के लोग हैं, जो भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं उन्होंने बताया, जो व्यक्ति घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में सामूहिक होने वाले पाहल से पवित्र जल लाकर उसे ग्रहण करते हैं
सूर्यास्त से पूर्व बनता है खिचड़ा
होली दहन से पूर्व संध्या पर होलिका जब प्रहलाद को लेकर आग में बैठती है तभी से प्रहलाद पंथी शोक मनाते हैं विश्नोई समाज में आज भी यह परंपरा मौजूद है शाम को सूरज छिपने से पहले ही हर घर में शोक स्वरूप खिचड़ा (सादा भोजन) बनता है सुबह खुशियां मनाई जाती हैं तब हवन पाहल ग्रहण करते हैं। ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है प्रहलाद की वापसी पर हवन कर कलश की स्थापना की थी ऐसी मान्यता है, होली पर स्थापित प्रहलाद पंथ आगे चलकर हरिशचंद्र ने त्रेता युग में पुन: स्थापित किया द्वापर में युधिष्ठिर ने इसी पंथ को स्थापित किया कलयुग में विष्णु अवतार गुरु जांभोजी ने इसी पंथ को पुन: स्थापित किया
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