अनूठा रीती रिवाज
जैसलमेर में दहेज़ लेनदेन की प्रथा पारम्परिक रूप से नहीं हे ,
जैसलमेर ऐतिहासिक जैसलमेर शहर भारत वर्ष में इकलौता ऐसा शहर हे जंहा सदियों से किसी भी समाज में शादी ब्याव में दहेज़ देने लेने का रिवाज नहीं हैं ,इसी कारन जैसलमेर की अपनी एक खास पहचान हैं ,जानकारी के मुताबीख स्टेट समय से जैसलमेर के विभिन समाजो में शादी के वक़्त दहेज़ देने की प्रथा नहीं रही ,प्राचीन समय में से लेकर आज तक इस परम्परा का निर्वहन जैसलमेर के निवासी करते आ रहे हैं,यहां कहावत भी प्रचलित हे की लड़की दो जोड़े कपड़ो में विदा होती हैं ,यह प्ररम्परा और रिवाज जैसलमेर स्टेट के वक़्त विभिन समाजो में समानता के अधिकार के तहत बनी थी ,गरीब आमिर में कोई भेद नहीं था,उस वक़्त भी इस जइसन में बालिकाओ की कमी थी ,जिसकी वजह से जैसलमेर शहर से बाहरी क्षेत्र जिलों में शादी विवाह नगण्य होते थे यह परम्परा आज भी कायम हैं अपवाद छोड़ दे तो आज भी जैसलमेर में विभिन समाजो में शादियां शहर की शहर में ही होती हैं,बहरी जिलों में लड़के या लड़की की शादियां अंगुली पे गिनने लायक हैं, यहाँ लड़की को दहेज देने की परम्परा नहीं हैं,आजकल जरूर पिता अपनी पुत्री को सामर्थ्य के अनुसार भेंट देता हैं मगर दहेज़ के नाम पर शादी के वक़्त नहीं कोई समाज ,भेंट आदि नहीं देते यही वजह हे की शहर कोतवाली में दहेज़ के मुकदमे नगण्य होते हैं ,जैसलमेर की यह परम्परागत रीती रिवाज अन्य शहरों के लिए प्रेरणास्रोत हैं ,हजूरी समाज के बुजुर्ग दीनदयाल तंवर बताते हे की जैसलमेर में परम्परागत रूप से दहेज़ नहीं देने का रिवाज हैं ,बेटी की शादी में दहेज़ आज भी नहीं देते ,यही रिवाज अन्य समाजो में हैं दहेज न लड़की वाले देते हे न लड़के वाले कभी मांगते हैं ,यह बहुत अच्छा रिवाज हैं ,ख़ुशी हे की जैसलमेर के लोग आज भी इस पर कायम हैं ,भाटिया समाज के मनोज भाटिया कहते हैं की शादी के वक़्त दहेज़ देने या लेने की प्रथा नहीं हैं ,यह अलग बात हे बाद में पिता अपनी मर्जी से बेटी को कुछ दे तो उस पर ऐतराज नहीं हैं ,शादियों के टूर तरीके भले ही कितने बदले हो मगर दहेज़ का दांव कभी जैसलमेर में पांव पसार नहीं पाया,डॉ अशोक तंवर के बेटे अभिमन्यु तंवर की 28 नवंबर को शादी हैं उनका कहना हे की रिवाज हे लेते ,नहीं मांग करते हैं ,हम अपनी परम्पराओ और रीती रिवाजो को ज़िंदा रखे हैं यही हमारी पहचान हैं ,
जैसलमेर में दहेज़ लेनदेन की प्रथा पारम्परिक रूप से नहीं हे ,
जैसलमेर ऐतिहासिक जैसलमेर शहर भारत वर्ष में इकलौता ऐसा शहर हे जंहा सदियों से किसी भी समाज में शादी ब्याव में दहेज़ देने लेने का रिवाज नहीं हैं ,इसी कारन जैसलमेर की अपनी एक खास पहचान हैं ,जानकारी के मुताबीख स्टेट समय से जैसलमेर के विभिन समाजो में शादी के वक़्त दहेज़ देने की प्रथा नहीं रही ,प्राचीन समय में से लेकर आज तक इस परम्परा का निर्वहन जैसलमेर के निवासी करते आ रहे हैं,यहां कहावत भी प्रचलित हे की लड़की दो जोड़े कपड़ो में विदा होती हैं ,यह प्ररम्परा और रिवाज जैसलमेर स्टेट के वक़्त विभिन समाजो में समानता के अधिकार के तहत बनी थी ,गरीब आमिर में कोई भेद नहीं था,उस वक़्त भी इस जइसन में बालिकाओ की कमी थी ,जिसकी वजह से जैसलमेर शहर से बाहरी क्षेत्र जिलों में शादी विवाह नगण्य होते थे यह परम्परा आज भी कायम हैं अपवाद छोड़ दे तो आज भी जैसलमेर में विभिन समाजो में शादियां शहर की शहर में ही होती हैं,बहरी जिलों में लड़के या लड़की की शादियां अंगुली पे गिनने लायक हैं, यहाँ लड़की को दहेज देने की परम्परा नहीं हैं,आजकल जरूर पिता अपनी पुत्री को सामर्थ्य के अनुसार भेंट देता हैं मगर दहेज़ के नाम पर शादी के वक़्त नहीं कोई समाज ,भेंट आदि नहीं देते यही वजह हे की शहर कोतवाली में दहेज़ के मुकदमे नगण्य होते हैं ,जैसलमेर की यह परम्परागत रीती रिवाज अन्य शहरों के लिए प्रेरणास्रोत हैं ,हजूरी समाज के बुजुर्ग दीनदयाल तंवर बताते हे की जैसलमेर में परम्परागत रूप से दहेज़ नहीं देने का रिवाज हैं ,बेटी की शादी में दहेज़ आज भी नहीं देते ,यही रिवाज अन्य समाजो में हैं दहेज न लड़की वाले देते हे न लड़के वाले कभी मांगते हैं ,यह बहुत अच्छा रिवाज हैं ,ख़ुशी हे की जैसलमेर के लोग आज भी इस पर कायम हैं ,भाटिया समाज के मनोज भाटिया कहते हैं की शादी के वक़्त दहेज़ देने या लेने की प्रथा नहीं हैं ,यह अलग बात हे बाद में पिता अपनी मर्जी से बेटी को कुछ दे तो उस पर ऐतराज नहीं हैं ,शादियों के टूर तरीके भले ही कितने बदले हो मगर दहेज़ का दांव कभी जैसलमेर में पांव पसार नहीं पाया,डॉ अशोक तंवर के बेटे अभिमन्यु तंवर की 28 नवंबर को शादी हैं उनका कहना हे की रिवाज हे लेते ,नहीं मांग करते हैं ,हम अपनी परम्पराओ और रीती रिवाजो को ज़िंदा रखे हैं यही हमारी पहचान हैं ,
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