जैसलमेर स्थापना दिवस जैसलमेर के संस्थापक रावळ जैसलदेव की कहानी
रावल जैसल देव :- यह अपने छोटे भाई रावल बिजयराव लाँझा के पुत्र , रावल भोजदेव को मारकर वि. सं . 1209 ( सन् 1152 ई . ) में लुद्रवा में अत्यन्त दुखद हादसे के बाद राजगद्दी पर बैठे। इनके पाँच रानियाँ , दो राजकुमार एवं दो राजकुमारियाँ थीं। युवराज केलणजी और राजकुमार शालिवाहन , दो पुत्र एवं बाई सरसकॅवर व पेमकंवर , दो पुत्रियाँ थीं ।
रावल जैसल भाटी ने भूतपूर्व रावल बिजयराव लाँझा द्वारा अपनाई गई साम्राज्यिक उपाधियाँ धारण नहीं कीं । इन्होंने रावल भोजदेव की मृत्यु के पश्चात् सम्राट विग्रहराज चौहान ( चतुर्थ ) की प्रभुता स्वीकार करली थी, इसलिए इन्हें उक्त उपाधियाँ त्यागनी पड़ीं । यह आंशिक सत्य था , परन्तु भाटी शासक चौहान सम्राट की प्रभुता को कितना महत्व देते थे , संभवतः नाममात्र से अधिक नहीं ! चौहान सम्राट चालुक्य शासकों की शक्ति का सम्मान करते थे , क्योंकि दोनों आपस में अनेक निष्फल युद्ध लड़ चुके थे ।
रावल बिजयराव लाँझा और भोजदेव , दोनों से कुमारपाल चालुक्य के गहरे पारिवारिक सम्बन्ध थे , इसलिए चालुक्यों की ओर से दंडात्मक कार्यवाही के भय से रावल जैसल भाटी ने चतुराई से पार्श्व भूमिका अपना कर सारी साम्राज्यिक उपाधियाँ त्याग दीं और चालुक्यों के बजाय चौहानों की प्रभुसत्ता स्वीकार करके उनकी सुरक्षा में आ गए ।
वि स.1209 में लुद्रवा की प्रजा की धन – सम्पत्ति लुटी जाने के पश्चात् वहाँ अशांत परिस्थितियाँ हो गई और जनजीवन असुरक्षित रहने से अनेक व्यावसायिक परिवार एवं दोनों भूतपूर्व शासकों के समर्थक भाटियों के परिवार लुद्रवा छोड़कर सिन्ध , मुलतान , नगरथट्टा और पंजाब चले गए । इन लोगों ने वहाँ बसकर क्षत्रियों का सेना संबंधी पेशा त्याग दिया और उद्योग , व्यापार , दुकानदारी आदि के व्यवसाय अपना लिए । इस प्रकार इनका भाटी क्षत्रियों की उच्च – श्रेणी से जातीय अवमूल्यन हो गया , इन्हें ‘ भाटिया ‘ , गौरवहीन भाटी , नाम से विदेशों में पुकारा जाने लगा । ‘ भाटी ‘ के साथ ‘ या ‘ तू प्रत्यय जोड़कर इन्हें ‘ भाटिया ‘ निम्नश्रेणी के तुच्छ भाटी से पहचाना गया । अपने कुलगुरु पुष्करणा पुरोहितों की सहमति से इन माटियों को उनचास पीढ़ियों के अन्तर से आपस में स्वजातीय विवाहों की मान्यता मिल गई । लुद्रवा छोड़कर गए हुए यह भाटी , विदेशों में पहले से रह रहे अपने पूर्वज , राव केहर के राजकुमार जाम के वंशज , भाटिया खत्रियों में विलीन हो गए ।
राजगद्दी पर बैठने के तुरन्त पश्चात् रावल जैसल ने अपने स्वयं के समर्थकों , पूर्व के इनके विद्रोही प्रमुखों व सामंतों को सान्त्वना देने व संतुष्ट करने के लिए उन्हें जागीरें और उदारता से उपहार दिए ।
रावल जैसल ने अनुभव किया कि काक नदी के किनारे समतल मैदान में बना होने से लुद्रवा का किला प्राकृतिक बाधाओं से चारों ओर से रक्षित नहीं होने से रक्षा करने योग्य नहीं था और शत्रुओं के आक्रमण से भेद्य था । पठानों की सहायता से उन्होंने मात्र तीन दिनों में लुदवा के किले का समर्पण करवा कर अधिकार कर लिया था । इसलिए भविष्य में स्वयं वह और अपने वंशजों के लिए ऐसी भयावह स्थिति टालना चाहते थे । अपने पूर्वज रावल सिद्ध देवराज , जो वीरभूमि नहीं होने के कारण देरावर त्यागकर लुद्रवा आए थे , की भाँति लुद्रवा के बजाय भाटियों की नई राजधानी के लिए वह ऐसे स्थान का चयन करना चाहते थे जो सामरिक दृष्टि से अभेद्य हो और शत्रुओं की शक्ति के सामने अडिग रहकर भाटियों को स्थायी सुरक्षा प्रदान का सके । किले के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में वह गोडाहरे की पहाड़ियों में पहुँचे , जहाँ उन्हें एक एक सौ चालीस वर्षीय वृद्ध ब्राह्मण , शालु आचार्य , मिले , जिनके पूर्वजों को प्रतिपादन में दी गई पैतृक भूमि इन पहाड़ियों से पश्चिम में थी । आचार्य का पुत्र जगन्नाथ , रावल की राजकीय सेवा में था । आचार्य के आश्रम को ‘ ब्रह्मसर ‘ कहते थे । इसी आश्रम में प्राचीन ऋषि काक ने वर्षों तक ध्यान व तपस्या की थी , जिनके दिव्य चमत्कार से यहाँ के पानी के कुंड में मीठे पानी का सोता फूट पड़ा था , जिससे काक नदी में जल का प्रथम प्रवाह सृजित हुआ ।
वृद्ध ब्राह्मण को परम्परागत श्रद्धा अर्पित करने के पश्चात् रावल जैसल ने उन्हें उस क्षेत्र में अपने भ्रमण के उद्देश्य बताया। बुद्धिमान व पण्डित आचार्य ने रावल जैसल को बताया कि प्राचीनकाल में हस्तिनापुर से द्वारिका जाते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन इस क्षेत्र में पहुंचे थे और श्री कृष्ण ने अर्जन को बताया कि भविष्य के किसी काल में , एक सो इक्कीस पीढ़ियों पश्चात उनके वंशज मरुदेश में शासन करेंगे और गोडाहरे पहाड़ियों पर एक अभेद्य दुर्ग का निर्माण करवाएँगे ।
जैसलनाम भूपति यदुवंशी इक थाय ,
कोई कालरे अंतरै एथ रहसी आय ।
विस्मित अर्जुन ने जिज्ञासु भाव से श्रीकृष्ण की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से ऐसे देखा जैसे कि वह इस सूखे क्षेत्र में जलापूर्ति के विषय में जानना चाहते हो , उसी क्षण श्रीकृष्ण ने चट्टान पर दिव्य बाण मारा , जिससे वहाँ तत्काल मीठे जल का सोता फूट पड़ा । उन्होंने उस स्थान को पत्थर की विशिष्ट शिला से ढक दिया । आचार्य ने रावल जैसल को बताया कि उनके पूर्वजों द्वारा उन्हें दान में दी हुई भूमि पर अनेक वर्षों पहले गायें चराते हुए उन्होंने कपूरदेसर तालाब के बन्धे के नीचे वह शिला देखी थी । कई दिनों तक खेतों में खोज करने के पश्चात् रावल जैसल को वीरान पहाड़ियों शिलावाला वह स्थान मिल गया । शिला को ऊपर उठाने पर नीचे मीठे जल का कुआँ पाया और उसे उलटने पर उस पर एक अभिलेख उत्कीर्ण था ।
लुद्रवा हूँती उगमण , पाँचै कोसे गाम ।
उ पाड़े ओ मंइज्यो , तिण रह अमर नाम । ।
इस अभिलेख में लुद्रवा से पाँच कोस पूरब में किला बनाने के लिए स्थान निर्दिष्ट किया गया था ।
यह शुभ मंगल स्थान पाकर उल्लसित रावल जैसल ने पूजनीय आचार्य को अनेक बहुमूल्य उपहार और भेट देकर संतुष्ट किया । उन्होंने उनके पूर्वजों द्वारा आचार्य को दी हुई भूमि को पुनः अनुमोदित व प्रमाणित किया और किले के प्रस्तावित स्थान से पश्चिम में दो कोस के प्रसार क्षेत्र में अतिरिक्त भूमि की जागीर नित्यता के लिए उन्हें प्रदान की । सन् 1947 ई . तक यह सारे खेत में भूमि, इशालु आचार्य के वंशजों के अधिकार में थी और सभी उन्हें ‘ इशाल के खेत के नाम से पहचानते थे । बुद्धिमान व दूरदर्शी आचार्य ने किले के स्थान के चयन के साथ ही रावल जैसल की किले का भविष्य भी बता दिया ताकि आनेवाली पीढियों को उसके शुभ – अशुभ के विवाद में उलझना पड़े और किले को देरावरा व लुद्रवा की भाँति फिर त्यागने की नौबत नहीं आए । आचार्य ने रावल को बताया कि ढाई बार किला टूटेगा , खून की नदियाँ बहेंगी , उनके वंशजों के लिए सब कुछ समाप्त हो जाएगा , किन्तु थोड़े समय पश्चात् ही उनका वहाँ पुनः अधिकार हो जाएगा ।
प्रारम्भिक अन्वेषणा के पश्चात् रावल जैसल ने लुद्रवा से पाँच कोस पूरब में स्थित गोडाहरे की पहाडियों पर श्रावण शुक्लपक्ष 12 , मूल नक्षत्र , वि . सं . 1212 ( सन् 1155 ई . ) , वार रविवार , 12 जलाई , सन् 1155 ई . को धार्मिक अनुष्ठान से किले की नींव रखी और स्वयं के नाम किले और नगर का नाम ‘ जैसलमेर रखा । चूंकि किले की स्थापना तिकोनी गोडाहरे पहाड़ी पर की गई थी , इसलिए इसे ‘ गोडहारा ‘ या ‘ त्रिकूटाचल ‘ किला भी कहते थे । वि . सं . 1219 ( सन् 1162 ई . ) में किले के पास जैसलमेर नगर की विधिवत स्थापना की गई और मनःकल्पित दृष्टि से लुद्रवा से जैसलमेर राजधानी स्थानांतरित की गई ।
दोहा : बारे सो बारोतरे सावण मास सुदेर ।
जैसल थाप्यो जोरवर महिपत जैसलमेर । ।
लंका ज्यू अगजीत है घणा थाट रे घेर । ।
रिधु रहीसी भाटियाँ मही पर जैसलमेर । ।
रावल जैसल ने भाटियों के बही – भाटों को बुलवाकर अपनी वंशावली अभिलिखित करवाई और स्वयं द्वारा नया किला व नगर स्थापित किए जाने का तथ्य भी बहियों में लिखवाया । उन्होंने टीकमदास भाट को अत्युत्तम उपहार देकर , याँकोहर और भाद्रियो , दो गाँवों की जागीर दान में दी और हाथी के हौदे पर बैठाकर उन्हें उनके घर की ओर विदा किया । उन्होंने इन्हें ‘ कुरब ‘ का सम्मान प्रदान करके राज – दरबार में गलीचे पर बैठने का विशेष अधिकार भी साथ में दिया ।
छप्पय :
बारे सो बरोतरे कियो जैसल जैसल गिरी ,
ईसा वरस सोवनमेर मंइयो मेरावर ,
सुद सावण बारस 12 मूल नक्षत्र रविवारे ,
प्रथी में प्रगटयो त्रकुट गढ़ लंका कारे ,
तहाँ छेद न भेद लगे नको , सुख नीवास जादव रहै । पहवीय गढ़ सिंणगार ए , देखेय दुर्जन उदहे । ।
रावल जैसल के शासनकाल में नए किले की पश्चिमी प्रोल व कुछ अन्य कार्य ही हो सका था , बाकी का काम मय प्रोलों , कुएँ , महल , तहखाने , अन्य मकानात , आवास – गृह आदि इनके पुत्र रावल शालिवाहन ने बनवाए । इस किले में कुल बाईस तिकोने बुर्ज हैं ।
प्रारम्भ के वर्षों में जैसलमेर केवल सांकेतिक राजधानी थी , राज्य प्रशासन का सारा कार्य यथावत लुद्रवा से संचालित किया जाता था और लुद्रवा, , माडप्रदेश का एक बहुत समृद्ध व्यावसायिक व व्यापारिक केंद्र पहले की भांति चलता रहा। जैसलमेर से लुद्रवा केवल पाँच कोस ( 15 कि.मी.) दूर होने से आवागमन और संवाद में कोई कठिनाई नहीं थी । लोगों को भी तत्काल स्थान बदलने की कोई आवश्यकता नहीं हुई । इनके उत्तराधिकारी रावल शालिवाहन ने अपनी वैकल्पिक राजधानी देरावर में रखी हुई थी । वहीं सन् 1189 ई . में उनका देहान्त हो गया था , इसलिए राजधानी के रूप में शीघ्र विकसित करने का कोई ठोस कारण भी नहीं था । तेरहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में , स्थापना के पचास वर्षों बाद , कहीं जाकर जैसलमेर राजधानी के कार्य संबंधी व्यवस्था के योग्य बना ।
रावल जैसल ने एक विद्वान् पाहू भाटी , बीरमसी को अपना देश – दीवान नियुक्त किया । यह रावल बाछुजी के पड़पोते व सोढ़ल पाहू भाटी के पुत्र थे । ‘ रावल ने पास – पड़ोस के विस्तत क्षेत्रों को जीतकर अपने राज्यक्षेत्र को बढ़ाया । उन्होंने उन प्रधानों व सामंतों को अतिरिक्त सुविधाएँ और जागीरें देकर राजी किया , जो उनके द्वारा रावल भोजदेव को मारकर राजगद्दी प्राप्त करने में अपनाई गई पद्धति से नाराज थे ।
रावल जैसल के समय में जैसलमेर राज्य के सतरह परगने थे : ( 1 ) जैसलमेर . ( 2 ) देरावर , ( 3 ) तणोट ( तणवट ) , ( 4 ) दीकमपुर , ( 5 ) रोहड़ी ( सिन्ध में ) , ( 6 ) मक्खड़ ( सिन्ध में ) , ( 7 ) घोटड़ा ( घोटारू ) , ( 8 ) फलौदी , ( 9 ) खावड़ , ( 10 ) मारोठ , ( 11 ) सातल , ( 12 ) नोहर ( नोसर , ( 13 ) चोहटन , ( 14 ) पूगल , ( 15 ) बाड़मेर , ( 16 ) नाचणा , ( 17 ) जूनागढ़ ( भटनेर ) ।
छन्ना राजपूतों और बलौचियों के नेतृत्व में एक ‘ कटक ‘ , सशस्त्र लुटेरों का गिरोह , ने खुहड़ी ग्राम पर आक्रमण किया । रावल जैसल ने न केवल उन्हें पराजित किया बल्कि घात लगाकर उनके भाग निकलने का मार्ग भी अवरुद्ध कर दिया । उन्हें जीवनदान तभी दिया जब उन्होंने दाँतों तले घास के तिनके दबाकर बार – बार सौगन्धे खाई कि भविष्य में वह कभी भी भाटियों के राज्य में अनुचित प्रवेश करने का दुस्साह नहीं करेंगे ।
रावल की वृद्धावस्या में भाटियों के प्राचीन शत्रुओं , चौहानों , छन्नों व बलौचियों ने भाटी राज्य में घुसपैठ की अपनी गतिविधियाँ काफी बढ़ा ली थी और धन – सम्पत्ति , गायें , ऊँट , भेड़ – बकरा लूटकर ले जाते थे । ‘ प्रत्येक बार रावल की सेना लुटेरों का पीछा करके लूटा हुआ माल उनसे प्राप्त करके फिर से उनके स्वामियों के सुपुर्द करती थी ।
वि . सं . 1224 ( सन् 1167 ई . ) में रावल जैसल का देहान्त हो गया ।
दोहा : बारे सै चौबीस में सावण सुद पूनम ।
एता दिन सुख भोगवै स्त्रग पोहतो जादम ।।
जैसलमेर कराये गढ़ पाँच वर्ष कियौ राज ।
जैसल सरग पधारिया देय दत्त द्रव वाज । ।
रावल जैसल सन् 1162 ई . में अपनी राजधानी लुद्रवा से जैसलमेर लाए थे । नई राजधानी से उन्होंने केवल पाँच वर्ष , सन् 1167 ई . तक , शासन किया । उनका शासनकाल कुल पन्द्रह वर्षों का रहा । वृद्धावस्था में अल्पकाल के शासन में वह सार्वजनिक हित के ज्यादा कार्य नहीं करवा सकै , केवल जैसलसर तालाब खुदवाया।
रावल जैसल के दो पुत्र , युवराज कालणजी और राजकुमार शालिवाहन थे । देश – दीवान बीरमसी पाहु भाटी और उनके छोटे भाई तालपसी , युवराज कालणजी के प्रति शत्रुमाव रखते थे । इसलिए इन्होंने वृद्ध रावल को बहकाकर छोटे पुत्र राजकुमार शालिवाहन को युवराज कालणजी के स्थान पर उत्तराधिकारी घोषित करवा लिया । इससे पहले भी देश – दीवान बीरमसी पाहू भाटी के पिता सोढ़ल पाहू भाटी की सलाह पर रावल दुसाजी ने युवराज जैसल के स्थान पर उनके छोटे भाई राजकुमार बिजयराव लाँझा को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था , परन्तु अपने भतीजे रावल भोजदेव को मारकर जैसल ने अपना पैतृक अधिकार प्राप्त कर लिया । अब सोढ़ल पाहू भाटी के दोनों पुत्रों के बहकावे में आकर , रावल जैसल ने युवराज कालणजी के साथ भी वैसा ही बरताव करने की भूल की , जैसा उनके पिता रावल दुसाजी ने उनके साथ किया था । परन्तु इस बार भी कालणजी , रावल शालिवाहन के पुत्र बीजल का उसके धाभाई द्वारा वध किए जाने के पश्चात् अपना पैतृक अधिकार प्राप्त करके रावल बन गए । उस काल में पाहू भाटी जैसलमेर के बहुत शक्तिशाली प्रधान रहे । वस्तुतः वही राजा बनाने वाले थे , किन्तु भाटियों की अन्य शाखाओं के भय से स्वय शासक नहीं बन सके ।
रावल दुसाजी के देहान्त के पश्चात् युवराज जैसल को रावल नहीं बनने देने में सोढ़ल पाहू भाटी का कोई योगदान व दोष नहीं था , और न ही दिवंगत रावल ने राजकुमार बिजयराव लाँझा को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था । उनके देहान्त के पश्चात् राजकुमार बिजयराब लाँझा ने अपने शक्तिशाली ससुराल – पक्ष के सोलंकियों की सहायता से अन्यायपूर्ण तरीके से राजगद्दी हथिया ली , या जैसल को राजगद्दी से उतार कर स्वयं रावल बन गए । जैसल के भयंकर आक्रोश का संभवतः यही उपरोक्त कारण था कि अपना पैतृक अधिकार प्राप्त करने के लिए वह तीस वर्षों तक अथक प्रयास व धैर्य से प्रतीक्षा करते रहे और जब उनके पास अन्य विकल्प नहीं रहे तभी वृद्धावस्था में वह युवा रावल को मारने से नहीं चूके । अगर उनको रावल नहीं बनने देने में सोढ़ल पाहू भाटी का हाथ होता तो वह उनके पुत्र बीरमसी पाहू भाटी को अपना देश – दीवान बनाने की भूल कभी नहीं करते।
अपनी वृद्धावस्था में रावल जैसल को दो बातों का मलाल रहा , कि तुच्छ सत्ता स्वार्थ के वशीभूत होकर उन्होंने युवा रावल भोजदेव को मरवा डाला और कि उनके स्वयं के बुलावे पर आए पठानी ने उनके सामने उनकी प्रजा को लूटा । इस भीरू कुकृत्य के अपराध बोध से वह जीवनपर्यन्त नहीं उबर सके ।
अनेक इतिहासज्ञों ने जैसलमेर की स्थापना के वर्ष , वि . सं . 1212 ( सन् 1156 ई . ) को विवाद का विषय बनाकर उस पर एक प्रश्नचिह्न लगा दिया है । इससे भाटियों के ऐतिहासिक मुलाधार पर प्रहार करके एक अत्यन्त प्राचीन क्षत्रिय जाति , जिसे पीढ़ियों से इसी सत्य में पाला – पोसा गया था कि वि . सं . 1212 में जैसलमेर की स्थापना की गई थी , के ब्रहा को उखाड़ने का प्रयास है । यह तकालीन सत्तायुक्त प्रभावशाली ऐसी राजपूत जातियों की अन्यायपूर्ण धारणा का है जिन सबको मिलाकर भी भाटियों जैसी गौरवपूर्ण ऐतिहासिक श्रेष्ठता प्राप्त नहीं हो सकती और वह भाटियों के इतिहास को अस्थिर करने के अब भी यदा – कदा प्रयास करती रहती हैं । जैसन भाटी द्वारा लुद्रवा पर अधिकार किए जाने की घटना को सुलतान शाहबुद्दीन मोहम्मद घोरी द्वारा सन् 1175 ई . में मुलतान पर आक्रमण किए जाने को उन्हें सहायता दिए जाने के रूप में जोड़कर उसे एक प्रामाणिक आधार मान लिया । हमारी विकृत मानसिकता , अरबों , फारसियों चीनियों और मुसलमान लेखकों व यात्रियों के कथाप्रसंगों को ब्रह्म – वाक्य मानती है , किन्त हमारे स्वयं के लोगों , ख्यातों एवं इतिहास के वृत्तान्तों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं । दाह पीढ़ी – दर – पीढ़ी मौखिक तौर पर सुनाया गया आख्यान हो , या लिखित इतिहास वृत्तान्त , इस सत्य को झूठा नहीं कहा जा सकता कि जैसलमेर की स्थापना वि . सं . 1212 में की गई थी । इसलिए सुलतान घोरी की सहायता से जैसल भाटी की लुद्रवा – विजय का तथ्य मिथ्या है । उस समय घोर के शासक हुसैन से भगौड़ा शाहबुद्दीन मोहम्मद घोरी , गज़नी के सुलतान बहरामशाह द्वारा नियुक्त किया गया सिन्य प्रदेश का मात्र एक सूबेदार था । उन्होंने सुलतान मोहम्मद घोरी के नाम को ऐसा प्रभावी मोहरा बना दिया , जैसे कि उसके नाम को जोड़ने से जैसल भाटी द्वारा लुद्रवा की राजगद्दी प्राप्त करने को साम्राज्यिक मान्यता मिल गई हो ।
उस समय ऊँच्छ में भाटियों का शासन था , और ऐसा आरोप है कि भाटी राजा के उनकी रानी से संबंधों में तनाव होने से रानी ने सुलतान मोहम्मद घोरी के साथ मिलकर राजा को मरवा दिया और किला घोरी के अधिकार में दे दिया । यह घटना निश्चय ही रावल भोजदेव के शासनकाल की नहीं थी , परन्तु तथाकथित घटना रावल शालिवाहन के शासनकाल की हो सकती थी।
सुलतान मोहम्मद घोरी द्वारा मुलतान , पाटण , दक्षिणी सिन्ध प्रदेश पर सन् 1175 , 1175 व 1182 ई . में किए आक्रमणों के समय रावल शालिवाहन जैसलमेर के शासक थे । वह जैसलमेर छोड़कर ऊच्छ से केवल पचास मील दूर , देरावर में रहने लग गए थे . उन्होंने उस क्षेत्र में सुलतान घोरी के आक्रमणों के विरुद्ध निर्णायक भूमिका निभाई थी ।
“जैसलमेर राज्य का इतिहास” में लेखक माँगीलाल मयंक ने राय व्यक्त की है कि मोहम्मद घोरी के सन् 1178 ई . के गुजरात पर आक्रमण को ध्यान में रखते हुए जैसलमेर के किले निर्माण सन् 1178 – 87 ई . के बीच हुआ होगा । उनके विचार में निर्माण वर्ष वि . स . 1234 (सन 1178 ई . ) होना चाहिए , न कि 1156 ई . । खत्तरागच्छ बृहद्गुर्वावलि के अनुसार वि. स. 1244 (सन् 1187 ई . ) में जैसलमेर का किला अस्तित्व में था । सम्भवतः वह यह भूल गए कि जैसलमेर के किले का निर्माण रावल जैसल ने सन् 1156 ई . में आरम्भ करवाया था , सन् 1167 ई . में अपने देहान्त तक , ग्यारह वर्षों में वह किले का थोड़ा सा निर्माण कार्य करवा पाए थे। अगर प्राम्भिक काल के उत्साह में भी अन्य कठिनाईयों के कारण , रावल जैसल किले के निर्माण में वांछित प्रगति नहीं करा सके , तो ऐसी व अन्य समस्याओं के कारण , दूरस्थ देरावर में रहते हुए रावल शालिवाहन को कार्य सम्पूर्ण करवाने में बीस वर्ष और लग गए । अन्ततः सन 1187 में जाकर जैसलमेर के किले का कार्य सम्पूर्ण हुआ।
सब कठिनाइयों के अलावा रावल शालिवाहन ने अपना अधिकांश समय अपनी वैकल्पिक राजधानी देरावर में व्यतीत किया था, इसलिए जैसलमेर के किले के निर्माण- कार्य को शीघ्र पूर्ण करवाने में स्वाभाविक था , उनकी अधिक रुचि नहीं थी । उस काल में योजनाएँ आज की भाँति समय की परिधि में बन्धी हुई नहीं होती थीं , शासक के लिए वित्तीय कठिनाइयाँ , शत्रुओं की कार्यवाहियाँ , युद्ध, विद्रोह , आपसी मतभेद आदि अनेक समस्याएँ रहती थी , इसलिए जैसलमेर के किले के निर्माण ई में तीस वर्षों का समय लगना कोई अनहोनी बात नहीं थी । इस किले से पहले के भाटियों के किलो के निर्माण में , मारोठ 25 वर्ष ( सन् 599 – 623 ई . ) व तनोट सतरह वर्ष ( सन् 770 – 787 ई ) , में भी कम समय नहीं लगा था ।
History of Jaisalmer ‘ में लेखक रामवल्लभ सोमानी ने माँगीलाल मयंक का अनुरण करने की भूल की है । उनके अनुसार , ‘ अपनी राजगद्दी प्राप्त करने के लिए जैसल सुलतान के पास सहायता माँगने गए । सन् 1175 ई . में सुलतान ने मुलतान पर अधिकार कर लिया । अपनी रानी के कारण ऊँच्छ के भाटी शासक ने समर्पण कर दिया । सुलतान ने मजेजखाँ के नेतृत्व में एक सैनिक दस्ता लुद्रवा भेज दिया और स्वयं फलौदी , ओसियाँ , मेड़ता , सांडेराव , नाडौल व आबू होकर गए । सेना के एक पाश्र्व भाग ने मजेजखाँ के नेतृत्व में लुद्रवा को लूटा और किराडू के मंदिरों को तोड़ा । राजपूतों की संयुक्त सेना ने घोरी को आबू के पास पराजित किया और उसे सिन्ध होकर पीछे लौटने के लिए बाध्य किया । आक्रमणकारियों से जैसल बहुत खिन्न हुए । उन्होंने उनसे धन वापस लूट लिया । इसके पश्चात् मुसलमानों ने उन्हें लुद्रवा का शासक बना दिया , या वह उनसे लुद्रवा छीनकर शासक बन गए । ‘ उपरोक्त वर्णन की गणित बड़ी सुहावनी है , परन्तु अगर हम लगभग पचीस वर्ष पीछे , सन् 1150 ई . के आसपास , लौट जाएँ तो जैसलमेर के स्थापना के वर्ष के विवाद का समाधान मिल जाता है । जैसल ने पड़ोस के सिन्ध प्रदेश में गजनी के सुलतान के सूबेदार मोहम्मद घोरी से सहायता माँगी , जिसने करीमखाँ और मजेजखाँ के नेतृत्व में इन शर्तों पर सेना भेजना स्वीकार किया कि तत्कालीन व्यापारिक केन्द्र , वैभवशाली लुद्रवा की धन – सम्पदा लूटने का उनका स्वतंत्र अधिकार होगा , जिससे वह सेना भेजने पर हुए खर्चे की भरपाई करेंगे और बचे हुए धन को अपने साथ ले जाएंगे । एक बार जैसल के पुष्ट अधिकार में लुद्रवा के आते ही दूरदर्शी और चतुर जैसल ने पठानों को धत्ता बताया और उन्हें जीवित रहने का विकल्प देकर नगरथट्टा लौट जाने का मार्ग बताया ! अगर यह सैनिक टुकड़ी सूबेदार मोहम्मद घोरी की नहीं होकर गज़नी के शासक सुलतान मोहम्मद घोरी की होती , तो जैसल चुनौती देकर मजेजखाँ का वध करने का साहस नहीं कर सकते थे और न ही पठानों द्वारा लूटा हुआ धन अपने कब्जे में वापस लेते । उस समय घोरी केवल सुलतान बहरामशाह सिन्ध में सूबेदार था और वह , और उसका भाई ग्यासुद्दीन , घोर से निर्वासित भगोड़े थे। इसीलिए उसने जैसल भाटी द्वारा उसके सेनानायक का वध , अपमान व दुर्दशा को बिना प्रतिक्रिया किए चुपचाप सह लिया ।
ऐसा लगता है कि माँगीलाल मयंक और रामवल्लभ सोमानी ने उस काल के गज़नी और घोर स पर और उनके आपसी शत्रुतापूर्ण संबंधों की ओर ध्यान नहीं दिया, जिससे वह जैसल व जैसलमेर के ऐतिहासिक निष्कर्षों में भूल कर गए।
रावल जैसल ‘ के शासनकाल में अजमेर के चौहान और गुजरात के चालुक्य एक दूसरे पर * लिए उनके पड़ोस में संघर्षरत थे इसलिए वह अपने राज्य का पूरब की ओर विस्तार नहीं कर पाए, अपितु उन्होंने राज्य के पश्चिम में पड़नेवाली सिन्ध और सतलज नदियों तक राज्य – विस्तार कर लिया ।
जैसलमेर के गढ़ की ख्याति में किसी कवि ने कहा है :
गढ़ दिल्ली , गढ़ आगरो , अधगढ़ बीकानेर । ।
भलो चिणायो भाटियों , सिरेज जैसलमेर । ।
जैसलमेर के किले की चर्चा करते हुए भाटी इस दोहे को कहते हुए पूर्ववर्ती दुर्गा का स्मरण करते हैं :
काशी , मथुरा , प्राग बड़ , गजनी , गढ़ भटनेर ।
दिगम – देरावल , लुद्रवो , नमोह जैसलमेर । ।
इस प्रकार यह विख्यात नौ गढ़ थे , जैसलमेर नौवाँ गढ़ था , जिसे नमस्कार है । जय जैसाण।।
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