श्वान विवाहोत्सव की हो शुरूआत
अत्याचार है श्वानों को जिन्दगी भर कुँवारा बनाए रखना
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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घरों में श्वान पालने वाले सभी लोग चाहे अपने कुत्ते-कुतियाओं को कितना ही आरामतलब माहौल दें, उनकी सुख-सुविधाओं और लजीज भोजन आदि के प्रति संवेदनशील रहें। और अपने परिवार के सदस्य की तरह भरपूर आत्मीयता के साथ रखते हो, लेकिन इन सबके बावजूद घरेलु पालतु कुत्तों और कुतियाओं के मिलन के नैसर्गिक अधिकारों की हत्या करना अपने आप में जघन्य अत्याचार है और जीवदया की परंपराओं पर जबर्दस्त कुठाराघात ही है।
आम तौर पर घरों में पाले जाने वाले श्वानों में या तो कुत्ते ही होते हैं या फिर कुतियाएं हीं। अपवाद स्वरूप कोई-कोई घर ही ऎसा मिल सकता है जिनमें नर और मादा दोनों प्रजातियों के श्वान एक साथ पलते हों।
कुत्ता जितना अधिक स्वामीभक्त, सुरक्षा प्रहरी और वफादार होता है उतना ही हम कुत्तों के प्रति लापरवाह भी। खूब सारे लोग पिल्लों को ले आकर पालते हैं जो कि बड़े होने के बाद कुत्तों या कुतियाओं के रूप में ताजिन्दगी सुरक्षा का अपना दायित्व बजाते रहते हैं और अन्त में मर जाया करते हैं।
इस तरह दुनिया भर के पालतु कुत्तों की हकीकत यही है कि अधिकांश कुँवारे ही मर जाते हैं, उनके नसीब में न तो प्यार लिखा होता है और न ही आंशिक और पूर्ण दाम्पत्य योग आकार ले पाता है। यही हाल कुतियाओं का भी है। उन्हें इस जन्म में दाम्पत्य के साथ ही मातृत्व सुख तक प्राप्त नहीं हो पाता।
हर जीवात्मा का यह नैसर्गिक अधिकार है कि उसे विपरीत लिंगी से प्रेम, दैहिक तृप्ति और जीवनानंद की सहजता और सरलता के साथ प्राप्ति होती रहे लेकिन श्वान पालकों के स्वार्थ और अपनी एकाधिकारवादी सामन्ती प्रवृत्ति के चलते इन कुत्तों को धरती पर आने के बाद जीवनसाथी साथ तक नहीं मिल पाता और पूरी जीवनयात्रा अकेले ही अकेले पूरी करनी पड़ती है।
एक तो हम उन्मुक्त विचरण विहारी जीवों को अपनी सुरक्षा और स्वार्थ के लिए बंधक बना डालते हैं और दूसरी तरफ इनके नैसर्गिक अधिकारों और आनंद को भी मृत्यु होने तक विखण्डित किए रखते हैं, यह हम इंसानों की संवेदनहीनता और स्वार्थ की पराकाष्ठा ही है।
जब हम अपने परिवार के सदस्य की तरह श्वानों को मानते हैं, उन्हें साथ बिठाकर खान-पान और प्यार करते हैं, खिलाते हैं, अपने मखमली बिस्तरों के उन्मुक्त उपभोग के स्वर्णिम अवसर प्रदान करते हैं, तो फिर यह हमारी पारिवारिक और नैतिक जिम्मेदारी है कि इनका मेल-मिलाप तय करते हुए इनके लिए ऎसा कुछ करें कि इन्हें बंधक होने का अहसास न हो।
कितना अच्छा हो यदि ये कुत्ता पालक अपने-अपने घरों में श्वान विवाह के आयोजन करें। इससे विभिन्न प्रान्तों के कई सारे कुत्ता पालक परिवारों के बीच नए रिश्ते बनेंगे और पारिवारिक एवं सामाजिक माधुर्य भी बहुगुणित होगा। अनेकता में एकता-हिन्द की विशेषता के भाव भी मुखरित होंगे।
वैयक्तिक स्तर पर इस तरह कुछ न भी हो सके तो श्वानों के लिए सामूहिक विवाह जैसा कोई न कोई आयोजन होना चाहिए। यों भी अब देश-दुनिया में सब तरफ कुछ न कुछ नया-नवेला और रोचकताओं भरा हो ही रहा है।
हम भी पीछे क्यों रहें। साल में एकाध दिन श्वानों के विवाह के लिए ही समर्पित करने में क्या बुराई है। शहरों और महानगरों में नया उत्सवी धूमधड़ाका भी होगा और लोगों को मजा भी आएगा। और कुत्तों को तो आनंद आएगा ही। दाम्पत्य के साथ जीवात्माओं का आनंद पसरेगा और जीमण का मजा आएगा सो अलग। कुत्तों की सामूहिक बारात के मनोहारी दृश्यों का लुत्फ उठाकर हम भी अभिभूत होंगे ही।
और श्वानों के लिए पृथक से कोई आयोजन न भी कर सकें तो इसके लिए आसान सा तरीका यह भी है कि अपने परिवार, समाज में कोई शुभाशुभ कर्म का प्रसंग हो या फिर अक्षय तृतीया जैसे अबूझ सावों के दिन हों या फिर जहाँ कहीं साामाजिक स्तर पर सामूहिक विवाह आयोजन हों, उसी दिन को भुना लें और अपने-अपने परिवारों और घरों में पलने वाले श्वानों का सामूहिक विवाह भी साथ ही करवा दें।
हममें से कई सारे श्वान पालन अपने पारिवारिक वैवाहिक आयोजनों में दर्शनाभिलाषियों में अपने-अपने श्वानों के गौरवशाली नामों का उल्लेख भी करते हैं, हमारे श्वानों के लिए यह जले पर नमक छिड़कने जैसा ही है। इन निमंत्रण पत्रों में अपने नाम पढ़कर श्वानों को कितना बुरा लगता होगा, यह श्वान ही समझ सकते हैं।
अलग से कोई खर्च भी नहीं, और कुत्ते-कुतियाओं के मांगलिक परिणय पर्व में शामिल होने वाले सारे कुत्तों को भी लजीज खान-पान और वीआईपी माहौल सरलता से उपलब्ध हो जाएगा। आज यदि हमने श्वानों के दाम्पत्य संबंधों के बारे में नहीं सोचा तो श्वानों की कई प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी और इसका सारा दोष हमारे ही माथे मढ़ा जाएगा।
श्वानों के विवाह का एक फायदा यह भी होगा कि हमें नई-नई मिश्रित प्रजातियों के इन्द्रधनुषी रंगों और स्वभाव वाली नवाचारों से भरपूर संतति प्राप्त होगी और श्वान खरीदने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। फिर श्वान विवाहोत्सवों से देशी-विदेशी और जात-जात के कुत्तों की जो नई-नई फसलें उगेंगी, उससे स्वरोजगार के क्षेत्र में धमाकेदार ग्रोथ रेट सामने आएगी ही। लेकिन श्वानों के कल्याण के लिए हमें अपने स्वार्थों को तिलांजलि देना जरूरी है। इसके बगैर हम श्वानों का भला नहीं कर सकते।
कुँवारे ही मर जाने वाले श्वानों की बददुआओं का ही असर है कि हम तमाम श्वान पालक पूरी जिन्दगी किसी न किसी समस्या से घिरे रहने लगे हैं। और इसी कारण भगवान भैरवनाथ भी हमसे खफा हैं।
गांवों-कस्बों से लेकर शहरों तक में चाहे भेल-पूरी, दाबेली, कचोरी-समोसों, चाय-नाश्ते की हजारों लारियों, दुकानों या ठेलों को हमने भैरवनाथ या भैरूनाथ के नाम पर क्यों न रख लिया हो, भैरवनाथ तब तक खुश नहीं होने वाले, जब तक हम उनके प्रियपात्र श्वानों के जीवनस्तर को सुधारने और सँवारने के नाम पर गंभीर नहीं होंगे। नाम रख लेने से क्या होता है, अब जमाना काम करने और दिखाने का आ गया है।
क्यों न दुनिया भर के कुत्तों के नाम पर एक दिवस, सप्ताह या पखवाड़ा ही तय कर दें ताकि कुत्ता जात को भी लगे कि आदमी जात उनके लिए कितनी समर्पित और गंभीर है।
जब मानवाधिकारों के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है तो फिर कुत्तों के अधिकारों से जुड़े अभियानों में जुड़ने से परहेज क्यों। आईये, आज ही से प्रण करें कि कुत्तों को उनके अधिकार दिला कर रहेंगे। और इसका पहला चरण शुरू होगा उन्हें परिणय बंधन में बाँधने से।
हमने बीड़ा उठा लिया है, आप भी जुड़ें हमारे इस अभियान से, और इस तरह कुत्ता संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण में भागीदारी निभाएं। कुत्ता जात के लिए यह हमारा नैष्ठिक समर्पण सदियां याद रखेंगी।
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अत्याचार है श्वानों को जिन्दगी भर कुँवारा बनाए रखना
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घरों में श्वान पालने वाले सभी लोग चाहे अपने कुत्ते-कुतियाओं को कितना ही आरामतलब माहौल दें, उनकी सुख-सुविधाओं और लजीज भोजन आदि के प्रति संवेदनशील रहें। और अपने परिवार के सदस्य की तरह भरपूर आत्मीयता के साथ रखते हो, लेकिन इन सबके बावजूद घरेलु पालतु कुत्तों और कुतियाओं के मिलन के नैसर्गिक अधिकारों की हत्या करना अपने आप में जघन्य अत्याचार है और जीवदया की परंपराओं पर जबर्दस्त कुठाराघात ही है।
आम तौर पर घरों में पाले जाने वाले श्वानों में या तो कुत्ते ही होते हैं या फिर कुतियाएं हीं। अपवाद स्वरूप कोई-कोई घर ही ऎसा मिल सकता है जिनमें नर और मादा दोनों प्रजातियों के श्वान एक साथ पलते हों।
कुत्ता जितना अधिक स्वामीभक्त, सुरक्षा प्रहरी और वफादार होता है उतना ही हम कुत्तों के प्रति लापरवाह भी। खूब सारे लोग पिल्लों को ले आकर पालते हैं जो कि बड़े होने के बाद कुत्तों या कुतियाओं के रूप में ताजिन्दगी सुरक्षा का अपना दायित्व बजाते रहते हैं और अन्त में मर जाया करते हैं।
इस तरह दुनिया भर के पालतु कुत्तों की हकीकत यही है कि अधिकांश कुँवारे ही मर जाते हैं, उनके नसीब में न तो प्यार लिखा होता है और न ही आंशिक और पूर्ण दाम्पत्य योग आकार ले पाता है। यही हाल कुतियाओं का भी है। उन्हें इस जन्म में दाम्पत्य के साथ ही मातृत्व सुख तक प्राप्त नहीं हो पाता।
हर जीवात्मा का यह नैसर्गिक अधिकार है कि उसे विपरीत लिंगी से प्रेम, दैहिक तृप्ति और जीवनानंद की सहजता और सरलता के साथ प्राप्ति होती रहे लेकिन श्वान पालकों के स्वार्थ और अपनी एकाधिकारवादी सामन्ती प्रवृत्ति के चलते इन कुत्तों को धरती पर आने के बाद जीवनसाथी साथ तक नहीं मिल पाता और पूरी जीवनयात्रा अकेले ही अकेले पूरी करनी पड़ती है।
एक तो हम उन्मुक्त विचरण विहारी जीवों को अपनी सुरक्षा और स्वार्थ के लिए बंधक बना डालते हैं और दूसरी तरफ इनके नैसर्गिक अधिकारों और आनंद को भी मृत्यु होने तक विखण्डित किए रखते हैं, यह हम इंसानों की संवेदनहीनता और स्वार्थ की पराकाष्ठा ही है।
जब हम अपने परिवार के सदस्य की तरह श्वानों को मानते हैं, उन्हें साथ बिठाकर खान-पान और प्यार करते हैं, खिलाते हैं, अपने मखमली बिस्तरों के उन्मुक्त उपभोग के स्वर्णिम अवसर प्रदान करते हैं, तो फिर यह हमारी पारिवारिक और नैतिक जिम्मेदारी है कि इनका मेल-मिलाप तय करते हुए इनके लिए ऎसा कुछ करें कि इन्हें बंधक होने का अहसास न हो।
कितना अच्छा हो यदि ये कुत्ता पालक अपने-अपने घरों में श्वान विवाह के आयोजन करें। इससे विभिन्न प्रान्तों के कई सारे कुत्ता पालक परिवारों के बीच नए रिश्ते बनेंगे और पारिवारिक एवं सामाजिक माधुर्य भी बहुगुणित होगा। अनेकता में एकता-हिन्द की विशेषता के भाव भी मुखरित होंगे।
वैयक्तिक स्तर पर इस तरह कुछ न भी हो सके तो श्वानों के लिए सामूहिक विवाह जैसा कोई न कोई आयोजन होना चाहिए। यों भी अब देश-दुनिया में सब तरफ कुछ न कुछ नया-नवेला और रोचकताओं भरा हो ही रहा है।
हम भी पीछे क्यों रहें। साल में एकाध दिन श्वानों के विवाह के लिए ही समर्पित करने में क्या बुराई है। शहरों और महानगरों में नया उत्सवी धूमधड़ाका भी होगा और लोगों को मजा भी आएगा। और कुत्तों को तो आनंद आएगा ही। दाम्पत्य के साथ जीवात्माओं का आनंद पसरेगा और जीमण का मजा आएगा सो अलग। कुत्तों की सामूहिक बारात के मनोहारी दृश्यों का लुत्फ उठाकर हम भी अभिभूत होंगे ही।
और श्वानों के लिए पृथक से कोई आयोजन न भी कर सकें तो इसके लिए आसान सा तरीका यह भी है कि अपने परिवार, समाज में कोई शुभाशुभ कर्म का प्रसंग हो या फिर अक्षय तृतीया जैसे अबूझ सावों के दिन हों या फिर जहाँ कहीं साामाजिक स्तर पर सामूहिक विवाह आयोजन हों, उसी दिन को भुना लें और अपने-अपने परिवारों और घरों में पलने वाले श्वानों का सामूहिक विवाह भी साथ ही करवा दें।
हममें से कई सारे श्वान पालन अपने पारिवारिक वैवाहिक आयोजनों में दर्शनाभिलाषियों में अपने-अपने श्वानों के गौरवशाली नामों का उल्लेख भी करते हैं, हमारे श्वानों के लिए यह जले पर नमक छिड़कने जैसा ही है। इन निमंत्रण पत्रों में अपने नाम पढ़कर श्वानों को कितना बुरा लगता होगा, यह श्वान ही समझ सकते हैं।
अलग से कोई खर्च भी नहीं, और कुत्ते-कुतियाओं के मांगलिक परिणय पर्व में शामिल होने वाले सारे कुत्तों को भी लजीज खान-पान और वीआईपी माहौल सरलता से उपलब्ध हो जाएगा। आज यदि हमने श्वानों के दाम्पत्य संबंधों के बारे में नहीं सोचा तो श्वानों की कई प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी और इसका सारा दोष हमारे ही माथे मढ़ा जाएगा।
श्वानों के विवाह का एक फायदा यह भी होगा कि हमें नई-नई मिश्रित प्रजातियों के इन्द्रधनुषी रंगों और स्वभाव वाली नवाचारों से भरपूर संतति प्राप्त होगी और श्वान खरीदने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। फिर श्वान विवाहोत्सवों से देशी-विदेशी और जात-जात के कुत्तों की जो नई-नई फसलें उगेंगी, उससे स्वरोजगार के क्षेत्र में धमाकेदार ग्रोथ रेट सामने आएगी ही। लेकिन श्वानों के कल्याण के लिए हमें अपने स्वार्थों को तिलांजलि देना जरूरी है। इसके बगैर हम श्वानों का भला नहीं कर सकते।
कुँवारे ही मर जाने वाले श्वानों की बददुआओं का ही असर है कि हम तमाम श्वान पालक पूरी जिन्दगी किसी न किसी समस्या से घिरे रहने लगे हैं। और इसी कारण भगवान भैरवनाथ भी हमसे खफा हैं।
गांवों-कस्बों से लेकर शहरों तक में चाहे भेल-पूरी, दाबेली, कचोरी-समोसों, चाय-नाश्ते की हजारों लारियों, दुकानों या ठेलों को हमने भैरवनाथ या भैरूनाथ के नाम पर क्यों न रख लिया हो, भैरवनाथ तब तक खुश नहीं होने वाले, जब तक हम उनके प्रियपात्र श्वानों के जीवनस्तर को सुधारने और सँवारने के नाम पर गंभीर नहीं होंगे। नाम रख लेने से क्या होता है, अब जमाना काम करने और दिखाने का आ गया है।
क्यों न दुनिया भर के कुत्तों के नाम पर एक दिवस, सप्ताह या पखवाड़ा ही तय कर दें ताकि कुत्ता जात को भी लगे कि आदमी जात उनके लिए कितनी समर्पित और गंभीर है।
जब मानवाधिकारों के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है तो फिर कुत्तों के अधिकारों से जुड़े अभियानों में जुड़ने से परहेज क्यों। आईये, आज ही से प्रण करें कि कुत्तों को उनके अधिकार दिला कर रहेंगे। और इसका पहला चरण शुरू होगा उन्हें परिणय बंधन में बाँधने से।
हमने बीड़ा उठा लिया है, आप भी जुड़ें हमारे इस अभियान से, और इस तरह कुत्ता संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण में भागीदारी निभाएं। कुत्ता जात के लिए यह हमारा नैष्ठिक समर्पण सदियां याद रखेंगी।
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