देश के गौरव: कुछ ऐसे थे परमवीर चक्र विजेता अरुण खेत्रपाल और होशियार सिंह
भारतीय सेना, दुनिया की बेहतरीन पेशेवर सेनाओं में से एक है। 1947 में भारत की आजादी के तुरंत बाद पाकिस्तान ने कबायलियों की आड़ में भारत पर हमला किया। लेकिन भारतीय फौज ने साबित कर दिया कि उसके सैनिकों के अदम्य साहस की सानी नहीं है। पाकिस्तान ने 1965 और 1971 में भारत के खिलाफ दुस्साहस किया। लेकिन भारतीय सैनिकों ने ये साबित किया कि वो विपरीत हालात में भी लड़ाई को अपने पक्ष में कर सकते हैं। 1971 में जब बांग्लादेश की स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू हुई तो पाकिस्तान ने एक बार फिर भारत के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी। 1971 की लड़ाई भारत के पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर लड़ी जा रही थी। उस युद्ध में भारतीय फौज की जीत में हर एक सैनिक का योगदान था। लेकिन अरुण खेत्रपाल, होशियार सिंह, निर्मलजीत सिंह शेखो और अल्बर्ड एक्का ने अदम्य साहस का परिचय दिया। भारत के उन वीर सपूतों को सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।अरुण खेत्रपाल, निर्मलजीत सिंह शेखो और अल्बर्ट एक्का को जहां ये मरणोपरांत सम्मान दिया गया वहीं होशियार सिंह को सशरीर ये सम्मान मिला।
कुछ ऐसे थे अरुण खेत्रपाल
1950 में महाराष्ट्र के पुणे में 14 अक्टूबर को अरुण खेत्रपाल का जन्म हुआ था। उनके पिता एम एल खेत्रपाल सेना में ब्रिगेडियर थे। अरुण की पढ़ाई लिखाई हिमाचल प्रदेश में सनावर के लारेंस स्कूल में हुई थी। पढ़ाई लिखाई और खेलकूद में वो हमेशा अव्वल आते थे और उन्हें स्कूल के होनहार छात्रों में गिना जाता था। अपनी पूरी जिंदगी में उन्होंने स्कूल के आदर्श वाक्य को कभी 'हार मत मानो' को बखूबी निभाया।
1967 में अरुण खेत्रपाल पुणे के राष्ट्रीय रक्षा एकेडमी में दाखिल हुए। इसके बाद वो इंडियन मिलिट्री एकेडमी के भी हिस्सा बने। 13 जून 1971 को उन्हें 17 पूना हॉर्स रेजिमेंट में कमीशन दिया गया। सेना में कमीशन हासिल करने के महज 6 महीने बाद 3 दिसंबर को भारत के पूर्वी हिस्से यानि तत्कालीन बांग्लादेश की मुक्ति के अभियान शुरु हुआ था। 1965 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई की ही तरह इस लड़ाई में भी टैंकों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। अरुण खेत्रपाल, पंजाब में पश्चिम सीमा तैनात थे। शकरगढ़ सेक्टर के बसंतर की मशहूर लड़ाई को कौन भूल सकता है। भारत और पाकिस्तान किसी तरह से सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण इस सेक्टर पर अपना कब्जा जमाना चाहते थे। शकरगढ़ बार्डर पठानकोट-जम्मू हाइवे से महज 10 किमी दूर था। भारतीय फौज पाकिस्तान के अंदर 10 किमी तक घुस गई थी। सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल इस लड़ाई में सेंचुरियन टैंक फमगुस्ता की जिम्मेदारी उनके पास थी।
1971 की लड़ाई और अरुण खेत्रपाल का अदम्य साहस
जमीनी स्तर पर 17 पुना हार्स को रावी नदी की सहायक नदी पर बसंतर पर पुल बनाना था। 15 दिसंबर की रात में इस लक्ष्य को आसानी से भारतीय फौज ने पूरी की। ये एक ऐसा इलाका था कि जिसमें पाक फौज ने बारूदी सुरंगे बिछा रखी थीं। दुश्मन की गतिविधियों को देखते हुए टैंकों की सुरक्षा के लिए भारतीय फौज की 17 पूना हार्स को शार्ट नोटिस पर बुलाया गया । 17 पुना हार्स के जवान, अरुण खेत्रपाल की अगुवाई में अपने मिशन में जुट गए। 16 दिसंबर की सुबह पाकिस्तानी सेना ने इस सेक्टर में जबरदस्त आक्रमण किया। दुर्भाग्य से उस इलाके में भारतीय फौज की संख्या दुश्मन फौज से कम थी। इस हालात में पास के इलाके में तैनात सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को जिम्मेदारी दी गई और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाई। उनकी टुकड़ी पर पाक फौज ने लगातार गोलीबारी की। लेकिन उन्होंने दुश्मन देश के इरादे को नाकाम कर दिया। हालांकि कुछ देर बाद बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सेना एक बार फिर उनके सामने थी। अरुण खेत्रपाल ने जान की परवाह किए बगैर बड़ी संख्या में पाकिस्तानी टैंकों को बर्बाद कर दिया। हालांकि उनका खुद का टैंक निशाना बना जिसे आंशिक तौर पर नुकसान हुआ। खेत्रपाल की जान पर खतरा देखकर उनके बड़े अधिकारी ने तत्काल जलते हुए टैंक से हटने का आदेश दिया। लेकिन उन्होंने विनम्रता से आदेश को ठुकरा दिया और कुछ इस तरह से जवाब दिया- नहीं सर मैं अपने टैंक से नहीं हटूंगा, मेरे हथियार अभी भी काम कर रहे हैं और मैं सबको तबाह कर दूंगा।
अदम्य साहस दिखाते हुए दुश्मन के टैंकों के करीब पहुंच कर ( 100 मीटर की दूरी) उन्होंने एक बार फिर मोर्चा संभाला और पाकिस्तान के अंतिम टैंक को बर्बाद कर दिया। इस दौरान उनके टैंक पर एक बार फिर हमला हुआ। लेकिन कहा जाता है कि दृढ़ इच्छाशक्ति ही सबसे बड़ा हथियार होता है और अरुण खेत्रपाल ने उस जज्बे को बनाये रखा और पाकिस्तान का मुंहतोड़ जवाब दिया। जिस दिन यानि 16 दिसबंर 1971(विजय दिवस) को पाकिस्तानी सेना ने भारतीय फौज के सामने आत्मसमर्पण किया उस दिन देश के इस वीर सपूत ने अंतिम सांस ली।
वीरता की कसौटी पर खरे उतरे अरुण खेत्रपाल को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उनके सम्मान में एनडीए खड़गवासलान में परेड ग्राउंड और आइएमए देहरादून में खेत्रपाल ऑडिटोरियम रखा गया।
होशियार सिंह
हरियाना के सोनीपत जिले के सिसाना गांव में 5 मई 1936 को होशियार सिंह का जन्म हुआ था। होशियार सिंह के पिता हीरा सिंह किसान थे। होशियार सिंह की प्रारंभिक शिक्षा सोनीपत के स्थानीय स्कूल में हुई,आगे की पढ़ाई के लिए जाट हायर सेकेंडरी स्कूल और जाट कॉलेज में दाखिला लिया। वो पढ़ने में होशियार थे और हाइस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वो वालीबॉल के बेहतरीन खिलाड़ी थे और आगे चलकर पंजाब टीम के कप्तान बने। कामयाबी का सिलसिला बरकरार रखते हुए राष्ट्रीय टीम के भी हिस्सा बन गए।
सिसाना गांव के 250 से ज्यादा लोग सेना में अलग अलग पदों पर काम कर रहे थे। ये सब देखकर होशियार सिंह ने सेना में जाने का फैसला किया। 1957 में 2, जाट रेजीमेंट में सिपाही के तौर पर उनकी भर्ती हुई। 6 साल बाद परीक्षा पास करने के बाद वो सेना में अधिकारी बनने में कामयाब हुए। 30 जून 1963 को ग्रेनिडियर रेजीमेंट में उन्हें कमीशन मिला। नेफा यानि नॉर्थ इस्ट फ्रंटियर एजेंसी में तैनाती के दौरान उनके बहादुरी की चर्चा दूर दूर तक फैली। सेना के बड़े अधिकारियों की निगाह में वो आए। 1965 में भारत-पाकिस्तान लड़ाई में उन्होंने बीकानेर सेक्टर में अहम भूमिका अदा की। उन्हें असाधारण सेवा के लिए मेंशन इन डिस्पैच हासिल की। लेकिन 6 साल बाद देश और दुनिया उनके साहस की साक्षी बनने वाली थी।
होशियार सिंह और 1971 की लड़ाई
1971 की लड़ाई में पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान ने लड़ाई छेड़ दी थी। ग्रेनेडियर रेजीमेंट की तीसरी बटालियन को शकरगढ़ भेजा गया। 10 दिनों में ही मेजर होशियार सिंह की अगुवाई में ग्रेनेडियर रेजीमेंट की तीसरी बटालियन ने शानदार बढ़त बनाई। 15 दिसंबर को रावी की सहायक नदी बसंतर पर पुल बनाने की जिम्मेदारी दी गई। लेकिन पाकिस्तान की तरफ से जबरदस्त घेरेबंदी के साथ पूरे इलाके में बारूदी सुरंग बिछाई गई थी। पाकिस्तान की सेना ने भारतीय सेना की इस टुकड़ी पर जबरदस्त गोलीबारी की जिसमें बड़े पैमाने पर क्षति उठानी पड़ी। लेकिन मेजर होशियार सिंह की टीम ने विपरीत हालात में आगे बढ़ने का फैसला किया। होशियार सिंह की अगुवाई में भारतीय सेना की टुकड़ी ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत स्थित जारपाल गांव को अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन पाकिस्तान की सेना ने टैंक की मदद से जबरदस्त गोलाबारी की। लेकिन होशियार सिंह के अदम्य साहस और सूझबूझ के सामने पाकिस्तान का कोई भी ट्रिक काम नहीं आ सका।
भारत की पूर्वी सीमा पर 16 दिसंबर 1971 को लड़ाई खत्म हो चुकी थी। लेकिन पश्चिमी सीमा पर लड़ाई जारी थी। 17 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने एक बार फिर जबरदस्त आक्रमण किया। लेकिन उस हमले में होशियार सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए। घायल होने के बावजूद वो सैनिकों का हौसला बढ़ाने में जुटे रहे। उन्हें किसी तरह की बाधा नहीं रोक सकी। वो दुश्मन फौज पर इतनी तेजी से टूट पड़े कि पाकिस्तान फौज को भारी तबाही का सामना करना पड़ा। इस लड़ाई में उनके कमांडिंग अधिकारी मोहम्मद अकरम राजा को अपनी जान गंवानी पड़ी।
होशियार सिंह को उनके अदम्य साहस के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।1971 की लड़ाई के वो इकलौते शख्स से जिन्होंने सशरीर इस सम्मान को हासिल किया। सेना से रिटायर होने से पहले वो कर्नल रैंक हासिल हुआ। अलग अलग मौकों पर वो अलग अलग बटालियन से अपने अनुभवों को साझा करते थे। दुर्भाग्य से 6 दिसंबर 1998 को दिल का दौरा पड़ने से 62 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।
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