रुदाली घर में मातम मनाने के लिए पहले बुलाया जाता था नीची जाती की महिलाओं को, जो अब हो रही हैं लुप्त
दुनिया में कई अजीब काम होते हैं जिनके बारे में सुनकर आप भी सोचेंगे कि ऐसा भी होता है। ऐसा ही कुछ होता है राजस्थान के थार मरुस्थल में। यहां ये अच्छा नहीं समझा जाता है कि अमीर ठाकुर के घर की महिलाएं किसी पुरुष के मरने पर सबके सामने रोये। इसके लिए वो एक ऐसे ही समुदाय के महिलाओं को बुलाते हैं जो ऐसे मौकों पर रो सके।
ठाकुरों में ऐसा माना जाता है कि घर की महिलाएं ऐसे समय पर क्या रोएंगी, तो उसके लिए उनसे नीची जाती वाली महिलाओं को बुलाया जाता है जिन्हे रुदाली कहते हैं। जी हाँ, घर में किसी पुरुष की मौत होने पर नीची जाती की महिलाओं को बुलाया जाता है। इसी दौरान वो महिलाएं काले कपडे में आती हैं और महिलाओं के बिच बैठकर ज़ोर ज़ोर से रोती हैं और मरने वाले का मातम मनाती हैं।
जिसका पति मरता है इस पर वो रुदालियाँ उस महिला का हाथ पकड़ कर बोलती हैं ''रे थारो तो सुहाग गियो रे। अब तुम जी कर क्या करोगी।'' ऐसा कहा जाता है कि ऊँचे परिवार की महिअलों को दूसरों के सामने अपनी भावनाएं दिखाने का कोई अधिकार नहीं होता है। और वो ऐसे में भी हवेली के अंदर ही रहती हैं। किसी की मौत का मातम यहाँ करीब 12 दिन बाद तक चलता रहता है।
यहां ऐसा भी कहा जाता है कि जितने दिन मातम मनाया जाता है उस परिवार को उतना ही रईस समझा जाता है और उस परिवार की हैसियत भी उतनी ही मानी जाती है। लेकिन आज के ज़माने में ये सब कम होता जा रहा है। इससे रुदालियों की अहमियत दिन-पर-दिन कम होती जा रही है।
रुदाली
राजस्थान के थार मरुस्थल में अमीर घरों की महिलाएं घर के पुरुष सदस्य की मौत पर आम लोगों के सामने रोएं, इसे अच्छा नहीं माना जाता.
ऐसे मौक़ों पर रोने के लिए आम तौर पर निचली जाति की महिलाओं को बुलाया जाता है जिन्हें रुदाली कहा जाता है.
जैसे ही कोई पुरुष मृत्युशैय्या पर पड़ता है, उसी समय रुदालियों को बुला लिया जाता है.
पुरुष की मौत के बाद रुदाली काले कपड़ों में औरतों के बीच बैठकर जोर-जोर से छाती पीटकर मातम मनाती हैं.
जिस महिला का पति मरता है, वे उसका हाथ थाम कर रोते हुए कहती हैं, "अरे थारो तो सुहाग गियो रे. अब तुम जी कर क्या करोगी."
यह मातम मौत के 12 दिन बाद तक चलता रहता है. मातम जितने लंबे समय तक चलता है, परिवार की हैसियत उतनी ही ज़्यादा समझी जाती है.
और इसमें जितनी ज़्यादा नाटकीयता होती है, उतना ही ज़्यादा इसकी चर्चा होती है.
लेकिन अब साक्षरता बढ़ रही है और पलायन भी तेजी से हो रहा है, ऐसे में लोग शांतिपूर्वक तरीके से अंतिम संस्कार को प्राथमिकता देने लगे हैं.
इससे रुदालियों की अहमियत दिन-पर-दिन कम होती जा रही है और वे गुमनामी के अंधेरे में घकेली जा रही हैं.
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