सूर्य देव अपने रथ पर रोज करते हैं इंक्यावन लाख योजन की यात्रा
रोज प्रात सूर्य देव अपने सात घोड़ों वाले रथ पर बैठ कर यात्रा निकलते हैं और उनकी एक परिक्रमा से पूरा होता है एक दिन। जानें उनके रथ की विशेषतायें।
ऐसा है सूर्य का रथ
जिस रथ के चलने से आप दिन और रात को पहचानते हैं सूर्य देव के उस रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड यानि जूआ और रथ के बीच का भाग है। रथ का धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। इस रथ के पहियों के घूमने से पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न होते है। इसमें जुते सात घोड़ों के नाम हैं गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के बराबर ही इसके युगार्द्धों का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है।
सूर्य के रथ से तय होती है ऋतुएं
सूर्य के रथ की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक ही है। इसी के साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त मतलब दो घड़ी में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे ही बारह मास, छः नेम छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है। इस रथ का सारथ्य अरुण नाम के सारथी करते हैं। इस तरह भगवान भुवन भास्कर नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बी परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तय करते हैं।
ये है सूर्य रथ का मार्ग
सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी से होते हुए दक्षिण की ओर यमपुरी से गुजर कर पश्चिम की ओर वरुणपुरी और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी तक, मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य की परिक्रमा पूरी होती है। इसी यात्रा के बाद में सभी जगह कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होती है। सूर्य जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।
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