किस तरह कृष्ण की बांसुरी सुनकर सभी गोप-गोपियां दिव्य आनंद की स्थिति चले गए। यह वही परम आनंद की स्थिति थी जिसे योगी ध्यान में पाते हैं। जब यह रास लीला हो रही थी, तब शिव ध्यान में डूबे हुए थे। अचानक उन्होंने जाना कि उन्ही की तरह परमानन्द में कई और लोग भी डूबे हुए हैं, लेकिन वे सब बांसुरी की धुन पर नाचते हुए आनंदित हो रहे हैं। यह देख शिव भी रास लीला में जाने के लिए उत्सुक हो उठे। फिर कैसे पहुंचे शिव रास लीला में? आइये पढ़ते हैं…
यह पहली रास लीला थी, जिसमें उल्लासित लोगों की टोली ने एक साथ नाच-गाकर दिव्य आनंद की अवस्था को पाया था। जब यह रास लीला शुरु हुई, तो भगवान शिव पहाड़ों में ध्यान मग्न थे। कृष्ण हमेशा से भगवान शिव के भक्त रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि कृष्ण वाकई में शालिग्राम से पैदा हुए थे। शालिग्राम एक काले रंग का चिकना चमकीला अंडाकार पत्थर होता है, जिसकी भारत में भगवान के रूप में पूजा होती है।
जब यह रास लीला शुरु हुई, तो भगवान शिव पहाड़ों में ध्यान मग्न थे।
यह यमुना नदी के किनारों पर मिलता है। हालांकि नेपाल से निकलने वाली कुछ और नदियों में ऐसे शालिग्राम पाए जाते थे। उनमें से अधिकांश नदियां अब लुप्त हो चुकी हैं। माना जाता है कि इन्हीं नदियों के जरिए शालिग्राम यमुना तक पहुंचे। ये शालिग्राम महज पत्थर नहीं हैं, ये एक खास तरीके से बनते हैं। इनके अंदर एक खास प्रक्रिया होती है, जिसकी वजह से इनमें अपना ही एक स्पंदन होता है। दंत कथा के अनुसार, कृष्ण इन्हीं शालिग्राम से निकले हैं और यही वजह है कि उनका रंग नीलापन लिए सांवला है। हर सुबह और शाम कृष्ण महादेव के मंदिर जाया करते थे और जहां तक हो सका, यह सिलसिला जीवन भर चलता रहा।
तो शिव ध्यान में मग्न थे और अचानक, उन्हें पता चला कि जो आनंद उन्हें ध्यान में मिल रहा है, रास में लीन बच्चे नाच कर उसी आनंद का पान कर रहे हैं। वह देखकर हैरान थे कि छोटी उम्र का उनका वह भक्त बांस के छोटे टुकड़े की मोहक धुन पर सभी को नचाकर परम आनंद में डुबो रहा था। अब शिव से रहा नहीं गया। वह रास देखना चाहते थे। वह तुरंत उठे और सीधे यमुना तट की ओर चल दिए। वह यमुना को पार कर देखना चाह रहे थे कि वहां क्या हो रहा है।
वृनदेवी ने कहा, ‘नहीं, क्योंकि वह कृष्ण का रास है। वहां कोई पुरुष नहीं जा सकता। अगर आपको वहां जाना है, तो आपको महिला के रूप में आना होगा।’
लेकिन उनके रास्ते में ही नदी की देवी ‘वृनदेवी’ खड़ी हो गई। वृनदेवी ने उनसे कहा, ‘आप वहां नहीं जा सकते हैं।’
इस पर शिव आश्चर्यचकित रह गए। इस पर हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘कौन, मैं वहां नहीं जा सकता?’ वृनदेवी ने कहा, ‘नहीं, क्योंकि वह कृष्ण का रास है। वहां कोई पुरुष नहीं जा सकता। अगर आपको वहां जाना है, तो आपको महिला के रूप में आना होगा।’
स्थिति वाकई विचित्र थी। आखिर शिव को पौरुष का प्रतीक माना जाता है – उनका प्रतीक लिंग और बाकी सब चीजों के होने की भी यही वजह है। ये प्रतीक उनके पौरुषता के साक्षात प्रमाण हैं। अब ऐसे में उनके सामने बड़ी दुविधा थी कि वह महिला के वेश में कैसे आएं। वहीं, दूसरी ओर रास अपने चरम पर था। वह वहां जाना भी चाहते थे। लेकिन नदी की वृनदेवी बीच में आ गईं और बोलीं, ‘आप वहां नहीं जा सकते। वहां जाने के लिए आपको कम से कम महिला के वस्त्र तो धारण करने ही होंगे। अगर आप महिला का वेश धारण करने के लिए तैयार हैं, तो मैं आपको जाने दूंगी। वरना नहीं।’ शिव ने आस-पास देखा, कोई नहीं देख रहा था। उन्होंने कहा, ‘ठीक है, तुम मुझे गोपियों वाले वस्त्र दे दो।’ तब वृनदेवी ने उनके सामने गोपी वाले वस्त्र पेश कर दिए। शिव ने उन्हें पहना और नदी पार करके चले गए। यह रास में शामिल होने की उनकी बेताबी ही थी।
तो शिव को भी रास लीला में शामिल होने के लिए महिला बनना पड़ा। प्रेम, खुशी, उल्लास और आनंद का यह दिव्य नृत्य यूं ही चलता रहा।
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