लीला विग्रहों का प्राकट्य ही वास्तव में अपनी आराध्या श्री राधा जू के निमित्त ही हुआ है। श्री राधा जू प्रेममयी हैं और भगवान श्री कृष्ण आनन्दमय हैं। जहां आनन्द है वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है वहीं आनन्द है। आनन्द-रस-सार का धनीभूत विग्रह स्वयं श्री कृष्ण हैं और प्रेम-रस-सार की धनीभूत श्री राधारानी हैं अत: श्री राधा रानी और श्री कृष्ण एक ही हैं।
सच्चे प्रेम में प्रेमी के पार्थिव शरीर की उपस्थिति का परितार बड़ी ऊंची स्तर की बात है। प्रेम में अधिकतम त्याग कभी शादी न करना राधा का यह कौमार्य आजीवन उत्सर्ग को सदा अन्नत प्रेमा धार रसधार श्री राधा का नाम श्री कृष्ण से भी पहले लेने को प्रेरित करता रहेगा। उनका पावन नाम भक्तों को तारता रहेगा।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ तो राधा जी ने भाद्र माह में ही शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को जन्म लिया। श्री कृष्ण की प्रथम पटरानी देवी रूक्मिणी का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था। राधा जी के जन्म में और देवी रूक्मिणी के जन्म में एक अन्तर यह है कि देवी रूक्मिणी का जन्म कृष्ण पक्ष में हुआ था और देवी राधा जी का शुक्ल पक्ष में। राधा जी को नारद जी द्वारा दिए गए श्राप के कारण विरह सहना पड़ा और देवी रूक्मिणी और श्री कृष्ण प्रणय सूत्र में बंध गए। श्री राधा और रूक्मिणी जी दिखने में अलग अलग शख्यित हैं परंतु दोनों ही माता लक्ष्मी का अंश स्वरूप हैं।
नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उन्होंने काम पर विजय प्राप्त कर ली है। भगवान नारद जी की परीक्षा लेने के लिए भगवान विष्णु ने अपनी माया से एक नगर का निर्माण किया उस नगर के राजा ने अपनी रूपवती पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया स्वयंर में नारद मुनि भी पहुंचे और कामदेव के वाणों से घायल होकर राजकुमारी को देखकर मोहित हो गए।
राजकुमारी से विवाह की इच्छा लेकर वह भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे निवेदन करने लगे कि प्रभु मुझे आप अपना सुन्दर रूप प्रदान करें क्योंकि मुझे राजकुमारी से प्रेम हो गया है और मैं उससे विवाह की इच्छा रखता हूं नारद जी के वचनों को सुनकर भगवान मुस्कुराए और कहा तुम्हें विष्णु रूप देता हूं। जब नारद विष्णु रूप लेकर स्वयंवर में पहुंचे तब उस राजकुमारी ने विष्णु जी के गले में वर माला डाल दी नारद जी वहां से दु:खी होकर चले आ रहे थे मार्ग में उन्हें एक जलाशय दिखा जिसमें उन्होंने चेहरा देखा तो समझ गए कि विष्णु भगवान ने उनके साथ छल किया है और उन्हें वानर रूप दिया है।
नारद क्रोधित होकर बैकुण्ड पहुंचे और भगवान को बहुत भला बुरा कहा और उन्हें अपनी प्राण प्रिया का वियोग सहना होगा यह श्राप दिया। नारद जी के इस श्राप की वजह से रामावतार में भगवान रामचन्द्र जी को सीता माता का वियोग सहना पड़ा था और कृष्णावतार में श्री राधा का।
सच्चे प्रेम में प्रेमी के पार्थिव शरीर की उपस्थिति का परितार बड़ी ऊंची स्तर की बात है। प्रेम में अधिकतम त्याग कभी शादी न करना राधा का यह कौमार्य आजीवन उत्सर्ग को सदा अन्नत प्रेमा धार रसधार श्री राधा का नाम श्री कृष्ण से भी पहले लेने को प्रेरित करता रहेगा। उनका पावन नाम भक्तों को तारता रहेगा।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ तो राधा जी ने भाद्र माह में ही शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को जन्म लिया। श्री कृष्ण की प्रथम पटरानी देवी रूक्मिणी का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था। राधा जी के जन्म में और देवी रूक्मिणी के जन्म में एक अन्तर यह है कि देवी रूक्मिणी का जन्म कृष्ण पक्ष में हुआ था और देवी राधा जी का शुक्ल पक्ष में। राधा जी को नारद जी द्वारा दिए गए श्राप के कारण विरह सहना पड़ा और देवी रूक्मिणी और श्री कृष्ण प्रणय सूत्र में बंध गए। श्री राधा और रूक्मिणी जी दिखने में अलग अलग शख्यित हैं परंतु दोनों ही माता लक्ष्मी का अंश स्वरूप हैं।
नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उन्होंने काम पर विजय प्राप्त कर ली है। भगवान नारद जी की परीक्षा लेने के लिए भगवान विष्णु ने अपनी माया से एक नगर का निर्माण किया उस नगर के राजा ने अपनी रूपवती पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया स्वयंर में नारद मुनि भी पहुंचे और कामदेव के वाणों से घायल होकर राजकुमारी को देखकर मोहित हो गए।
राजकुमारी से विवाह की इच्छा लेकर वह भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे निवेदन करने लगे कि प्रभु मुझे आप अपना सुन्दर रूप प्रदान करें क्योंकि मुझे राजकुमारी से प्रेम हो गया है और मैं उससे विवाह की इच्छा रखता हूं नारद जी के वचनों को सुनकर भगवान मुस्कुराए और कहा तुम्हें विष्णु रूप देता हूं। जब नारद विष्णु रूप लेकर स्वयंवर में पहुंचे तब उस राजकुमारी ने विष्णु जी के गले में वर माला डाल दी नारद जी वहां से दु:खी होकर चले आ रहे थे मार्ग में उन्हें एक जलाशय दिखा जिसमें उन्होंने चेहरा देखा तो समझ गए कि विष्णु भगवान ने उनके साथ छल किया है और उन्हें वानर रूप दिया है।
नारद क्रोधित होकर बैकुण्ड पहुंचे और भगवान को बहुत भला बुरा कहा और उन्हें अपनी प्राण प्रिया का वियोग सहना होगा यह श्राप दिया। नारद जी के इस श्राप की वजह से रामावतार में भगवान रामचन्द्र जी को सीता माता का वियोग सहना पड़ा था और कृष्णावतार में श्री राधा का।
साभार - सरोज बाला
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