आज इंसान की स्थिति बड़ी विचित्र हो गई है।अक्सर हम बीमार होते हुए भी खुद को बीमार नहीं मानते।यही नहीं,हम अपनी बुराइयों को भी स्वीकार नहीं करते।पहचान अगर जाहिर हो भी जाए तो हम किसी न किसी प्रकार उसे दबाने में लग जाते हैं।कुल मिलाकर हम बेध्यानी में उल्टे-सीधे काम करने लगते हैं।अपनी बीमारियों को ऐसे में हम और बढ़ा लेते हैं।
दरअसल,हमने बुराइयों को दूर करने का तरीका ही बदल लिया है।गंदगी दिखती है तो चेहरा साफ करने के बजाय दर्पण साफ करने लगते हैं लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि दर्पण जितना साफ होगा,गंदगी या हमारी बुराइयां उतनी ही ज्यादा दिखेंगी।
हमें जरूरत है भीतरी सफाई की।अपना कर्म ठीक करने की।कर्म ठीक होगा तो लोगों का नजरिया खुद-ब-खुद ठीक हो जाएगा।लोगों का तो काम ही आलोचना करना है। इन आलोचनाओं पर तभी ध्यान देने की जरूरत है जब हम वाकई अपने कर्म में कमी पाएं।कर्म को बदले बिना तो नजरिया बदला ही नहीं जा सकता। हमारी बीमारियों का सही इलाज तो कर्म सुधार के जरिए ही हो सकता है क्योंकि अपनी बीमारियों के बारे में सिर्फ हम जानते हैं,दूसरा कोई नहीं।
अपनी बुराइयों को यदि हम स्वीकार नहीं करते तो हमसे ज्यादा गरीब कोई और दूसरा नहीं हो सकता।गलत कामों के लिए हमारी आत्मा धिक्कारे तो हम गरीब ही तो हुए। सबसे गरीब इसलिए कि दुनिया तो दूर,गलत होने पर हम अपना सामना तक नहीं कर सकते।
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