श्री वृन्दावन धाम श्यामा जू और श्री कुञ्ज बिहारी का निज धाम है। यहां राधा-कृष्ण की प्रेमरस-धाराबहती रहती है। मान्यता है कि चिरयुवाप्रिय-प्रियतम श्रीधामवृंदावन में सदैव विहार में संलग्न रहते हैं। यहां निधिवन को समस्त वनों का राजा माना गया है, इसलिए इनको श्रीनिधि वनराज कहा जाता है। माना जाता है कि आज से लगभग पांच शताब्दी पूर्व राधा रानी की सखी ललिता जी ने स्वामी हरिदास के रूप में अवतार लिया था। स्वामी हरिदास वृन्दावन के निधिवन में लता कुञ्जों से लाड लड़ाया करते थे । कहा जाता है की जब स्वामी हरिदास भाव से विभोर हो कर अपने आराध्य श्रीराधा- कृष्ण की महिमा का गुणगान करते थे तो वे इनकी गोद में आ कर बैठ जाते थे ।
स्वामी हरिदास के प्रिय शिष्य और भतीजे विठ्ठल विपुलदेव ने अपनी जन्मतिथि मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी के दिन उनसे कुञ्जबिहारी और विहारिणी जू के सगुण-साकार रूप का दर्शन करवाने का अनुरोध किया। इस पर स्वामी हरिदास ने अपने तानपूरे पर तान छेड़ी, तो प्रिया प्रियतम प्रकट हो गए। उनके अलौकिक तेज़ के तीव्र प्रकाश को उनकी आंखे सहन नहीं कर पा रही थी। तब स्वामी हरिदास ने प्रार्थना की-
सहज जोरी प्रगट रहति नित।
जु रंग की गौर-स्याम,घन-दामिनि जैसे।
प्रथम हुं हुते , अब हूं, आगे हूं रहिहै, न टरिहै तैसे॥
अंग-अंग की उजराई,सुघराई,चतुराई, सुंदरता ऐसे।
हरिदास के स्वामी, स्यामा-कुंजबिहारी,सम वैसे वैसे॥
स्वामी हरिदास के आग्रह पर श्री श्यामाजू श्री श्यामसुंदर में ऐसे लीन हो गईं, जैसे बिजली चमकने के बाद मेघ में लीन हो जाती है। इस प्रकार प्रिय-प्रियतम का युगल स्वरूप श्रीबांकेबिहारी के रूप में सामने आया।
स्वामी जी ने इस विग्रह का नाम ठाकुर बांके बिहारी रखा और प्रकट हुए स्थान को विशाखा कुंड नाम दिया स्वामी हरिदास जी निधिवन में बिहारी जी के विग्रह की नित्य प्रति बड़े ही विधि-विधान से सेवा-पूजा किया करते थे। कहा जाता है की ठाकुर बांके बिहारी की गद्दी पर स्वामी जी प्रतिदिन 12 स्वर्ण मोहरे रखी हुई मिलती थी जिन्हें वह उसी दिन बिहारी जी का विभिन्न प्रकार के व्यजनों से भोग लगाने में व्यय कर देते थे । वे भोग लगे व्यजनों को बंदरों, मोरों,मछलियों और कछुओं आदि जीव-जन्तुओं को खिला देते थे। जबकि वे स्वयं ब्रजवासियो से मांगी गई भिक्षा से ही संतुष्ट हो लेते थे ।
युगलछवि-दर्शन
श्रीबांकेबिहारी में श्यामा-श्याम की युगल छवि समाहित है। यही कारण है कि मंदिर में श्रीबांकेबिहारी के बगल में राधारानी का विग्रह दिखाई नहीं देता लेकिन आप जब ठाकुरजी को ध्यान से देखेंगे, तो उनमें आपको श्यामा-कुंजबिहारी की युगल छवि स्पष्ट दिखाई देगी। यह श्रीबांकेबिहारी का अर्धनारीश्वर स्वरूप है। शास्त्रों का स्पष्ट कथन है कि राधा के बिना श्रीकृष्णजी अधूरे हैं। स्कंदपुराण में श्रीराधा को श्रीकृष्ण की आत्मा बताते हुए दोनों में अभेद-दृष्टि रखने का निर्देश दिया गया है।
ब्रह्मांडपुराण में राधा-कृष्ण को तत्वत: एक बताया गया है-
य: कृष्ण: सापि राधा च या राधा कृष्ण एव स:।
एकं ज्योतििर्द्वधा भिन्नंराधामाधवरूपकम् —
भगवान के दिव्य लीला विग्रहों का प्राकट्य ही वास्तव में अपनी आराध्या श्री राधा जू के निमित्त ही हुआ है। श्री राधा जू प्रेममयी हैं और भगवान श्री कृष्ण आनन्दमय हैं। जहां आनन्द है वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है वहीं आनन्द है। आनन्द-रस-सार का धनीभूत विग्रह स्वयं श्री कृष्ण हैं और प्रेम-रस-सार की धनीभूत श्री राधारानी हैं अत: श्री राधा रानी और श्री कृष्ण एक ही हैं।
श्री कृष्ण स्पष्ट करते है कि,"राधा और मैं दो नहीं एक ही हैं। तेज को मैं दो में इसलिए बांट देता हूं कि मैं स्वंय इस अवतार में रपास्वादन करना चाहता हूं क्योंकि पहले में मर्यादा में बंधा था। अब इस अवतार में पूर्ण रस में लीन रहना चाहता हूं। वही रस सागर श्री राधे हैं।"
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