मथुरा-वृंदावन मंदिरों के नगर है। यहां पर प्रत्येक गली और घर-घर में मंदिर है। इनमें श्रीबांके बिहारी जी एवं श्रीरंगजी के मंदिर प्रमुख है।
मथुरा-वृंदावन पर विदेशियों के आक्रमण बार-बार हुए। प्राचीन काल में हूण, शक आदि जातियां इसे नष्ट करती रहीं। तीन बार यवनों ने इस पुनीत तीर्थ को ध्वस्त किया। इसी का परिणाम है कि यहां प्राचीन मंदिर नहीं रह गए।
महिमा वृंदावन की
वृंदावन की महिमा न्यारी है। इसकी पवित्र भूमि एवं गोप बालाओं के लोकोलर प्रेम का वर्णन करते हुए कृष्ण सखा श्री उद्धव कहते है-
'इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है क्योंकि वृंदावन की ये गोप-बालाएं सर्वात्मा भगवानं श्रीकृष्ण के परम प्रेममय दिव्य महाभाव में स्थित हो गई है। प्रेम की यह ऊंची से ऊंची स्थिति संसार के भय से त्रस्त मोक्ष की अभिलाषियों के लिए ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों तथा भक्तजनों के लिए भी वांछनीय है। भगवान श्रीकृष्ण की कथा के श्रवण में जिन व्यक्तियों का मन रम जाता है, उनके लिए यज्ञ, तपस्या आदि की क्या आवश्यकता है? यदि किसी व्यक्ति को भगवान की कथा रस नहीं मिला तो उसे अनेक कल्पों तक ब्रह्मा होने से भी क्या लाभ?'
वृंदा देवी की तपोभूमि
ब्रह्म-वैवर्त-पुराण में कथा है कि सतयुग में महाराज केदार की पुत्री वृंदा ने श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए इस भूमि पर दीर्घकाल तक तपस्या की थी। भगवान श्री श्याम सुंदर ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिया। वृंदा की पावन तपोभूमि होने के कारण इसे वृंदावन कहा जाता है। श्रीराधा-कृष्ण की निकुंज-लीलाओं की प्रधान रंगस्थली वृंदावन ही है। इस भूमि की अधिष्ठात्री देवी वृंदा देवी है, इसलिए भी इसे वृंदावन कहते है।
अद्भुत शिल्प से निर्मित मंदिर
ऐसी पवित्र भूमि पर स्थित श्रीरंगजी का मंदिर, दक्षिण भारतीय शैली से विनिर्मित है। श्रीरामानुज संप्रदाय का यह विशाल एवं भव्य मंदिर देश-विदेश से आए हुए तीर्थ यात्रियों का प्रमुख आकर्षक केंद्र बना हुआ है। प्राप्त विवरण के अनुसार संत श्रीरंग देशिक ने वृंदावन धाम में श्रीरंग दिव्यदेश अर्थात श्रीरंग मंदिर की प्रतिष्ठा की थी। वृंदावन का श्रीरंगजी मंदिर अपने स्थापत्य एवं शिल्प के लिए अद्भुत है। इस मंदिर के उत्सवों में से पौष का ब्रह्मोत्सव तथा चैत्र का वैकुंठोत्सव मुख्य है। श्रीरंगजी के मंदिर के सम्मुख श्री गोविंददेव जी का प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर संत व्रज नाभ द्वारा स्थापित है। यवन उपद्रव के समय यह मूर्ति यहां के शासकों द्वारा जयपुर भेजी गई थी और आज भी वहां के राजमहल में विराजमान है।
प्रचलित कथा
श्रीरंगजी के मंदिर के पीछे ज्ञानगूदड़ी स्थान है। यह विरक्त महात्माओं की भजन स्थली है। अब यहां पर एक श्रीराम मंदिर है। कहते है कि उद्धव जी का गोपियों के साथ संवाद यहीं हुआ था। मूल श्रीरंग मंदिर के संबंध में कथा प्रचलित है कि दक्षिण भारत के इस मंदिर में प्रतिष्ठापित श्रीरंगनाथ की मूर्ति विष्णु भगवान ने पहले ब्रह्मा को दी थी। राजा इक्ष्वाकु ने कठोर तप करके ब्रह्मा जी से इसे प्राप्त किया था और अयोध्या में स्थापित किया था। राज्याभिषेक के समय जब श्रीराम सबको मुंहमांगी वस्तु प्रदान कर रहे थे, तो विभीषण ने उनसे श्रीरंग की मूर्ति मांगकर, लंका में उसकी स्थापना के उद्देश्य से उसे अपने साथ ले जाने लगे। मार्ग में विभीषण ने अपने विमान को कावेरी के द्वीप में उतारा। देवता नहीं चाहते थे कि यह मूर्ति लंका चली जाए। विभीषण ने यहां से मूर्ति को ले जाने का यत्न किया तो वह उसे उठा न सके। इस पर श्रीरंग ने कहा कि राजा इक्ष्वाकु ने मुझे पाने के लिए कठोर तप किया है। तुम यहीं आकर मेरा दर्शन किया करो। मैं लंका की ओर मुख करके यहीं रहूंगा।
कालांतर में श्रीरामानुज संप्रदाय की परंपरा में दीक्षित संत श्रीरंग देशिक ने वृंदावन में श्रीरंगमंदिर की प्रतिष्ठाना की। यह पवित्र देव स्थल भारत की अक्षुण्ण एवं सनातन धार्मिक-परंपरा के निर्बाध-प्रवाह की सतत याद दिलाता है।
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