गुरुवार, 5 जून 2014

विश्व पर्यावरण दिवस: खतरे में है हमारी धरती



पर्यावरण संरक्षण तथा इसे पहुंच रहे खतरों के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से हर वर्ष 5 जून के दिन को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसकी स्थापना 1972 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा में की गई थी जिस दिन यूनाइटिड नेशन्स कांफ्रैंस ऑन ह्यूमन एन्वायरनमैंट का आयोजन किया गया था। प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन 5 जून, 1973 को किया गया था।

विश्व पर्यावरण दिवस: खतरे में है हमारी धरती इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस की थीम ‘छोटे टापू तथा मौसम में परिवर्तन’ है इसीलिए इस साल का आधिकारिक स्लोगन है- ‘रेज योर वॉइस नॉट द सी लैवल’ (अपनी आवाज उठाओ न कि समुद्र का जलस्तर)।

दुनिया भर में असर
गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से वर्षा की मात्रा में कहीं अत्यधिक कमी तो कहीं जरूरत से बहुत अधिक वर्षा जिससे कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा पड़ रहा है, समुद्र का बढ़ता जलस्तर, मौसम के मिजाज में लगातार परिवर्तन, पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाना जैसे भयावह लक्षण लगातार नजर आ रहे हैं।

मौसम का बिगड़ता मिजाज मानव जाति, जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों के लिए तो बहुत खतरनाक है ही, साथ ही पर्यावरण संतुलन के लिए भी गंभीर खतरा है। मौसम एवं पर्यावरण विशेषज्ञ विकराल रूप धारण करती इस समस्या के लिए औद्योगिकीकरण, बढ़ती आबादी, घटते वनक्षेत्र, वाहनों के बढ़ते कारवां तथा तेजी से बदलती जीवन शैली को खासतौर से जिम्मेदार मानते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 10 हजार वर्षों में भी पृथ्वी पर जलवायु में इतना बदलाव और तापमान में इतनी बढ़ौतरी नहीं देखी गई, जितनी पिछले कुछ ही वर्षों में देखी गई है।

हानिकारक गैसें : कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, मीथेन पर्यावरण असंतुलन के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।

क्यों बिगड़ा संतुलन
पृथ्वी तथा इसके आसपास के वायुमंडल का तापमान सूर्य की किरणों के प्रभाव अथवा तेज से बढ़ता है और सूर्य की किरणें पृथ्वी तक पहुंचने के बाद इनकी अतिरिक्त गर्मी वायुमंडल में मौजूद धूल के कणों एवं बादलों से परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में लौट जाती है। इस प्रकार पृथ्वी के तापमान का संतुलन बरकरार रहता है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वायुमंडल में हानिकारक गैसों का जमावड़ा बढ़ते जाने और इन गैसों की वायुमंडल में एक परत बन जाने की वजह से पृथ्वी के तापमान का संतुलन निरंतर बिगड़ रहा है।

ग्रीन हाऊस गैसें
दरअसल पृथ्वी के वायुमंडल के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि और मौसम के मिजाज में निरन्तर परिवर्तन का प्रमुख कारण है वायुमंडल में बढ़ती ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा। औद्योगिक क्रांति तथा वाहन इत्यादि तो इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं ही, इसके साथ-साथ वनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जाना भी इस समस्या को विकराल रूप प्रदान करने में अहम भूमिका निभाता रहा है। पेड़-पौधों द्वारा अपना भोजन तैयार करते समय संश्लेषण की प्रक्रिया में सूर्य की किरणों के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड गैस का भी काफी मात्रा में प्रयोग किया जाता है और अगर वनों का इस कदर अंधाधुंध सफाया न हो रहा होता तो कार्बन डाइऑक्साइड गैस की काफी मात्रा तो वनों द्वारा ही सोख ली जाती और तब पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने में ग्रीन हाऊस परत इतनी सशक्त भूमिका न निभा रही होती।

समुद्र भी प्रतिवर्ष वायुमंडल से करीब दो अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस अपने अंदर ग्रहण कर लेते हैं, जिसके फलस्वरूप ग्रीन हाऊस गैसों का प्रभाव कम हो जाता है लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान के चलते कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करने की समुद्र की क्षमता में भी अब 50 फीसदी तक कमी आने की संभावना है।

वक्त की मांग यही है कि दुनिया भर के राष्ट्र आपसी मतभेद दरकिनार करते हुए इस दिशा में सार्थक पहल करें तथा अपने-अपने स्तर पर ग्रीन हाऊस गैसों के वायुमंडल में न्यूनतम विसर्जन के लिए भी अपेक्षित कदम उठाएं।

—योगेश कुमार गोयल

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