तकनीकी होड़ में पिछड़ रहा है हाथ का हुनर
बाड़मेर मोकलसर
आधुनिकता की दौड़ में लोग का जूतियों से मोहभंग होने व चमड़े के दाम बढऩे से जूती उद्योग पर संकट के बादल गहराने लगे हैं। जूतियों के उचित दाम नहीं मिलने से मोकलसर का पुश्तैनी जूती उद्योग दम तोड़ता नजर आ रहा है।
वर्तमान के इस फैशन के दौर में विभिन्न कंपनियों के जूतों का प्रचलन बढऩे से लोगों को चमड़े की जूतियों के प्रति क्रेज कम हो गया है। एक समय था जब मोकलसर की जूती की मांग दूर-दूर तक थी तथा लोगों की पहली पंसद भी। लेकिन अब जूती के शौकीनों की संख्या कम हो गई है। चमड़े के दाम बढऩे एवं जूतियों के उचित दाम नहीं मिलने से जूती बनाने कारीगरों के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी मुश्किल हो गया है। ऐसे में कई लोगों ने जूती बनाने का काम ही छोड़ दिया है तथा दूसरे कामों की ओर रुख कर लिया है। इस महंगाई के दौर में कई कारीगर शहरों की ओर पलायन कर लिए हैं। गांवों में चमड़े की वस्तु तैयार करने में 50 से 100 रुपए प्रतिदिन मुश्किल से कमा पाते हैं। ऐसे में उनके घर का खर्च व बच्चों का पालन-पोषण भी संभव नहीं है।
तकनीक की मार संरक्षण की दरकार
गांवों में काम करने वाले कारीगरों के साथ महिलाएं भी इस काम में हाथ बढ़ाती हैं। महिलाएं घर में समूह के रूप में कसीदा का कार्य करती हैं। जिसमें वस्तु पर करीब दो दिन लग जाते हैं। ऐसे में गांवों में काम करने वाले कारीगरों के रोजगार पर संकट पैदा होने लगा हैं।
॥वर्तमान समय में चमड़ा महंगा हो गया है। वहीं चमड़े की वस्तुएं बनाने में मेहनत भी अधिक लगती है। ऐसे में मांग की अनुरूप दाम नहीं मिल पाते है। वहीं मशीनों से भी वस्तुओं का क्रय अधिक होने लगा है। ऐसे में परंपरागत रूप से व्यवसाय बंद होने की कगार पर है।
- नाथूराम जीनगर, कारीगर, मोकलसर।
क्षेत्र के मोकलसर, मायला वास, राखी, खंडप, पादरू एवं आसपास के गावों में ही महज आठ से दस परिवार ही चमड़ा व्यवसाय से जुड़ा हुआ है। अकेले मोकलसर कस्बे में 20 परिवार चमड़ा कुटीर उद्योग का कार्य करते थे। लेकिन अधिकांश परिवारों ने चमड़ा कुटीर उद्योग का कार्य छोड़ दिया है। अब इस प्रशासनिक संरक्षण की दरकार है।
बाड़मेर मोकलसर
आधुनिकता की दौड़ में लोग का जूतियों से मोहभंग होने व चमड़े के दाम बढऩे से जूती उद्योग पर संकट के बादल गहराने लगे हैं। जूतियों के उचित दाम नहीं मिलने से मोकलसर का पुश्तैनी जूती उद्योग दम तोड़ता नजर आ रहा है।
वर्तमान के इस फैशन के दौर में विभिन्न कंपनियों के जूतों का प्रचलन बढऩे से लोगों को चमड़े की जूतियों के प्रति क्रेज कम हो गया है। एक समय था जब मोकलसर की जूती की मांग दूर-दूर तक थी तथा लोगों की पहली पंसद भी। लेकिन अब जूती के शौकीनों की संख्या कम हो गई है। चमड़े के दाम बढऩे एवं जूतियों के उचित दाम नहीं मिलने से जूती बनाने कारीगरों के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी मुश्किल हो गया है। ऐसे में कई लोगों ने जूती बनाने का काम ही छोड़ दिया है तथा दूसरे कामों की ओर रुख कर लिया है। इस महंगाई के दौर में कई कारीगर शहरों की ओर पलायन कर लिए हैं। गांवों में चमड़े की वस्तु तैयार करने में 50 से 100 रुपए प्रतिदिन मुश्किल से कमा पाते हैं। ऐसे में उनके घर का खर्च व बच्चों का पालन-पोषण भी संभव नहीं है।
तकनीक की मार संरक्षण की दरकार
गांवों में काम करने वाले कारीगरों के साथ महिलाएं भी इस काम में हाथ बढ़ाती हैं। महिलाएं घर में समूह के रूप में कसीदा का कार्य करती हैं। जिसमें वस्तु पर करीब दो दिन लग जाते हैं। ऐसे में गांवों में काम करने वाले कारीगरों के रोजगार पर संकट पैदा होने लगा हैं।
॥वर्तमान समय में चमड़ा महंगा हो गया है। वहीं चमड़े की वस्तुएं बनाने में मेहनत भी अधिक लगती है। ऐसे में मांग की अनुरूप दाम नहीं मिल पाते है। वहीं मशीनों से भी वस्तुओं का क्रय अधिक होने लगा है। ऐसे में परंपरागत रूप से व्यवसाय बंद होने की कगार पर है।
- नाथूराम जीनगर, कारीगर, मोकलसर।
क्षेत्र के मोकलसर, मायला वास, राखी, खंडप, पादरू एवं आसपास के गावों में ही महज आठ से दस परिवार ही चमड़ा व्यवसाय से जुड़ा हुआ है। अकेले मोकलसर कस्बे में 20 परिवार चमड़ा कुटीर उद्योग का कार्य करते थे। लेकिन अधिकांश परिवारों ने चमड़ा कुटीर उद्योग का कार्य छोड़ दिया है। अब इस प्रशासनिक संरक्षण की दरकार है।
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