परशुराम जयंती पर विशेष धनुर्विद्या के गुरु थे परशुराम
परशुराम महर्षि जमदग्नि और रेणुका के महान पराक्रमी पुत्र थे जिन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने के लिए उनका 21 बार सामूहिक रूप से संहार किया था। भृगुवंशी होने से यह भार्गव।
जमदग्नि होने से जामदग्न्य और नाम से केवल राम होते हुए महादेव द्वारा उनके प्रसिद्ध शस्त्र पर परशु प्राप्त करने से परशुराम कहलाए। कहते हैं कि गुरु द्रोणाचार्य ने परशुराम से धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी।
हरिवंशपुराण के अनुसार परशुराम से जुड़ी दो प्राचीन कहानियों का उल्लेख मिलता है। कहते हैं प्राचीन समय में महिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कीर्तिवीर्य अर्जुन (सहस्त्रबाहु) का शासन था। वह बहुत अभिमानी था और अत्याचारी भी।
एक बार अग्निदेव ने सहस्त्रबाहु से भोजन कराने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें, भोजन प्राप्त कर सकते हैं, सभी ओर मेरा ही राज है। तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरु किया।
एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि ने उनके आश्रम को भी जला डाला। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने सहस्त्रबाहु को श्राप दिया कि भगवान विष्णु, परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न सिर्फ सहस्त्रबाहु का नहीं बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इसी श्राप के फलस्वरूप भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्नि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया।
पृथ्वी बनीं गौ माता
एक अन्य कथा के अनुसार जब क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार बहुत बढ़ गया तो पृथ्वी माता गाय के रूप में भगवान विष्णु के पास गईं और अत्याचारियों का नाश करने का आग्रह किया। तब भगवान विष्णु ने उन्हें वचन दिया कि वे धर्म की स्थापना के लिए महर्षि जमदग्नि के पुत्र में रूप में अवतार लेकर अत्याचारियों का सर्वनाश करेंगे।
धनुर्विद्या के गुरु थे परशुराम
पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरी पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी। परशुराम इस धरती पर ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनकी धनुर्विद्या की कोई पौराणिक मिसाल नहीं है। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और खुद कर्ण ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी।
महाभारत में उल्लेख मिलता है कि अर्जुन धनुर्विद्या निपुण थे। अर्जुन साधना के बल पर पानी में देखकर घूमती हुई मछली की आंख को वेध दिया था। शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और तरह चार उपवेद हैं।
इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद है। दूसरा शिल्प वेद है। तीसरा गंधर्व वेद और चौथा धनुर्वेद है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है।
परशुराम महर्षि जमदग्नि और रेणुका के महान पराक्रमी पुत्र थे जिन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने के लिए उनका 21 बार सामूहिक रूप से संहार किया था। भृगुवंशी होने से यह भार्गव।
जमदग्नि होने से जामदग्न्य और नाम से केवल राम होते हुए महादेव द्वारा उनके प्रसिद्ध शस्त्र पर परशु प्राप्त करने से परशुराम कहलाए। कहते हैं कि गुरु द्रोणाचार्य ने परशुराम से धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी।
हरिवंशपुराण के अनुसार परशुराम से जुड़ी दो प्राचीन कहानियों का उल्लेख मिलता है। कहते हैं प्राचीन समय में महिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कीर्तिवीर्य अर्जुन (सहस्त्रबाहु) का शासन था। वह बहुत अभिमानी था और अत्याचारी भी।
एक बार अग्निदेव ने सहस्त्रबाहु से भोजन कराने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें, भोजन प्राप्त कर सकते हैं, सभी ओर मेरा ही राज है। तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरु किया।
एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि ने उनके आश्रम को भी जला डाला। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने सहस्त्रबाहु को श्राप दिया कि भगवान विष्णु, परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न सिर्फ सहस्त्रबाहु का नहीं बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इसी श्राप के फलस्वरूप भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्नि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया।
पृथ्वी बनीं गौ माता
एक अन्य कथा के अनुसार जब क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार बहुत बढ़ गया तो पृथ्वी माता गाय के रूप में भगवान विष्णु के पास गईं और अत्याचारियों का नाश करने का आग्रह किया। तब भगवान विष्णु ने उन्हें वचन दिया कि वे धर्म की स्थापना के लिए महर्षि जमदग्नि के पुत्र में रूप में अवतार लेकर अत्याचारियों का सर्वनाश करेंगे।
धनुर्विद्या के गुरु थे परशुराम
पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरी पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी। परशुराम इस धरती पर ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनकी धनुर्विद्या की कोई पौराणिक मिसाल नहीं है। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और खुद कर्ण ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी।
महाभारत में उल्लेख मिलता है कि अर्जुन धनुर्विद्या निपुण थे। अर्जुन साधना के बल पर पानी में देखकर घूमती हुई मछली की आंख को वेध दिया था। शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और तरह चार उपवेद हैं।
इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद है। दूसरा शिल्प वेद है। तीसरा गंधर्व वेद और चौथा धनुर्वेद है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें