पाकिस्तान से खदेड़े जाने वाले अल्पसंख्यकों यानी हिंदुओं का दिल्ली पहुंचना आम है। अपना घर, जमीन और कारोबार छोड़कर हाल ही में 146 शरणार्थियों का नया जत्था सिंध प्रांत के हैदराबाद से दिल्ली पहुंचा है। कंपकपी छुड़ा देने वाली ठंड में खुले आसमान के नीचे रात काट रहे ये शरणार्थी हिन्दुस्तान की नागरिकता और रोजगार की आस लगाए जंतर-मंतर पर इकट्ठा हैं।
सिर्फ अपने कपड़ों की गठरी लेकर दिल्ली पहुंचे इस जत्थे में छोटे बच्चे, लड़िकयां और बड़े-बुजुर्ग हैं। धर्मवीर का हैदराबाद में फलों का कारोबार तो चौपट हुआ ही, साथ ही सिंध में तालिबान की धमक ने सुरक्षा भी खतरे में डाल दी। जब धर्मवीर पुलिस, मंत्री और कचहरी में इंसाफ के लिए चक्कर काटकर थक गए तो औने-पौने दाम पर लाखों की जमीन और बाकी सबकुछ बेच परिवार समेत दिल्ली आ गया। हैदराबाद से ही आए शरणार्थी डॉक्टर कृष्ण बताते हैं कि हमारे पास सिर्फ कपड़ों की गठरी और गहने थे लेकिन बाड़मेर बॉर्डर पर पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियों ने उन पर भी हाथ साफ कर दिया। 12वीं की पढ़ाई कर चुकीं पारती भी अब रिफ्यूजी बन चुकी है। उसे नहीं पता कि अब उसके डॉक्टर बनने का ख्वाब कैसे पूरा होगा?
दयाल दास कहते हैं, यहां आजादी है। हमारी बच्चियों को बुरका नहीं पहनना पड़ता। वो किसी दुकान पर गोलगप्पे खा सकती हैं। लेकिन सिर्फ जान की सुरक्षा ही सबकुछ नहीं है। दयाल दास के मुताबिक, पाकिस्तानी शरणार्थी फुटपाथ पर रेहड़ी लगाते हैं लेकिन एमसीडी आकर उठा देती है। एमसीडी वाले हमें पाकिस्तानी कहकर रिश्वत मांगते हैं जबकि पाकिस्तान में हमे हिन्दुस्तानी कहा जाता है।
दिल्ली आए इन शरणार्थियों को अभी तक कोई सरकारी भरोसा नहीं मिला है। इनसे पहले आए शरणार्थी सालों से रोहिणी, आदर्शनगर, मजनूं का टीला और फरीदाबाद में तंबू गाड़कर रह रहे हैं। अनुमान के मुताबिक, दिल्ली में तकरीबन 1 हजार पाकिस्तानी शरणार्थी हैं। पाकिस्तानी जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक वहां हिंदुओं की संख्या 30 लाख है जबकि जनगणना की पहली रिपोर्ट में यह आंकड़ा 1 से 2 करोड़ के बीच था।
पाकिस्तान में तेजी से घट रहे हिंदू अल्पसंख्यक चार मोटी वजहों से शरणार्थी बनने को मजबूर हुए हैं। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से 10 हजार हिंदू शरणार्थियों का सबसे बड़ा पलायन 1965 के युद्ध के बाद हुआ। 1971 की लड़ाई में 90 हजार हिंदू राजस्थान के शिविरों में कई साल तक रहने मजबूर हुए। फिर कश्मीर में चरमपंथी गुटों के उभार ने इन्हें अपनी जमीन छोड़ने को मजबूर किया। चौथी बड़ी वजह 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस रही। शरणार्थी धर्मवीर के मुताबिक, इस हादसे के बाद से पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के प्रति जो नफरत पैदा हुई, उससे हम सिमटते गए। कारोबार चौपट कर देना, जबरन धर्मांतरण, पूजा-पाठ पर पाबंदी इसकी बानगी हैं। तंबू गाड़कर एक कोने में बैठे खेम चंद किसी सवाल का जवाब नहीं देते। वीजा ना मिलने की वजह से परिवार के कुछ सदस्य अभी पाकिस्तान में रह गए हैं। खेम उन्हीं की फिक्र में डूबे हुए हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें