सोमवार, 18 नवंबर 2013

एक रानी कैसे बनी राजस्थान की 'महारानी'



नई दिल्ली। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया राजपूत इलाके में सिंधिया खानदान की बेटी यानी राजपूतानी और जाटों के असर वाले इलाके में धौलपुर जाट राजघराने की बहू यानी जाटनी और गुर्जरों के इलाके में बेटे दुष्यंत की गुर्जरों में हुई शादी की वजह से समधिन भी हैं। राजस्थान में असर रखने वाली तीन प्रमुख जातियों से ये रिश्ता वसुंधरा राजे ने 2003 में चुनाव प्रचार के वक्त बनाया था। राजपूतों से वो कहती थीं कि बेटी की लाज रखो। जाटों से कहतीं थीं कि बहू को ताज दो और गुर्जरों से कहती थीं कि समधिन चुनरी का मान रखेगी, आरक्षण का हक दिलाएगी।



2003 में राजस्थान में बीजेपी पहली बार अपने दम पर सत्ता में आई। इसे वसुंधरा राजे का ही कमाल माना गया, लेकिन कुछ वक्त पहले तक उसी बीजेपी में वसुंधरा अलग-थलग दिखाई दे रही थीं। 2009 में उन्हें नेता विपक्ष के पद से भी इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा था। 2009 में वसुंधरा के रहते पार्टी ने राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों में से महज 4 पर जीत हासिल की, इसके बाद वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ना पड़ा। उनकी मुश्किलें बढ़ने लगीं।



कैडर से बंधे आरएसएस और बीजेपी के नेताओं को वसुंधराराजे की महारानी वाले अंदाज की कार्यशैली से हमेशा शिकायत रही। पार्टी में उनकी सत्ता को चुनौती देने के लिए जयपुर में समानांतर राजनीतिक नेतृत्व उभारा जाने लगा। अप्रैल 2012 में वसुंधरा की जगह नेता प्रतिपक्ष बने गुलाब चंद कटारिया ने 28 दिन की मेवाड़ यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। माना जाता है कि कटारिया खुद को सीएम पद के दावेदार के तौर पर प्रोजेक्ट करना चाहते थे। जाहिर है ये वसुंधरा को नामंजूर था। पार्टी छोड़ने की वसुंधरा की धमकी के पीछे बीजेपी के 79 विधायकों में 56 विधायकों के समर्थन की ताकत थी। सब उनके साथ थे। ऐसा ही विधायकों ने तब भी किया था जब पार्टी ने उन्हें नेता विपक्ष के पद से हटाया था।



राजे समर्थक नेता राजेंद्र राठौड़ कहते हैं कि राजस्थान में बीजेपी वसुंधराराजे से ही शुरू होती है। राजस्थान में हर हाल में वसुंधरा का साथ देनेवाले ऐसे कट्टर समर्थकों की कमी नहीं है। 2008 के जिस चुनाव में वसुंधरा सत्ता से बाहर हुईं थीं कहते हैं उस चुनाव में टिकट बंटवारे पर उनकी तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह से ठन गई थी। वसुंधरा की पसंद के सिर्फ 90 टिकट ही बांटे गए थे। पार्टी को सिर्फ 79 सीट पर जीत मिली। वसुंधरा समर्थकों का दावा था कि इनमें 71 विधायक उनके गुट के थे। इन्हीं विधायकों की बदौलत वसुंधरा ने पार्टी में खोया हुआ रुतबा दोबारा हासिल किया।



कमाल देखिए कि आज वसुंधरा राजे को बीजेपी का सीएम उम्मीदवार बताते हुए वही राजनाथ सिंह उनकी तारीफों का पुल बांधते हैं, जिन्होंने 2009 में उन्हें नेता विपक्ष के पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था। राजनाथ सिंह कहते हैं कि हमने वसुंधराजी को इसलिए भावी सीएम के रूप में प्रोजेक्ट किया क्योंकि उन्होंने सीएम के रूप में राजस्थान को बिजली में आत्मनिर्भर बनाया। जानकार मानते हैं कि पार्टी का हृदय परिवर्तन अचानक नहीं हुआ। 2008 से अबतक पार्टी को अच्छी तरह एहसास हो गया था कि राजस्थान में वसुंधराराजे का अकेला विकल्प वो खुद ही हैं। राजनीतिक विश्लेषक राजीव गुप्ता बताते हैं कि बीजेपी के पास वसुंधराराजे का कोई विकल्प था ही नहीं।



बीजेपी में वसुंधरा राजे की मजबूत स्थिति समर्थकों की फौज से ही नहीं बनी। हालांकि 2008 में राजस्थान की जनता ने उनमें दोबारा भरोसा नहीं दिखाया, लेकिन इसमें शक नहीं है कि वो आम लोगों के बीच खासी लोकप्रिय हैं। ये लोकप्रियता ही उनकी ताकत का आधार तैयार करती है, जिसके बीज बतौर मुख्यमंत्री वसुंधरा के पांच साल के शासन काल में पड़े। पांच साल में बेहतर शासन की वजह से बनी वसुंधरा की लोकप्रियता का आलम ये है कि नरेंद्र मोदी और बीजेपी से परहेज करने वाला मेव अल्पसंख्यक समुदाय भी आज वसुंधराराजे के समर्थन में रैलियों में पहुंच रहा है। अल्पसंख्यक नेता पीर मोहम्मद मानते हैं कि वसुंधराराजे ने अच्छी सरकार चलाई है, अच्छा राज चलाया है। वहीं नवाजुद्दीन कहते हैं कि वसुंधराराजे ने गरीबों के लिए काम किया।



इस लोकप्रियता की वजह चुनावी वादे को पूरा करने में मिली कामयाबी है। दरअसल, 2003 में वसुंधरा ने मुख्यमंत्री बनते ही शासन के परंपरागत तरीके को बदल दिया। पहले खुद के लिए किसी कॉरपोरेट कंपनी के दफ्तर की तरह नया सीएमओ बनवाया। सचिवालय की अंदर और बाहर की तस्वीर बदल दी। फाइलों में उलझे अफसरों को लैपटॉप और काम पूरा करने का टारगेट थमा दिया। अफसरो को प्रेजेंटेशन देने पड़ रहे थे। लालफीताशाही को भूल कर सरकारी कर्मचारी काम में डूबे दिखने लगे, दूसरी तरफ काम की गुणवत्ता में सुधार के लिए उन्होंने सप्ताह में पांच दिन काम करने की कार्य संस्कृति भी शुरू की।



पूर्व आईएएस आर एस गठाला कहते हैं कि वसुंधराराजे हार्ड वर्किंग तो शुरू से हैं। मैं जब कलेक्टर था तब देखा कि किस तरह आम आदमी की समस्याओं को लेकर वह सीरियस थीं। खुद वसुंधराराजे ने सरकार की ब्रांडिग शुरू की। कभी सरकारी डेयरी के दूध की ब्रांडिग के लिए विज्ञापन करती नजर आई तो कभी कोटा में बुनकरों की कोटा डोरिया साड़ी की ब्रांडिग के लिए कैटवॉक किया। डिजायनरों को काम सौंपा। साड़ी ब्रांड बन गई। खेलों को बढ़ावा देने, निशानेबाजी को प्रमोट करने के लिए खुद शूटिंग रेंज में निशाना लगाते दिखीं तो कभी टेनिस कोर्ट में टेनिस खेलते। पानी को तरसते राजस्थान में स्पेशल इकोनोमिक जोन बनने लगे, तरक्की का रास्ता दिखने लगा। छात्रों और महिलाओं से लेकर हर तबके में उनकी लोकप्रियता मजबूत हो गईं।



जानकार मानते हैं कि वसुंधरा के शासन करने के अंदाज में एक दूरंदेशी दिखती थी, लेकिन इस दूरंदेशी में पास वाली नजर खराब होने का इशारा देने वाले तमाम विवादों का सिलसिला भी मिलता है। वसुंधरा राज के एक साल बीतने के बाद ही अगले चार साल में पुलिस को 16 बार गोली चलानी पड़ी। पूर्व आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी के लिए दिखाई गई कथित दरियादिली ने भी विरोधियों को उनपर निशाना साधने का मौका दिया।



वसुंधरा राज में पानी को लेकर हुए किसान आंदोलन और आरक्षण की मांग को लेकर हुए गुर्जर आंदोलनों ने भी उनकी छवि पर दाग लगाया। दोनों आंदोलनों को काबू में करने के लिए पुलिस को गोलियां दागनी पड़ी। इसके बावजूद ये महारानी के राजनीतिक कौशल का ही कमाल था कि गुर्जर आंदोलन छेड़ने वाले नेता किरोड़ी सिंह बैंसला खुद बीजेपी में शामिल हो गए। बीजेपी नेता कैलाशनाथ भट्ट का दावा है कि वसुंधरा राजे का लोगों से जीवंत संपर्क है।



मौजूदा प्रचार के दौरान वसुंधरा की रैलियों में जिस तरह से भीड़ जुट रही है, उससे सत्ताधारी कांग्रेस की पेशानी पर बल पड़ गया है। लिहाजा, वसुंधरा राज में लोकप्रिय हुए एक जुमले 8 पीएम, नो सीएमके बहाने कांग्रेस वसुंधरा पर अपने कार्यकाल में शराब संस्कृति को बढ़ावा देने का आरोप लगा रही है। पुराने आरोपों की भी याद दिलाई जा रही है। सीएम अशोक गहलोत कहते हैं कि आठ करोड़ के कारपेट कहां गए। बीकानेर हाउस राजस्थान के मैनेजर ने कारपेट नहीं दिया तो उसे एपीओ कर दिया।



सत्ता और सियासत को बचपन से ही देखने वाली महारानी पार्टी में अपनी ताकत साबित कर चुकी हैं, लेकिन सच ये भी है कि राजस्थान में समूचे प्रदेश में असर रखने वाले केवल दो ही नेता हैं वसुंधरा राजे और गहलोत। वसुंधरा के सामने चुनौती गहलोत के उस चक्रव्यूह को तोड़ने की है जिसे उन्होंने पिछले एक साल में रचा है।



बीते एक साल में अशोक गहलोत ने मुफ्त दवा, मुफ्त जांच योजना, पेंशन और स्कॉलरशिप जैसी कई जनकल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं। रिफाइनरी और मेट्रो रेल जैसी परियोजना से उन्होंने विकास का सपना ही नहीं दिखाया बल्कि उसका प्रचार प्रसार भी किया। दिलचस्प ये है कि वसुंधरा भी अपने कार्यकाल में हुए विकास की ताकत से ही वापसी की उम्मीद देख रही हैं, किसका विकास बेहतर था अब ये फैसला जनता को करना है।



राजस्थान की राजनीति में आधी सदी तक छाए रहे भैरोसिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बनने के साथ राजस्थान बीजेपी में वसुंधरा राजे की उदय का कहानी शुरू होती है। बात 2002 की है, जब शेखावत के जाने से बनने वाली खाली जगह भरने के लिए ललित किशोर चतुर्वेदी, गुलाबचंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी जैसे दिग्गजों में होड़ लगी थी। कहते हैं कि इस मौके पर शेखावत ने झालावाड़ से सांसद और विजयराजे सिंधिया की बेटी वसुंधरा राजे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने और उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने की सलाह दी। बीजेपी ने राजे को भावी सीएम प्रोजक्ट कर राजस्थान भेज तो दिया, लेकिन हालात अनुकूल नहीं थे। बीजेपी खेमेबाजी में बंटी थी। प्रदेश की राजनीति जतियों के मकड़जाल में उलझी थी।



वसुंधरा राजे उस वक्त वाजपेयी सरकार में मंत्री थीं, वो अनमने मन से ही जयपुर आईं। बिड़ला प्लेनेटोरियम में हुए एक भव्य समारोह में प्रदेश अध्यक्ष का ताज उनके सिर पर रखा गया। आडवाणी के कहने पर वसुंधरा ने राजसमंद जिले के चारभुजा माता के मंदिर से परिवर्तन यात्रा शुरू की, लेकिन सत्ताधारी कांग्रेस को वो खतरा नहीं लगती थीं। वो परिवर्तन यात्रा को पर्यटन यात्रा कहते थे तो खुद बीजेपी में भी संशय का माहौल था।



राजनीतिक विश्लेषक राजीव गुप्ता कहते हैं कि सीनियर नेताओं को ये भरोसा नहीं था कि वे इतना बड़ा बहुमत हासिल कर पाएंगी। परिवर्तन यात्रा का रथ जिधर गया, महारानी को देखने और सुनने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ा, वसुंधरा खुद को राजपूताने की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन बताने में ही कामयाब नहीं हुईं, बल्कि आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को भी रिझाने लगीं। उन्होंने आदिवासियों जैसी वेशभूषा पहनकर आदिवासी महिलाओं के साथ मंच पर थिरकने से भी परेहज नहीं किया। इसी वजह से 2003 में वसुंधराराजे 200 में से 120 सीटें जीतने में कामयाब रही और सूबे में सबसे अधिक जनाधार वाली लोकप्रिय नेता बन गई। अपनी बात को शेरो-शायरी में कहने की शैली ने भी वसुंधरा की बाकी नेताओं से अलग पहचान बनाई।



वसुंधरा ने सिर्फ महिलाओं के लिए काम ही नहीं किया बल्कि कॉलेज में छात्राओं के बीच ठुमके लगाने से भी परहेज नहीं किया। इसके बावजूद वसुंधरा ने राजसी खानदान की बेटी और बहू की गरिमा और नफासत को बनाए रखा। कलाई पर खास ब्रांड की घड़ी, खास ब्रांड का सनग्लास, हाथों में कड़े, नाक में अलग आकार की नोज पिन, हरे और पीले रंग की लकी साड़ियां। इस छवि ने उन्हें महिलाओं के बीच ही नहीं युवाओं के बीच भी स्टाइल आईकन बनाया है।युवा सूरज सैनी का कहना है कि पार्टी संगठन हो या सरकार हर जगह वसुंधरा राजे ने युवाओं को बढ़ावा दिया। इसी वजह से ये युवा हमेशा उनके फैन रहे हैं। छात्रा निमिशा कहती हैं कि वे छात्राओं के लिए तो स्टाइल आईकन हैं।



2003 के चुनाव में सफलता और उसके बाद बनी लोकप्रियता ने वसुंधरा के बाहरी होने के विरोधियों की दलीलों की भी हवा निकाल दी। बेशक वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान में बहू बन कर आईं थीं लेकिन इसमें शक नहीं है कि वो बेटी से बढ़ कर साबित हुई हैं।



अतीत में जाएं तो वसुंधरा राजे का जन्म ऐसे परिवार में हुआ, जहां खुद बीजेपी का लालन-पालन हुआ। 08 मार्च, 1953 में वसुंधरा का जन्म मुंबई में ग्वालियर के सिंधिया घराने में हुआ। उनकी मां राजमाता विजयराजे सिंधिया बीजेपी के संस्थापकों में से एक थीं। दरअसल, सिंधिया घराना कांग्रेस समर्थक था, लेकिन आपातकाल की आलोचना करने के लिए विजययराजे सिंधिया को जेल में डाल दिया गया था। इसके बाद सिंधिया कांग्रेस से अलग हो गईं। बीजेपी के गठन में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई। लिहाजा, वसुंधरा ने स्कूली शिक्षा भले ही तमिलनाडु के कोडाईनाल में पूरी की। कॉलेज की पढ़ाई भले ही मुंबई की सोफिया कॉलेज की, लेकिन राजनीतिक शिक्षा की पहली पाठशाला उनकी मां का ग्वालियर का महल ही था।



वसुंधरा की बहन यशोधराराजे सिंधिया कहती हैं कि ग्वालियर के बाद उनका राजस्थान से नाता जुड़ा। 1972 में जब वसुंधरा राजे सोफिया कॉलेज में पढ़ ही रही थीं तभी उनकी शादी धौलपुर के जाट राजपरिवार के हेमंत सिंह के साथ हो गई। शादी भले ही ज्यादा नहीं चल पाई, लेकिन 1985 में धौलपुर से ही वे पहली बार बीजेपी से विधायक चुनी गईं। 1989 में लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने धौलपुर के बजाय झालावाड़ को चुना, जो मध्यप्रदेश में उनकी मां विजयराजे सिंधिया के गुना संसदीय क्षेत्र के पड़ोस में था। धौलपुर की महारानी ने झालवाड़ की जनता के दिल में ऐसी जगह बनाई की लगातार पांच बार इस क्षेत्र से सांसद रही। बीजेपी वरिष्ठ नेता ओंकारसिंह लखावत कहते हैं कि वसुंधराराजे उस राजमाता विजयाराजे सिंधिया की बेटी हैं, उस परिवार के संस्कार हैं।



वसुंधरा राजे की इस कामयाबी के पीछे उनके वो समर्थक हैं जो ठोस वोटबैंक की तरह बर्ताव करते हैं। इस वोटबैंक को तैयार करने में जहां हर तबके, हर मजहब के लोगों से एक जैसा बर्ताव करने की वसुंधरा की आदत है। जाति और मजहब से अलग लोगों को उनके पेशे के आधार पर पार्टी से जोड़ने की रणनीति ने भी वसुंधरा को लोकप्रिय बनाया है। डॉ पीयूष त्रिवेदी कहते हैं कि वसुंधराराजे ने चिकित्सा के सभी पेशों को एक छत के नीचे लाने का काम किया, जिससे डॉक्टरों में उनकी इज्जत बढ़ी। वसुंधराराजे के पूर्व एडवाइजर ब्रजेश शर्मा बताते हैं कि वे फैसला लेने के बाद कभी पीछे नहीं हटती, चाहे कुछ हो भी जाए।



बेशक वसुंधरा राजे सिंधिया में शाही अंदाज और कामयाब लोगों में दिखने वाली एक जिद है, लेकिन ये जिद क्या उन्हें फिर सफलता दिला पाएगी। जवाब का इंतजार उन्हें भी है जो वसुंधरा के समर्थक हैं, और उन्हें भी जो उनके विरोधी।

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