गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

बेटी की नहीं यहां "मां" की उठती हैं "डोली"

मुंगेर। शारदीय नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा-आराधना के बाद दशमी तिथि (दशहरा) के दिन मां की विदाई की परंपरा है। आमतौर पर प्रतिमाओं के विसर्जन में ट्रक, ट्राली और ठेलों का प्रयोग होता है, परंतु बिहार के मुंगेर जिले में बड़ी दुर्गा मां मंदिर की प्रतिमा के विसर्जन के लिए न तो ट्रक की जरूरत पड़ती है और न ही ट्राली की। यहां मां की विदाई के लिए 32 लोगों के कंधों की जरूरत होती है, और ये सभी कहार जाति के होते हैं।
मुंगेर में इस अनोखे दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। बुजुर्ग लोगों का कहना है कि यह परंपरा यहां काफी समय से चली आ रही है और इस परंपरा का निर्वहन वर्तमान में भी हो रहा है।

स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि पुराने जमाने में जब वाहनों का प्रचलन नहीं था तब लोग बेटियों की विदाई डोली पर ही किया करते थे, जिसे उठाने वाले कहार जाति के लोग ही होते थे। संभवत: इसी कारण यहां दुर्गा मां की विदाई के लिए इस तरीके को अपनाया गया होगा, जो अब यहां परंपरा बन गई है। मां की प्रतिमा के विसर्जन की तैयारी यहां काफी पहले से शुरू हो जाती है।
मुंगेर बड़ी दुर्गा स्थान समिति के सदस्य आलोक कुमार कहते हैं कि यहां प्रतिवर्ष दुर्गा पूजा के बाद प्रतिमा विसर्जन तब होता है, जब 32 कहार इनकी विदाई के लिए यहां उपस्थित हों। वह कहते हैं कि इसके लिए कहार जाति के लोगों को पहले से निमंत्रण दे दिया जाता है। वह बताते हैं कि इनकी संख्या का खास ख्याल रखा जाता है कि वे 32 से न ज्यादा हों और न कम।

मुंगेर के वरिष्ठ पत्रकार अरूण कुमार ने आईएएनएस को बताया कि जनश्रुतियों के मुताबिक कुछ साल पहले पूजा समिति के लोग प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लेकर आए थे, लेकिन प्रतिमा लाख कोशिशों के बाद भी अपने स्थान से नहीं हिली। लिहाजा, अब कोई भी व्यक्ति दुर्गा मां की प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लाने के विषय में नहीं सोचता। विसर्जन के दौरान लाखों लोग यहां इकटे होते हैं और मां के जयकारे से पूरा शहर गंुजायमान रहता है।

समिति के सदस्यों के मुताबिक विसर्जन से पूर्व यहां प्रतिमा को पूरे शहर में भ्रमण करवाया जाता है। इस दौरान चौक-चौराहों पर प्रतिमा की विधिवत पूजा-अर्चना भी होती है। दुर्गा प्रतिमा के आगे-आगे अखाड़ा पार्टी के कलाकार चलते हैं, जो ढोल और नगाड़े की थाप पर तरह-तरह की कलाबाजियां दिखाते रहते हैं। इसके बाद प्रतिमा गंगा घाट पहुंचती है, जहां उसे विसर्जित कर मां को विदाई दी जाती है।

विदाई यात्रा के दौरान बीच-बीच में मां के भक्त डोली को कंधा देकर अपने को धन्य समझते हैं। दुर्गा मां की विदाई के समय भक्तों की आंखें नम रहती हैं, परंतु उन्हें यह उम्मीद भी होती है कि दुर्गा मां अगले साल फिर आएंगी और लोगों के दुख हरेंगी। कहार जाति के लोग भी मां दुर्गा की डोली उठाने में खुद को धन्य समझते हैं।

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