कहां गए तीज में पड़ने वाले सावन के झूले
सावन के झूले ने मुझको बुलाया, ं मैं परदेशी घर वापस आया, सखी रे सावन आयो, झूले पड़ गयो, सखी रे सावन आयो..
एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और मल्टीस्टोरी बिल्डिंगों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं।
अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परंपरा अभी निभाई जा रही है। साथ ही क्लबों की सावन थीम पार्टियो में सावन गीतों का मजा लेने के साथ ही प्रतीक रूप में फूलों से सजा संवरा झूला आपको दिख जाएगा।
मंदिरों में लगे पेड़ों पर भगवान कृष्ण को झूला झुलाने की परंपरा थी, लेकिन अब यह रस्म मंदिरों में फूलों का पालना बनाकर निभाई जाती है।
अब यह परंपरा वृन्दावन के बांके बिहारी मंदिर में अभी भी मनाई जाती है। हरियाली तीज पर देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु ठा. बांके बिहारीजी महाराज के हिंडोला दर्शन को आयेंगे। एकादशी के दिन बिरहाना रोड स्थित राधा कृष्ण मंदिर, कमला नगर स्थित द्वारकाधीश मंदिर, जेके मंदिर, सनातन धर्म मंदिर, बिठूर के राधा माधव मंदिर में यह परंपरा धूमधाम से मनाई जाती है। चंदन का है पालना, रेशम की है डोर, झूला झूलें नटवर नंद किशोर का गान किया जाता है।
सावन के झूले की परंपरा को शहर के कुछ क्लब भी जीवित रखे हैं। सावन आने पर सावन थीम पार्टी में फूलों से सजे झूले लगाए जाते हैं। इतनी जगह तो होती नहीं कि कई झूले लगा सकें। इसलिए एक-दो झूले लगाकर सावन के गीतों पर मौज मस्ती करते हैं। यही माध्यम बचा है सावन की रस्म निभाने का।
पहले की महिलाएं सावन आते ही बड़े पेड़ पर रस्सियों की सहायता से झूला डालकर दिनभर झूलती थी। शाम ढलने पर महिलाओं की टोलियां पारंपरिक सावनी गीत गाते हुये झूला झूलने के लिए निकलती थीं। शादी के बाद पहले सावन में नवविवाहिता का मायके आकर सावनी गीतों पर झूला झूलना शगुन माना जाता था।
पेड़ों की संख्या दिनों दिन कम होने से झूले डालने की जगह नहीं बची है। बदलते वक्त के साथ झूलों का डिजाइन भी बदल गया है। आजकल आपको सड़कों के किनारे नायलॉन के झूले बिकते दिख जाएंगे। 40 रुपये से 60 रुपये में मिलने वाले यह झूले कम से कम आपको अपनी परंपरा के नजदीक पहुंचने का मौका तो देते ही हैं। इन्हे घर में डालकर छोटे बच्चों को तो फुसलाया ही जा
एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और मल्टीस्टोरी बिल्डिंगों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं।
अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परंपरा अभी निभाई जा रही है। साथ ही क्लबों की सावन थीम पार्टियो में सावन गीतों का मजा लेने के साथ ही प्रतीक रूप में फूलों से सजा संवरा झूला आपको दिख जाएगा।
मंदिरों में लगे पेड़ों पर भगवान कृष्ण को झूला झुलाने की परंपरा थी, लेकिन अब यह रस्म मंदिरों में फूलों का पालना बनाकर निभाई जाती है।
अब यह परंपरा वृन्दावन के बांके बिहारी मंदिर में अभी भी मनाई जाती है। हरियाली तीज पर देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु ठा. बांके बिहारीजी महाराज के हिंडोला दर्शन को आयेंगे। एकादशी के दिन बिरहाना रोड स्थित राधा कृष्ण मंदिर, कमला नगर स्थित द्वारकाधीश मंदिर, जेके मंदिर, सनातन धर्म मंदिर, बिठूर के राधा माधव मंदिर में यह परंपरा धूमधाम से मनाई जाती है। चंदन का है पालना, रेशम की है डोर, झूला झूलें नटवर नंद किशोर का गान किया जाता है।
सावन के झूले की परंपरा को शहर के कुछ क्लब भी जीवित रखे हैं। सावन आने पर सावन थीम पार्टी में फूलों से सजे झूले लगाए जाते हैं। इतनी जगह तो होती नहीं कि कई झूले लगा सकें। इसलिए एक-दो झूले लगाकर सावन के गीतों पर मौज मस्ती करते हैं। यही माध्यम बचा है सावन की रस्म निभाने का।
पहले की महिलाएं सावन आते ही बड़े पेड़ पर रस्सियों की सहायता से झूला डालकर दिनभर झूलती थी। शाम ढलने पर महिलाओं की टोलियां पारंपरिक सावनी गीत गाते हुये झूला झूलने के लिए निकलती थीं। शादी के बाद पहले सावन में नवविवाहिता का मायके आकर सावनी गीतों पर झूला झूलना शगुन माना जाता था।
पेड़ों की संख्या दिनों दिन कम होने से झूले डालने की जगह नहीं बची है। बदलते वक्त के साथ झूलों का डिजाइन भी बदल गया है। आजकल आपको सड़कों के किनारे नायलॉन के झूले बिकते दिख जाएंगे। 40 रुपये से 60 रुपये में मिलने वाले यह झूले कम से कम आपको अपनी परंपरा के नजदीक पहुंचने का मौका तो देते ही हैं। इन्हे घर में डालकर छोटे बच्चों को तो फुसलाया ही जा
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