शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

रोचक कथाओं से जुड़ा है ऎतिहासिक गाँव साण्डा,


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रेतीली धरती गुनगुनाती है कई मनोहारी मिथक

 रोचक कथाओं से जुड़ा है ऎतिहासिक गाँव साण्डा, 


रेगिस्तानी धरती का पर्याय जैसलमेर भले ही सीमावर्ती होने की वजह से देश के मुख्य भू-भागों से दूर है, मगर यहाँ की सरजमीं सदियों पुरानी रोचक गाथाओं, शौर्य-पराक्रम भरे इतिहास, विलक्षण परम्पराओं, अनूठे कला-संस्कृति व साहित्य के साथ ही ढेरों ख़ासियतों की वजह से खासा आकर्षण जगाती है। इस दिव्य धरा के बारे में वही अनुभव पा सकता है जो यहाँ रहता है अथवा विहार का सौभाग्य पा लेता है। सुदूरवर्ती होने की वजह से अंतरंग व रेत के टीबों के बीच बसे हुए कई गाँव ऎसे हैं जिनमें लोक जीवन से लेकर परिवेश तक खूब खासियतें विद्यमान हैं जिनकी जानकारी पश्चिमी राजस्थान के लोगों को भी नहीं हैं। प्राचीन रहस्य की अनसुनी व अनदेखी परतों के बीच आज भी समायी हैं असंख्य रोचक परम्पराएँ ओर मजेदार एवं प्रेरक इतिहास गाथाए।

कई मिथकों से जुड़ा है रेत में बसा सांडा



इसी तरह का एक गाँव है सांडा। जैसलमेर जिले की फतेहगढ़ तहसील के अंतर्गत डांगरी ग्राम पंचायत का यह गाँव जिला मुख्यालय से 75 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। चारों तरफ पसरी रेतीली धरती पर साण्डा गाँव कई ऎतिहासिक व सामाजिक मिथकों से जुड़ा हुआ है। साण्डा नामक पालीवाल द्वारा बसाये जाने की वजह से इस गांव को साण्डा कहा जाता है। यहां उस जमाने में पालीवालों की समृद्ध बस्तियां थीं लेकिन एक ही दिन में पलायन करने की वजह से यह पूरा क्षेत्र वीरान हो गया।


पालीवाल सभ्यता का दिग्दर्शन



कई शताब्दियों पुराना यह गाँव पालीवाल सभ्यता का भी प्रतीक है, जहाँ आज भी पालीवाल संस्कृति व लोकजीवन के अवशेष नज़र आते हैं। इस गाव में पालीवालों का अब एक मात्र मूल मकान पूरी तरह जर्जर अवस्था में पड़ा हुआ तत्कालीन भवन निर्माण व बस्तियों के शिल्प को दर्शाता है। यह मकान मूलतः भंवरलाल पुरोहित का बताया जाता है जो कि अब जैसलमेर शहर आकर बस गए हैं। इस प्राचीन मकान का वास्तु, कक्ष, स्तंभ आदि देखने लायक हैं। यहीं पास में पालीवालों के समय की कई छतरियाँ हैं, जो उस युग की याद दिलाती हैं। यहाँ के श्रृद्धास्थलों में भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर है जिसमें शताब्दियों पुराने भगवान श्रीकृष्ण और राधा की सुंदर मूर्तियाँ भी हैं।


रहस्यमय नक्शा



यहाँ चारणों की पोल के बाहर की दीवार पर चक्रव्यूह का मानचित्र है जिसे गांव वाले लंका का कोट कहते हैं और मानते हैं कि इस नक्शे में कोई न कोई रहस्य छिपा हुआ जरूर है। कोई-कोई इसे अभिमन्यु के चक्रव्यूह का मानचित्र बताते हैं।


प्राचीन समाधि देती है संरक्षण



इसके समीप ही स्वामी हरिदत्तपुरी की लगभग एक हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी जीवित समाधि है जो जाल पेड़ से घिरी हुई है। सिद्ध एवं चमत्कारिक योगी हरिदत्तपुरी महाराज के प्रति खूब जनश्रृद्धा है। इन्हें हरदासपुरी भी कहा जाता है। इस जाल के बारे में कहा जाता है कि हरिदत्तपुरी महाराज ने दातुन करने के बाद जो टहनी फेंक दी, उसी ने बाद में जाल वृक्ष का स्वरूप धारण कर लिया।


जाल रहेगी, तब तक दिव्यता


उन्होंने समाधि लेते समय यह वचन दिया था कि जब तक जाल का पेड़ यहाँ रहेगा तब तक वे दिव्य रूप में वहीं रहेंगे। आज भी ग्रामीणों व मवेशियों में बीमारी हो जाएँ अथवा कोई मनोकामना हो, स्वामी हरिदत्तपुरी का नाम लेते ही सब कम हो जाने की मान्यता है। गुरु पूर्णिमा को यहाँ पर मेला व जागरण होता है। पालीवालों के यहाँ से सामूहिक पलायन करने के बाद तत्कालीन जैसलमेर रियासत ने यहाँ की जागीर चारणों को बख्श दी। इसके बाद से यह चारणों का गाँव हो गया। बारठका गाँव में जाकर बस गए चारण मूल रूप से साण्डा गाँव के ही बताए जाते हैं।


जूझार लालसिंह को मानते हैं संरक्षक



साण्डा गांव में स्थापित जूझार लालसिंह (लालजी रतनू ) की छतरी न केवल चारण जाति बल्कि आस-पास के गाँव वालों के लिए भी श्रृद्धा केन्द्र है। चारण लोग इन्हें अपना संरक्षक तथा पितृ पुरुष मानकर बड़े ही श्रृद्धाभाव के साथ पूजते हैं। इस छतरी में स्वयं लालजी रतनू की मूर्ति हैं तथा पास में ही उनके अंगरक्षक संग्रामसिंह कसावा की मूर्ति भी स्थापित है। ऎतिहासिक लोक कथाओं के अनुसार 700 वर्ष पूर्व रियासतों की पारम्परिक लड़ाई में बाड़मेर जिले के राजडाल गाँव में लालजी रतनू शहीद हो गए। उनका अंगरक्षक भी साथ में मारा गया। उनकी स्मृति में ही साण्डा गाँव में मूर्तियाँ स्थापित की गई। लालजी रतनू की स्मृति में एक छोटा सा स्थान राजडाल गाँव में भी है। लालजी रतनू की छतरी ग्रामीणों की परम्परागत आस्था का बड़ा भारी केन्द्र है। ग्रामीण उन्हें अपने संरक्षक के रूप में पूजते हैं।


हर माह होती है मासिक पूजा


हर माह कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को यहाँ मासिक अनुष्ठान होता है। क्षेत्र भर के रतनू परिवारजन यहाँ आकर धूप-दीप एवं नैवेद्य करते हैं, नारियल की चटखें चढ़ाते हैं और मिश्री का प्रसाद बाँटते हैं। लोक मान्यता है कि जूझार लालजी रतनू साँप-बिच्छुओं व शत्रुओं के भय से मुक्ति देते हैं तथा किसी भी प्रकार की आधि, व्याधि व उपाधि से बचाकर हर प्रकार से संरक्षण प्रदान करते हैं।


अधिकार बख्शे हुए थे लालजी को


लाल जी रतनू अपने जमाने के प्रभावशाली ठाकुर थे जिन्हें रियासत की ओर से यह अधिकार प्राप्त था कि वे किसी भी दोषी को छह माह तक जेल की सजा दे सकते थे। इसे राजाज्ञा के बराबर ही माना जाता था। सांडा गांव में प्राचीन हस्तशिल्प भी देखने लायक है। खान-पान की सामग्री व सुरक्षित संधारण के लिए गाव में प्राचीनकालीन कठातरा का प्रयोग आज भी कई घरों में होता दिखाई देता है। यह काष्ठ का बनी कलापूर्ण मंजूषा है जो हर दृष्टि से सुरक्षित है।


धोलकी नाड़ी


गांव के बाहर धोलासर अथवा धोलकी नामक नाड़ी है जिसे सफेद मिट्टी वाली होने के कारण धोलकी नाम दिया गया है। इसमें बरसात के बाद छह-सात माह तक पानी उपलब्ध रहता है। इस नाड़ी में चूने की तरह सफेद मिट्टी निकलती है जिसे घरों में पोतने के लिए उपयोग में लाया जाता है। लोक विश्वास है कि इस धोलासर नाड़ी में धरती माता के पग हैं। इस गाँव में कई कलात्मक चँवरे बने हुए जो बैठक के लिए उपयुक्त हैं। ख़ासकर गाँव में बाहर से आने वाले मेहमानों को ये चँवरे खूब सुहाते हैं। इनमें एक बड़ा चँवरा है - विजयदान का चंवरा। इसे जाटों ने बनाया है। यह किसानों के लिए बैठक के काम आता है। इसी प्रकार का एक चँवरा रमेश चारण के घर भी बना हुआ है। सांडा गांव कई विशेषताओं को लिए हुए है। यहां की मनोहारी परंपराएं और ऎतिहासिक गाथाओं के साथ ही इतिहास से जुड़े स्थलों की जानकारी अभिभूत कर देने वाली है।

---डॉ. दीपक आचार्य---
जिला सूचना एवं जन सम्पर्क अधिकारी

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