साहस, संघर्ष और फतह की दास्तां
मुझे याद है वो बर्फीली दोपहर! एक्सपिडिशन का 59वां दिन। समुद्र तल से 7,290 मीटर की ऊंचाई, कैंप 4 और एक किलोमीटर की दूरी पर एवरेस्ट। यकायक बर्फीली हवाएं चीखने लगीं। जैसे, नीली बर्फ पर पड़ रहे हमारे कदमों पर उन्हें एतराज हो। मौसम ने रुख बदला और बंद हो गए पर्वतों के घर के सारे दरवाजे। लौटने के अलावा हमारे पास दूसरा चारा नहीं था। मेरी आंखों के सामने अब तक के सफर की सारी मेहनत और कठिनाइयों का मंजर तैर रहा था।
सख्त ट्रेनिंग और प्लांड डाइट
अप्रैल 2011 में शुरू हुआ साल भर चलने वाला सख्त ट्रेनिंग का दौर। रोजाना 10 किलोमीटर की दौड़, रात में एक बजे उठकर 20 किलो वजन उठाकर लोड रनिंग और प्लांड डाइट के साथ मसल बिल्डिंग। शारीरिक परिश्रम के साथ आने वाली मानसिक चुनौतियों का सामना करने के लिए ट्रेनिंग के तहत पर्वतारोहण से संबंधित किताबें और डॉक्यूमेंट्री। सैटेलाइट फोन और बैटरी का रख-रखाव सीखा, लकड़ी के स्ट्रेचर बनाना, इंजेक्शन लगाना और नेपाली भाषा की तालीम। साल भर की लंबी और सख्त ट्रेनिंग में यह सब शामिल था।
शुरुआत अध्यात्म के साथ
1905 मीटर की ऊंचाई पर स्थित जीरी गांव से शुरू हुआ एक्सपिडिशन। 24वें दिन हम 5364.48 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बेस कैंप जा पहुंचे। पर्वतारोहियों की सलामती के लिए किसी भी चढ़ाई की शुरुआत पूजा से की जाती है। बुद्धिस्ट शेरपा ने हमारे इक्विपमेंट्स की पूजा की और फिर हमें आगे बढ़ने की इजाजत दी। आगे बढ़ते-बढ़ते हमें एवरेस्ट को ढंकते हुए वह पहाड़ी दिखाई दे रही थी जिसे वहां के बाशिंदे सागर माथा के नाम से पुकारते हैं। क्या सागर माथा हमारी पूजा स्वीकार करेंगी?
मनोबल गिरा रहे थे पहाड़ों के तेवर
चढ़ाई के 30वें दिन हम सबसे खतरनाक, 10 मीटर लंबे और 500 मीटर गहरे ग्लेशियर ‘खुंबु’ के सामने जा पहुंचे। 6,065 मीटर की ऊंचाई पर बर्फ के गहरे गड्ढे में गिरकर एक शेरपा की मौत हो गई। पर्वतों पर गलत कदम का मतलब है -जिंदगी को अलविदा कहना। आगे बढ़ते ही बर्फ का तूफान (एवलांच) हमारा इंतजार कर रहा था।
हमें बेस कैंप लौटना पड़ा। तूफानी हवाओं से टेंट तबाह हो चुके थे। 37वें दिन हम 6,500 मीटर की ऊंचाई पर कैंप 2 पहुंचे। इस बीच तीन महिला क्लाइंबर्स की तबीयत बहुत बिगड़ चुकी थी। उन्हें वापस बेस कैंप भेज दिया गया। पूरी टीम के लिए वह वक्त मानसिक तनाव का था। यकायक टीम लीडर कर्नल कोठियाल की तबीयत बिगड़ी और उन्हें खून की उल्टियां होने लगीं। बेस कैंप लौटना हमारी मजबूरी बन चुका था।
मंजिल आंखों के सामने थी और नहीं भी
लगभग दो महीने तक कुदरत से जूझते हुए 59वें दिन हम कैंप 4 पर 7,920 मीटर की ऊंचाई तक दस्तक दे चुके थे। डेथ जोन में 1/3 ऑक्सीजन और माइनस 40 डिग्री तापमान में जूते तक गल रहे थे। सिर्फ एक किलोमीटर की दूरी पर एवरेस्ट! अचानक मौसम ने करवट ली और हर तरफ धुंध छा गई। वहां एक पल भी और रुकने का मतलब था मृत्यु को बुलावा। मंजिल के बेहद करीब होने के बावजूद कैंप 3 लौटना पड़ा। हमें जिंदा रहना था।
जब पहाड़ों ने दी आवाज
कैंप 3 में 6 दिन के लंबे इंतजार के बाद एक दिन कर्नल कोठियाल को वेदर विंडो के साफ होने के संकेत मिले। 65वें दिन कैंप 4, साउथ कॉल से रात 8 बजे हमने एक बार फिर चढ़ाई शुरू की। 26 मई, 2012 की सुबह। समय 05:43 बजे। हमने अपनी आंखों के सामने एक अद्भुत नजारा देखा। पहाड़ की छाती पर सोने की लकीर जैसी सूरज की किरणों पड़ रही हैं। हम 8,848 मीटर की ऊंचाई पर हैं। क्या यह स्वप्न है? हम सबने वो कर दिखाया है, जिसे पाने के लिए हमने अपनी जान की बाजी लगा दी। सबकी आंखों में खुशी के मोती और हाथों में तिरंगा। आखिरकार सागर माथा ने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली। हम विश्व की सबसे ऊंची चोटी फतह कर चुके हैं!
मिशन
एवरेस्ट : इंडियन आर्मी वुमेंस एक्सपिडिशन
इंडियन आर्मी की ओर से पहली बार महिला अधिकारियों की माउंट एवरेस्ट फतह करने की पहल
शुरुआत
22 मार्च, 2012
समापन - 26 मई, 2012
टीम के सदस्य
मेजर नेहा और कैप्टन दीपिका के साथ कर्नल अजय कोठियाल, मेजर आर.एस जामवाल, एन.लीनियू, कैप्टन नम्रता राठौड़, प्राची.आर.गोले, पूनम सांगवान, स्मिता और असिस्टेंस टीम में 10 पुरुष ।
मैदान-ए-जंग में हैं और भी शहसवार
अप्रैल 2013, में जयपुर में पली-बढ़ी, 19 वर्षीय साची सोनी एवरेस्ट एक्सपिडिशन पर जा रही हैं। पहली बार कोई भारतीय स्टूडेंट एवरेस्ट तक जाएगा।
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