मारवाड़ियों का बेजोड़ रुप लावण्य एवं व्यक्तित्व
किसी भी समाज के व्यक्तित्व का विश्लेषण करने में उसके रुप-रंग और शारीरिक बनावट का विशेष महत्व होता है क्योंकि चरित्र अथवा व्यक्तित्व का आधार मात्र यह मानव शरीर ही है। प्रकृति ने मारवाड़ियों को सुन्दर, चित्ताकर्षक देह व रंग-रुप प्रदान किया है। रुप के पारखी यह भली-भांति जानते हैं कि भारतवर्ष में रुप-रंग व शारीरिक सुडौलता की दृष्टि से सुंदर लोग सौराष्ट्र से लेकर कश्मीर तक विशेष रुप से मिलेंगे पर उनमें भी मारवाड़ के लोगों का रुप तो सुन्दरतम कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मारवाड़ी पुरुष औसत मध्यम कद वाली होते हैं। उनका गेहुँवा अथवा लाल मिश्रित पीत वर्ण रुप-लावण्य का प्रतीक है। फिर उनके श्याम कुन्तल बाल, गोल शिर, मृगनयन, शुक-नासिका, मुक्ता सदृश्य दंत, छोटी मुँह-फाड़ व ओष्ठ, गोल ठोड़ी, दबी हुई हिचकी, लंगी ग्रीवा, भौहों से भिड़ने वाली बिच्छु के डंक तुल्य काली मूंछे व नारियल के जटा सी लम्बी दाढ़ी, केहरी कटि व छाती, लंबे हाथ व नीचे का मांसल तंग को प्रकृति ने बड़ी चतुराई से बनाया है।
जिन प्रदेश के पुरुषों का रुप भी जब इतना मन-मोहक है तब उन माताओं के रुप-लावण्य का तो बखान कहाँ तक करें जिनके कोख से सुडौल सन्तति का जन्म होता है। माखण, भूमल, सूमल, भारमली, जैसी अनिंद्य सुन्दरियों की कहानियाँ कपोल-कल्पित नहीं हैं वरन् गाँव-गाँव में ऐसी पद्मनियां देखी जा सकती है। पूंगलगढ़ की पद्मनियां तो जग-विख्यात रही हैं, जिनका पूर्वी भाग मारवाड़ प्रदेश के अंतगर्त आता है। ऐसी पद्मनियां जब सोलह श्रृंगार कर निकलती है तो इन्द्र की अप्सराओं के तुल्य प्रतीत होती हैं।
यहाँ के नर-नारियों का वर्णन किसी कवि के द्वारा इस प्रकार मिलता है:-
१. सदा सुरंगी कामण्यां, औढ़े चंगा वेश ।
बांका भड़ खग बांधणां, अइजो मुरधर देश ।।
२. गंधी फूल गुलाग ज्यूं, उर मुरधर उद्यांण ।
मीठा बोलण मानवी, जीवण सुख जोधांग ।।
मारवाड़ के नर-नारियों के रुप का जितना बखान करें उतना अल्प रहेगा पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यहां के जनसाधारण का उच्च वयक्तित्व है। युगों के संस्कारमय जीवन ने मारवाड़-वासियों के व्यक्तित्व को बारीकी से तराशा है। सरल स्वभाव, वचन पालन, अतिथि सत्कार, आडम्बर शून्यता, कुशल व्यवहार, परिश्रमी जीवन, मीठी बोली, आस्त्कि, मारवाड़ी वयक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। ये सभी लक्षण न्यूनाधिक रुप में सत्पुरुषों के गुणों के नजदीक हैं जैसा कि कवि-कुल-शिरोमणि बाल्मीकि ने कहा है, "प्रशमश्च क्षमा चैव आर्जव प्रियवादिता' अर्थात शांति, क्षमा, सरलता और मधुर भाषण ये सत्पुरुषों के लक्षण हैं। जनसाधारण के व्यक्तित्व स्तर से ऊपर यहां के अधिक संस्कार संपन्न समुदायों में व्यक्तित्व का वह उच्च स्तर अभी भी देखने को मिलता हैं जो आज के भौतिक व भोग प्रधान युग में लगभग समाप्त हो चुका है। जिसका आकलन एक दोहे के द्वारा इस प्रकार किया गया है:-
काछ द्रढ़ा, कर बरसणां, मन चंगा मुख मिट्ठ ।
रण सूरा जग वल्लभा, सो राजपूती दिट्ठ ।।
मारवाड़ी समाज में चोरी और जोरी को "अमीणी' (कलंक) अथवा सबसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। जिस व्यक्ति में ऐसी दुर्बलातायें हो उसे समाज सदैव पतित मानता है। आम मारवाड़ी लोगों का चोरी व जोरी विमुक्त व्यक्तित्व उच्च सांस्कृतिक स्तर का परिचायक है। मारवाड़ी व्यक्तित्व के जैसा है तथा पाश्चात्य जगत् की दोहरे व्यक्तित्व से यह काफी दूर है। यहां जीवन को सार्वजनिक व घरेलू या निजी जीवन की काल्पनिक परिधियों में बांटा गया है। वस्तुतः मनुष्य की समस्त कियाओं का योग ही उसका व्यक्तितव है।
वचन पालन मारवाड़ी समाज के व्यक्तित्व का प्रधान गुण है। रघुवंशियों द्वारा युगों पूर्व प्रतिपादित इस आर्याव
देश में "प्राण जाए पर वचन न जाए' का आदर्श मारवाड़ियों के रोम-रोम में समाया हुआ है। सगाई-विवाह, व्यापार, रुपये, सोना-चाँदी, पशुधन, जमीन-जायदाद आदि सभी का लेन-देन केवल जबान पर या केवल मौखिक स्वीकृति पर होते हैं। एक बार कह दिया सो लोहे की लकीर। समाज में ऐसे ही लोगों का यशोगान होता है:-
मरह तो जब्बान बंको, कूख बंकी गोरियां ।
सुरहल तो दूधार बंकी, तेज बंकी छोड़ियाँ ।।
मारवाड़ के सत्-पुरुषों के वचन पालन की जीवन घटनाएँ हमारी संस्कृति और इतिहास की बड़ी महत्वपूर्ण घटनाएँ है। पाबूजी राठौड़ द्वारा देवल चारणी को दिए वचन, वीर तेजा जी के लाछा गूजरी व विशधर सपं को दिए गए वचन, बल्लू जी चंपावत द्वारा अपने पिता गोपीनाथ जी, अमरसिंह जी राठौड़ व उदयपुर महाराणा को दिए गए वचन, जाम्भोजी द्वारा राव हूदा जी (मेड़ताधिपति) को दिए वचन आदि की कहानियों से मारवाड़ की संस्कृति व इतिहास से लोग सुपरिचित हैं। ये लोग यह भी भली-भांति जानते हैं कि मारवाड़ में जगह-जगह वचनसिद्ध महापुरुषों के दृष्टांत विद्यमान हैं जो मरुवासियों को सतत् प्रेरणा देते रहेंगे।
अतिथि सत्कार की उत्कृष्ट भावना मारवाड़ियों के व्यक्तित्व में चार-चांद लगा देती है। उनका अतिथि सत्कार जग विख्यात रहा है। इसका राज यह है कि मारवाड़ में "मेह' (वर्षा) तो बहुत कम होती है पर यहाँ "नेह' (स्नेह) का सरोवर सदा भरा रहता है। यहाँ एक लोक उक्ति बड़ी प्रचलित है कि "धरां आयोड़ो ओर धरां जायोड़ो बराबर हुवे हैं।' अर्थात घर पर आया अतिथि घर के पुत्र-पुत्री के समान होता है। अतिथि की आवभगत करना एक पुण्य अर्जित करने जैसा कार्य है। वैदिक संस्कृति के "अतिथि देवो भव' की मूल भावना न्यूनाधिक रुप में यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण मिलेगा।
जिस प्रकार मनुष्य के कर्म उसके व्यक्तित्व को परखने की कसौटी है उसी प्रकार उसकी भाषा-वाणी भी उतना ही सशक्त माध्यम है। किसी देश, प्रदेश की शिष्ट, मीठी बोल-चाल की भाषा, वार्तालाप आदि वहाँ की उन्नत संस्कृति के आधार हैं।
मारवाड़ी लोगों की मीठी वाणी जग प्रसिद्ध है। यहाँ मध्यकालीन सामंती युग में राजा-महाराजाओं, रावों, जागीरदारों, दीवान व मुस्तदियों, सेठ-साहूकारों, दरबारी कवियों, पंडितों, चारण , भाटों और भांगणयारों ने दैनिक जीवन में शिष्टाचार, औपचारिकता, अदब और तमीज निर्वाह के लिए जिस मीठी शिष्ट बोली का सृजन किया, वह बेजोड़ है। मीठेपन के साथ-साथ मारवाड़ियों की भाषा बहुत ही मर्यादित है। विश्व की किसी भी भाषा में ऐसी उच्च कोटि की श्रेष्ठताएँ नहीं है।
मारवाड़ियों की बोल-चाल भाषा में "दादोसा, बाबोसा, दादीसा, भाभूसा, काकोसा, काकीसा, कँवर सा, नानूसा, मामूसा, नानीसा, मामीसा, लाडेसर, लाड़ली, बापजी, अन्नदाता, आप पधारो सा, बिराजोसा, जल अरोगावो सा, आराम फरमावो सा, राज पधारयन सोभा होसी सा' आदि ऐसी कई कर्ण प्रिय शब्दावलियां हैं जो हर आदमी हर दिन विपुलता के साथ प्रयोग करता है।
गाँव में सभी बड़े-बूढ़ों को सम्मान स्वरुप बाबा व काका शब्दों से संशोधित किया जाता है। गांव में जन्मी स्रियों को बहन-बेटी तुल्य समझकर उनके पतियों को बिना किसी विभेद के सभी लोग जंवाई या पावणां (मेहमान) कहकर पुकारते हैं।
अंत में यह कहना समीचीन होगा कि मारवाडवासियों का चित्ताकर्षक रुप-रंग, सीधा, सरल, आस्तिक भाव, परिश्रमी पर आत्म-संतोषी जीवन और उसके साथ मीठी कर्णप्रिय मर्यादित भाषा व बोली ने मिलकर उनके व्यक्तित्व को बहुत परिष्कृत कर संवारा है।
मारवाड़ी पुरुष औसत मध्यम कद वाली होते हैं। उनका गेहुँवा अथवा लाल मिश्रित पीत वर्ण रुप-लावण्य का प्रतीक है। फिर उनके श्याम कुन्तल बाल, गोल शिर, मृगनयन, शुक-नासिका, मुक्ता सदृश्य दंत, छोटी मुँह-फाड़ व ओष्ठ, गोल ठोड़ी, दबी हुई हिचकी, लंगी ग्रीवा, भौहों से भिड़ने वाली बिच्छु के डंक तुल्य काली मूंछे व नारियल के जटा सी लम्बी दाढ़ी, केहरी कटि व छाती, लंबे हाथ व नीचे का मांसल तंग को प्रकृति ने बड़ी चतुराई से बनाया है।
जिन प्रदेश के पुरुषों का रुप भी जब इतना मन-मोहक है तब उन माताओं के रुप-लावण्य का तो बखान कहाँ तक करें जिनके कोख से सुडौल सन्तति का जन्म होता है। माखण, भूमल, सूमल, भारमली, जैसी अनिंद्य सुन्दरियों की कहानियाँ कपोल-कल्पित नहीं हैं वरन् गाँव-गाँव में ऐसी पद्मनियां देखी जा सकती है। पूंगलगढ़ की पद्मनियां तो जग-विख्यात रही हैं, जिनका पूर्वी भाग मारवाड़ प्रदेश के अंतगर्त आता है। ऐसी पद्मनियां जब सोलह श्रृंगार कर निकलती है तो इन्द्र की अप्सराओं के तुल्य प्रतीत होती हैं।
यहाँ के नर-नारियों का वर्णन किसी कवि के द्वारा इस प्रकार मिलता है:-
१. सदा सुरंगी कामण्यां, औढ़े चंगा वेश ।
बांका भड़ खग बांधणां, अइजो मुरधर देश ।।
२. गंधी फूल गुलाग ज्यूं, उर मुरधर उद्यांण ।
मीठा बोलण मानवी, जीवण सुख जोधांग ।।
मारवाड़ के नर-नारियों के रुप का जितना बखान करें उतना अल्प रहेगा पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यहां के जनसाधारण का उच्च वयक्तित्व है। युगों के संस्कारमय जीवन ने मारवाड़-वासियों के व्यक्तित्व को बारीकी से तराशा है। सरल स्वभाव, वचन पालन, अतिथि सत्कार, आडम्बर शून्यता, कुशल व्यवहार, परिश्रमी जीवन, मीठी बोली, आस्त्कि, मारवाड़ी वयक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। ये सभी लक्षण न्यूनाधिक रुप में सत्पुरुषों के गुणों के नजदीक हैं जैसा कि कवि-कुल-शिरोमणि बाल्मीकि ने कहा है, "प्रशमश्च क्षमा चैव आर्जव प्रियवादिता' अर्थात शांति, क्षमा, सरलता और मधुर भाषण ये सत्पुरुषों के लक्षण हैं। जनसाधारण के व्यक्तित्व स्तर से ऊपर यहां के अधिक संस्कार संपन्न समुदायों में व्यक्तित्व का वह उच्च स्तर अभी भी देखने को मिलता हैं जो आज के भौतिक व भोग प्रधान युग में लगभग समाप्त हो चुका है। जिसका आकलन एक दोहे के द्वारा इस प्रकार किया गया है:-
काछ द्रढ़ा, कर बरसणां, मन चंगा मुख मिट्ठ ।
रण सूरा जग वल्लभा, सो राजपूती दिट्ठ ।।
मारवाड़ी समाज में चोरी और जोरी को "अमीणी' (कलंक) अथवा सबसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। जिस व्यक्ति में ऐसी दुर्बलातायें हो उसे समाज सदैव पतित मानता है। आम मारवाड़ी लोगों का चोरी व जोरी विमुक्त व्यक्तित्व उच्च सांस्कृतिक स्तर का परिचायक है। मारवाड़ी व्यक्तित्व के जैसा है तथा पाश्चात्य जगत् की दोहरे व्यक्तित्व से यह काफी दूर है। यहां जीवन को सार्वजनिक व घरेलू या निजी जीवन की काल्पनिक परिधियों में बांटा गया है। वस्तुतः मनुष्य की समस्त कियाओं का योग ही उसका व्यक्तितव है।
वचन पालन मारवाड़ी समाज के व्यक्तित्व का प्रधान गुण है। रघुवंशियों द्वारा युगों पूर्व प्रतिपादित इस आर्याव
देश में "प्राण जाए पर वचन न जाए' का आदर्श मारवाड़ियों के रोम-रोम में समाया हुआ है। सगाई-विवाह, व्यापार, रुपये, सोना-चाँदी, पशुधन, जमीन-जायदाद आदि सभी का लेन-देन केवल जबान पर या केवल मौखिक स्वीकृति पर होते हैं। एक बार कह दिया सो लोहे की लकीर। समाज में ऐसे ही लोगों का यशोगान होता है:-
मरह तो जब्बान बंको, कूख बंकी गोरियां ।
सुरहल तो दूधार बंकी, तेज बंकी छोड़ियाँ ।।
मारवाड़ के सत्-पुरुषों के वचन पालन की जीवन घटनाएँ हमारी संस्कृति और इतिहास की बड़ी महत्वपूर्ण घटनाएँ है। पाबूजी राठौड़ द्वारा देवल चारणी को दिए वचन, वीर तेजा जी के लाछा गूजरी व विशधर सपं को दिए गए वचन, बल्लू जी चंपावत द्वारा अपने पिता गोपीनाथ जी, अमरसिंह जी राठौड़ व उदयपुर महाराणा को दिए गए वचन, जाम्भोजी द्वारा राव हूदा जी (मेड़ताधिपति) को दिए वचन आदि की कहानियों से मारवाड़ की संस्कृति व इतिहास से लोग सुपरिचित हैं। ये लोग यह भी भली-भांति जानते हैं कि मारवाड़ में जगह-जगह वचनसिद्ध महापुरुषों के दृष्टांत विद्यमान हैं जो मरुवासियों को सतत् प्रेरणा देते रहेंगे।
अतिथि सत्कार की उत्कृष्ट भावना मारवाड़ियों के व्यक्तित्व में चार-चांद लगा देती है। उनका अतिथि सत्कार जग विख्यात रहा है। इसका राज यह है कि मारवाड़ में "मेह' (वर्षा) तो बहुत कम होती है पर यहाँ "नेह' (स्नेह) का सरोवर सदा भरा रहता है। यहाँ एक लोक उक्ति बड़ी प्रचलित है कि "धरां आयोड़ो ओर धरां जायोड़ो बराबर हुवे हैं।' अर्थात घर पर आया अतिथि घर के पुत्र-पुत्री के समान होता है। अतिथि की आवभगत करना एक पुण्य अर्जित करने जैसा कार्य है। वैदिक संस्कृति के "अतिथि देवो भव' की मूल भावना न्यूनाधिक रुप में यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण मिलेगा।
जिस प्रकार मनुष्य के कर्म उसके व्यक्तित्व को परखने की कसौटी है उसी प्रकार उसकी भाषा-वाणी भी उतना ही सशक्त माध्यम है। किसी देश, प्रदेश की शिष्ट, मीठी बोल-चाल की भाषा, वार्तालाप आदि वहाँ की उन्नत संस्कृति के आधार हैं।
मारवाड़ी लोगों की मीठी वाणी जग प्रसिद्ध है। यहाँ मध्यकालीन सामंती युग में राजा-महाराजाओं, रावों, जागीरदारों, दीवान व मुस्तदियों, सेठ-साहूकारों, दरबारी कवियों, पंडितों, चारण , भाटों और भांगणयारों ने दैनिक जीवन में शिष्टाचार, औपचारिकता, अदब और तमीज निर्वाह के लिए जिस मीठी शिष्ट बोली का सृजन किया, वह बेजोड़ है। मीठेपन के साथ-साथ मारवाड़ियों की भाषा बहुत ही मर्यादित है। विश्व की किसी भी भाषा में ऐसी उच्च कोटि की श्रेष्ठताएँ नहीं है।
मारवाड़ियों की बोल-चाल भाषा में "दादोसा, बाबोसा, दादीसा, भाभूसा, काकोसा, काकीसा, कँवर सा, नानूसा, मामूसा, नानीसा, मामीसा, लाडेसर, लाड़ली, बापजी, अन्नदाता, आप पधारो सा, बिराजोसा, जल अरोगावो सा, आराम फरमावो सा, राज पधारयन सोभा होसी सा' आदि ऐसी कई कर्ण प्रिय शब्दावलियां हैं जो हर आदमी हर दिन विपुलता के साथ प्रयोग करता है।
गाँव में सभी बड़े-बूढ़ों को सम्मान स्वरुप बाबा व काका शब्दों से संशोधित किया जाता है। गांव में जन्मी स्रियों को बहन-बेटी तुल्य समझकर उनके पतियों को बिना किसी विभेद के सभी लोग जंवाई या पावणां (मेहमान) कहकर पुकारते हैं।
अंत में यह कहना समीचीन होगा कि मारवाडवासियों का चित्ताकर्षक रुप-रंग, सीधा, सरल, आस्तिक भाव, परिश्रमी पर आत्म-संतोषी जीवन और उसके साथ मीठी कर्णप्रिय मर्यादित भाषा व बोली ने मिलकर उनके व्यक्तित्व को बहुत परिष्कृत कर संवारा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें