मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

राजस्थान के गांव में 'चक दे इंडिया'


राजस्थान के गांव में 'चक दे इंडिया'

नारायण बारेठ

साभार ...जयपुर से बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए


जर्मनी की आंद्रिया भारत में हाशिये पर आए हॉकी के खेल को प्रोत्साहित करने में लगी हैं. आंद्रिया ने राजस्थान के एक गांव में हॉकी के प्रति लड़के-लड़कियों में ऐसा अनुराग पैदा किया है कि हर पगडण्डी पर 'चक दे इंडिया' का गान सुनाई देता है.आंद्रिया खुद भी जर्मनी में हॉकी की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी रही हैं. आंद्रिया के आगमन ने दौसा ज़िले के गढ़ हिम्मत सिंह गांव की तस्वीर बदल दी है.पूर्वी राजस्थान के इस गांव में घर का दालान, गांव का चौक और खेत को मुखातिब पगडण्डी 'चक दे इंडिया' के गान से गुंजायमान है. हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, लेकिन आंद्रिया खेल को सरहदों के बंधन में बांध कर नहीं देखतीं. 
वो इसे देहाती बच्चों के व्यक्तित्व के विकास का ज़रिया मानती हैं. वो पर्यटन व्यवसाय में हैं और पिछले कई सालों से भारत आती जाती रही हैं.

लेकिन एक दिन जब वो गढ़ हिम्मत सिंह गांव गई और मटमैले परिवेश में बच्चो को देखा तो उन्हें सहसा लगा कि बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए. आंद्रिया बताती हैं कि उन्होंने कोई डेढ़ साल पहले ये काम शुरू किया और आज उनके पास साठ किशोर लड़के-लड़कियों का समूह है जो हॉकी के खेल में लगा हुआ है.
बनाई टीम

वो कहती हैं "ये महज़ संयोग था कि मैं भी हॉकी की खिलाड़ी हूँ. मेरे काम में भागीदार भारतीय साथी मुझे इस गांव तक लेकर आए. मैंने देखा बच्चों के लिए कोई खेल सुविधा नहीं थी. सो मैंने उनके लिए हॉकी का इंतजाम किया और फिर देखते-देखते टीम बन गई."

आंद्रिया कहती हैं कि उनकी टीम में लड़कियों का बाहुल्य है. भारत में लड़कियों पर कम ध्यान दिया जाता है. फिर लड़को का ज्यादा ध्यान क्रिकेट पर होता है. लेकिन एक लड़की खेलने आती है तो अगले दिन उसके साथ उसकी सहेलियां भी आने लगती हैं. आंद्रिया को भारत में हॉकी की हालत पर बहुत दुख है.

आंद्रिया ने अपने मुल्क में भी लोगों को इन बच्चों की मदद के लिए प्रेरित किया और खेल का सामान जुटाया.

वो इन स्कूली बच्चों को उंगली पकड़ कर जयपुर, दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों तक ले गईं ताकि गांव का बचपन बदलते भारत की तस्वीर देख सके.

वो कहती हैं, "मेट्रो और ट्राम जैसे आधुनिक साधन हमारे लिए सामान्य बात हैं मगर ये इन बच्चों के लिए नई बात थी. लिहाजा मैं इन्हें बड़े नगरों तक ले गई ताकि वे एक नई दुनिया को देख सकें."
बदली ज़िंदगी

गढ़ हिम्मत सिंह गांव में दसवीं जमात की छात्रा सारथि कहती हैं, "आंद्रिया ने हमारी जिन्दगी ही बदल दी है. हम आंद्रिया का एहसान नहीं भूल सकते. हमारे लिए हॉकी खेलना नामुमकिन था. एक दूसरे देश से आकर उन्होंने हमारे लिए जो किया है, पूरा गांव उनका कृतज्ञ है.इसी गांव की शिखा कहती हैं, "आंद्रिया तो हमारी अभिभावक हैं. वो हमारी बहुत मदद करती हैं. हॉकी खेलना तो दूर हमने कभी हॉकी को छुआ तक नहीं था. आज हम दूसरे शहरों में हॉकी खेलने जाने लगे हैं."

पर ऐसा क्या था जो आंद्रिया को लगा कि उन्हें कुछ करना चाहिए. वो कहती हैं, "जर्मनी में बच्चों के लिए खेल की बहुत सुविधाएं हैं. मैंने गांव में देखा इन बच्चों के लिए कोई सुविधा नहीं थी. मुझे लगा इन बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए. इसीलिए मैंने यहीं से हॉकी विलेज इंडिया फाउंडेशन बनाकर काम शुरू किया गया."

हरे भरे खेतों और ऊसर रास्तों के बीच हाथ में हॉकी थामे भागते बच्चे गढ़ हिम्मत सिंह गांव की बहुत मोहक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं. मगर आंद्रिया जानती हैं कि ये शुरू में कितना दुश्वार था.
मुश्किल

वो कहती हैं,"बहुत मुश्किल था. डेढ़ साल पहले काम शुरू किया. अब पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है कि पहले पता होता कि इतना कठिन होगा तो शायद मैं ना करती. भाषा की समस्या, मैदान नहीं, साधन नहीं. बच्चों को टीवी पर मैच के मंजर दिखाए, ये भी बताया कि डी क्या होती है. लोग देखते और मुस्करा कर चल देते. इन बच्चों ने कभी हॉकी का मैच नहीं देखा था. चित्रों और वीडियो के जरिए इन्हें हॉकी के बारे में बताया और साथ ही चक दे इंडिया फिल्म भी दिखाई."
आंद्रिया ने इन बालिकाओं को बड़े शहरों में अभिजात्य वर्ग के स्कूलों में ले गईं और धनी-मानी लोगों के बच्चों के सामने खेल के मैदान में उतारा.

जयुपर में एक ऐसे ही स्कूल के मैदान में गांव की बालिकाओं और शहर के अच्छे घरों की बालिकाओं का मुकाबला हुआ. गांव हारा जरूर, मगर लोगों का दिल जीत ले गया.

शहर के सितारा स्कूल में हॉकी टीम की कप्तान नेहा कहने लगी, "इनके साथ खेलना अच्छा लगा. इन्हें एक्स्पोसजर मिला और हमारा अभ्यास हो गया. दरसल ये दो अलग-अलग परिवेश का समावेश था. इन लड़कियों में लगन है. खेल में इनकी पकड़ अच्छी है."


आंद्रिया हॉकी को इन देहाती बच्चों के व्यक्तित्व के विकास का ज़रिया मानती हैं.

आंद्रिया कहती हैं कि शुरू में हॉकी स्टिक तो जुटा ली, लेकिन बच्चे नंगे पांव खेलते तो कुछ के पांव चोटिल हो जाते, ये बहुत दुखद था. फिर हमने जर्मनी से स्पोर्ट्स शूज़ जुटाए. गांव में खेल का मैदान तक नहीं था. फिर एक छोटा मैदान बनाया गया. मैदान छोटा था लेकिन आंद्रिया और गांव के लोगों ने दिल का दायरा बढ़ा कर हालत को अनुकूल कर लिया. आंद्रिया को हिंदी के चंद शब्द ही आते हैं. लिहाज़ा उसने गांव में बच्चों को अंग्रेजी की तालीम देना भी शुरू कर दिया है.

आंद्रिया कहती हैं, "कुछ समय बाद लोग देखेंगे कि कैसे ये गांव अच्छे खिलाड़ी तैयार कर रहा है.भारत में कोच मैच के दौरान बैठ कर देखते हैं, मैं पूरे समय इन बच्चों के पास रहती हुं. मेरे लिए ये एक परिवार है."
हॉकी के ज़ादूगर

वो हॉकी के जादूगार ध्यानचंद का दौर था जब भारत ने बर्लिन में जर्मनी को शिकस्त दी थी. आंद्रिया इतिहास के इस पहलू को जानती हैं, लेकिन जब कभी ये बच्चे उसके देश जर्मनी के खिलाफ मैदान में उतरेंगे तो आंद्रिया किसके पक्ष में होंगी.

वो कहती हैं, "बेशक मेरा दिल जर्मनी के लिए धड़कता है, लेकिन ये बच्चे मेरे अपने हैं. मैंने इन्हें खड़ा किया है, मैं इन बच्चों के साथ ही खड़ी मिलूंगी."

कभी-कभी विदेशी सैलानी भी इस गांव का रुख कर लेते हैं क्योंकि ये आगरा-जयपुर पर्यटन मार्ग के करीब है.
गढ़ हिम्मत सिंह के देवेन्द्र कहते हैं,"गांव की फिजा ही बदल गई है. आंद्रिया तारीफ की हक़दार हैं. बच्चे हॉकी खेलते हैं,अब उनके लिए इंग्लिश स्पीकिंग क्लासेज भी शुरू कर दी है. हाँ गांव वाले भी इतना सीख गए हैं कि अगर कोई पर्यटक आता है तो काम चलाऊ अंग्रेजी में बात कर लेते हैं."

अपने इस काम में आंद्रिया को क्या कुछ ख़राब महसूस हुआ. वो कहती हैं कि सब उनके काम की तारीफ करते हैं. मगर जब किसी काम के लिए सम्पर्क करो तो सब एक-दुसरे पर टालते नजर आते हैं. सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि कोई जिम्मेदारी नहीं लेता.

आंद्रिया जर्मनी की हैं, मगर वो हाथों में हॉकी थामे भारत के बचपन के साथ खड़ी हैं. पर हॉकी को मौका मिला तो वो ये जरूर पूछेंगी कि जब देश में उसकी बेकद्री हो रही थी, भारत में खेल के नीति नियंता कहाँ थे.

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