शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

हिन्दी का यह लाडला मैथिलीशरण गुप्त जन्म दिन पर विशेष आलेख

जन्म दिन पर विशेष आलेख 


3 अगस्त सन् 1886 को झाँसी के चिरगाँव में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के सर्वाधिक प्रभावी तथा लोकप्रिय रचनाकारों में से एक हैं। आपकी कविताओं में बौध्द दर्शन, महाभारत तथा रामायण के कथानक स्वत: उतर आते हैं। हिन्दी की खड़ी बोली के रचनाकार, मैथिलीशरण गुप्त जी हिन्दी कविता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के समान हैं।
मानवीय संवेदना और जीवन दर्शन के साथ-साथ आपकी रचनाएँ अनेक स्थानों पर सूक्तियाँ बन गई हैं। ‘रंग में भंग’, ‘भारत-भारती’, ‘जयद्रथ वध’, ‘विकट भट’, ‘प्लासी का युध्द’, ‘गुरुकुल’, ‘किसान’, ‘सिध्दराज’, ‘जयभारत’, ‘द्वापर’, ‘वैतालिक’, ‘कुणाल’, ‘यशोधरा’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’, ‘अर्जन-विसर्जन’, ‘काबा-क़र्बला’ और ‘साकेत’ आपकी प्रकाशित काव्य-कृतियाँ हैं। इसके अतिरिक्त आपने ‘तिलोत्तमा’ और ‘चरणदास’ नाम से दो नाटक भी लिखे।
सन् 1964 में हिन्दी का यह लाडला पुत्र मृत्यु की गोद में सो गया।

नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्व कहाँ
तुम स्वत्व-सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें