रविवार, 20 मई 2012

सिंध की प्राचीन पारम्परिक काशीदा शैली है हरमुचो

बाडमेर। कशीदाकारी भारत का पुराना और बेहद खूबसूरत हुनर है। बेहद कम साधनों और नाममात्र की लागत के साथ शुरू किये जा सकने वाली इस कला के कद्रदान कम नहीं है। रंग बिरंगे धागों और महीन सी दिखाई देने वाली सुई की मदद से कल्पनालोक का ऐसा संसार कपड़े पर उभर आता है कि देखने वाले दांतो तले अंगुलिया दबा लेते है। लखनऊ की चिकनकढ़ाई पश्चिमी बंगाल के कॉथा और गुजरात की कच्छी कढ़ाई का जादू हुनर के शौकीनों के सिर चढ़कर बोलता है। इन सबके बीच सिंध की क शीदाकारी की अलग ही पहचान है। तेज रफ्तार जिन्दगी में जबकि हर काम मशीनों से होने लगा है, सिंधी कशीदाकारों की कारीगरी 'हरमुचोÓ किसी अजूबे से कम नजर नहीं आती। बारीक काम और चटख रंगों का अनूठा संयोजन सामान्य से वस्त्र को भी आकर्षक और खास बना देता है। नई पीढ़ी को इस हुनर की बारीकियों सिखाने के लिये भोपाल के राष्ट्रीय मानव संग्रहालय ने पहचान कार्यक्रम के तहत हरमुचो के कुशल कारीगरों को आमंत्रित किया। इसमें कशीदाकारों ने हरमुचो कला के कद्रदानों को सुई, धागे से रचे जाने वाले अनोखे संसार के दर्शन कराये। हरमुचो सिंधी भाषा का शब्द है जिसका शब्दिक अर्थ है कपड़े पर धागों को गूंथ कर सज्जा करना।
हरमुचो भारत की प्राचीन और पारम्परिक कशीदा शैलियों में से एक है। अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में प्रचलित होने के कारण इसे सिंधी कढ़ाई भी कहते है। सिंध प्रांत की खैरपुर रियासत और उसके आस.पास के क्षेत्र हरमुचो के जानकारों के गढ़ हुआ करते थे। यह कशीदा प्रमुख रूप से कृषक समुदायों की स्त्रियां फसल कटाई के उपरांत खाली समय में अपने वस्त्रों की सज्जा के लिये करती थी। आजादी के साथ हुए बंटवारे में सिंध प्रांत पाकिस्तान में चला गया किंतु यह कला अब भी भारत के उन हिस्सों में प्रचलित है. जो सिंध प्रांत के सीमावर्ती क्षेत्र है। पंजाब के मलैर कोटला क्षेत्र, राजस्थान के श्रीगंगानगर, गुजरात के कच्छ, महाराष्ट्र के उल्हासनगर तथा मध्यप्रदेश के ग्वालियर में यह कशीदा वर्तमान में भी प्रचलन में है।
हरमुचो कशीदा को बचाए रखने का श्रेय सिंधी समुदाय की वैवाहिक परंपराओं को जाता है। सिंधियों में विवाह के समय वर के सिर पर एक सफेद कपड़ा जिसे 'बोराणी' कहते है, को सात रंगो द्वारा सिंधी कशीदे की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें डिजाइन का न तो कपड़े पर पहले कोई रेखाकंन किया जाता है और न ही कोई ट्रेसिंग ही की जाती है। डिजाइन पूर्णत: ज्यामितीय आकारों पर आधारित और सरल होते है। जिन्हें एक ही प्रकार के टांके से बनाया जाता है जिसे हरमुचो टांका कहते है। यह दिखने में हैरिंघ बोन स्टिच जैसा दिखता है परन्तु होता उससे अलग है।
पारम्परिक रूप से हरमुचो कशीदा वस्त्रों की बजाए घर की सजावट और दैनिक उपयोग में आने वाले कपड़ों में अधिक किया जाता था। चादरो, गिलाफों, रूमाल, बच्चों के बिछौने, थालपोश, थैले आदि इस कशीदे से सजाए जाते थे। बाद में बच्चों के कपड़े, ओढ़नियों आदि पर भी हरमुचो ने नई जान भरना शुरू कर दिया। आजकल सभी प्रकार के वस्त्रों पर यह कशीदाकारी की जाने लगी है। मेंटी कशीदे की तरह सिंधी कशीदे में कपड़े के धागे गिन कर टांको और डिजाइन की एकरपता नहीं बनाई जाती। इसमें पहले कपड़े पर डिजाइन को एकरपता प्रदान करने के लिए कच्चे टांके लगाए जाते है। जो डिजाइन को बुनियादी आकार देते है। सिंधी कशीदा हर किस्म के कपड़े पर किया जा सकता है। राजस्थान के सरहदी इलाकों में इस कशीदाकारी के हस्तशिल्पी कलाकारों की कमी नहीं है।

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