तावड़े में टसके रामप्यारी

यह कविता आदरणीय ओम पुरोहित कागद भाई सब ने मेरे एक समाचार पर लिखी हें जो आपके लिए पेश हें बा कविता पढ'र देखो म्हैं आप नै ई भेंट करी है

तावड़े में टसके रामप्यारी
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तपा सूरज
झुलसी धरती
तपी गैंती
तपी तगारी
फिर भी चलता
काम सरकारी
तपे तावड़े
नत्थू खोदै
तपी तावड़ै
लाल तगारी
भरती माटी
जोड़ायत उसकी
टसके रामप्यारी !

टूटे तन
लगी प्यास तो
देख खेजड़ी
बैठ गई सुस्ताने
छाता ले कर
बाबू आया
तपता गुर्राया
काम करो
छोड बहाना
लगती जादा
तुझ को गर्मी
कल से मत आना !

टंगी खेजड़ी
छागळ रीती
पानी की सब
बातें बीती
आंखो टपका
नत्थू बोला
भोली-गैली
जोड़ायत मेरी
माफ करो
साहब इसको
काम करेगी
जम कर सारे
मानेगी सब
इशारे थारे !

हाथ जोड़ कर
नत्थू बोला
गर्मी का क्या
पड़ती रहती है
सूरज का क्या
तपता रहता है
धरती को ये
नित झुलसाते हैं
आग पेट की
इन से भारी
नहीं रुकेगा
काम सरकारी
कंठ हमारे
जब तक गीले
नहीं पड़ेंगे
हम दोनों ढीले !
Om Purohit Kagad

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