सच की सजा
अमेरिका किसी भी देश पर हमला करने से काफी पहले उसकी एक मीडिया रणनीति तैयार करता है। लगभग पूरी दुनिया में फैली अमेरिकी समाचार एजेंसियों के मार्फत वो उस देश को बदनाम करने का अभियान चलता है। वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक युद्ध का नमूना हमारे सामने है। इराक को मानवीय सभ्यता को नुकसान पहुंचाने वाले हथियारों के नाम पर बदनाम किया गया। अब वैसी ही कोशिश ईरान के खिलाफ भी चल रही है। ईरान के खिलाफ भी तरह-तरह से दुष्प्रचार चलाया जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं कि दुनिया भर की मीडिया में ऐसे ही लोग हैं जो किसी के इशारों पर केवल दुष्प्रचार अभिया नही चलाते हैं। बहुत से ऐसे पत्रकार भी हैं जो इसके खिलाफ भी खड़े होते हैं। ऐसे पत्रकारों को सच बोलने और विरोध करने की कीमत भी चुकानी पड़ती है। भारत में भी ऐसे ही एक वरिष्ठ पत्रकार एम.ए. काजमी, ईरान के खिलाफ अमेरिका-इजरायल के दुष्प्रचार अभियान के शिकार बने हैं।
पिछले दिनों दिल्ली पुलिस ने काजमी को इजरायली दूतावास के एक अधिकारी की गाड़ी में विस्फोट के मामले में गिरफ्तार कर लिया। काजमी करीब 30 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। उन्हें मध्य-पूर्व देशों के मामले में महारत हासिल है। मध्य-पूर्व के कई देशों से और वहां की एजेंसियों के लिए
वो काम कर चुके हैं। भारत में भी दूरदर्शन से उनका जुड़ाव रहा है। उन्हें प्रेस सूचना ब्यूरो से मान्यता मिली है और वो प्रधानमंत्री के साथ उनकी
विदेश यात्राओं में भी जाते रहे हैं। पत्रकार के बतौर अपने लेखन के जरिये उन्होंने हमेशा अमेरिका-इजरायल और उसकी नीतियों के आलोचक रहे हैं। ऐसे
पत्रकार की गिरफ्तारी के कई मायने हैं। इससे मीडिया संस्थानों में काम कर रहे पत्रकारों को एक संदेश भी देने की कोशिश की जा रही है।
काजमी की गिरफ्तारी अपने आप में कोई इकलौता मामला नहीं है। पहले भी पत्रकारों की गिरफ्तारियां और हत्याएं होती रही हैं। ये अलग बात है कि
समय के मुताबिक इसके कारण अलग रहे हैं मसलन, अलगाववाद, आतंकवाद या नक्सलवाद-माओवाद। आतंकवाद से कहीं ज्यादा पत्रकारों की गिरफ्तारियां माओवाद के नाम पर हुई हैं। जुलाई 2010 में एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे की माओवादी बताकर हत्या कर दी गई। इस मामले में आज तक निष्पक्ष जांच नहीं हो सकी है। माओवाद के नाम पर ही गिरफ्तार हुई इलाहाबाद की पत्रकार सीमा आजाद पिछले 2 सालों से लगातार जेल में हैं। माओवादी कमांडर होने के नाम पर 2007 गिरफ्तार हुए द स्टैट्समैन के संवाददाता प्रशांत राही पिछले दिनों चार साल जेल में गुजारने के बाद रिहा हुए। मुंबई के मासिक पत्रिका विद्रोही निकालने वाले पत्रकार सुधीर धवले और दिल्ली से एक छोटा अखबार टूटती सांकले निकालने वाली महिला पत्रकार अनु अभी भी जेल में ही हैं।
काजमी की ही तरह कश्मीर पर सरकारी नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखने के कारण कश्मीर टाइम्स के पत्रकार इफ्तेखार गिलानी को भी कई महीनों जेल में
गुजारना पड़ा। बाद में अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया।
एम.ए. काजमी की गिरफ्तारी के मामले में अंतरराष्ट्रीय संदर्भों को छोड़ दिया जाए तो देशी संदर्भों में भी पत्रकारों की गिरफ्तारी और उनकी हत्याएं उसी तरह होती रही हैं जैसा अमेरिका के इशारे पर दूसरे देशों में होता रहा है। अमेरिका की तर्ज पर भारत में भी सरकारें पहले अपना एक आभासी
दुश्मन खड़ा करती हैं। फिर उससे लड़ने के नाम पर सभी नियम कानून ताक पर रख देती हैं। इसकी आड़ में वो उन सभी जनविरोधी नीतियों को लागू कर लेना चाहती हैं जो एक शांत समाज में संभव नहीं हो पाती। 70 के दशक में नक्सलवाद, 90 के दशक में खालिस्तानी और कश्मीरी अलगाववाद, पूर्वोत्तर भारत में चल रहा अलगाववादी आंदोलन, मध्य भारत में माओवादी आंदोलन ऐसे ही कुछ नमूने हैं, जो समय-समय पर सरकारों के लिए ‘गंभीर चुनौती’ रहे या हैं।
जबकि ये साबित हो चुका है कि सारे अलगाववादी आंदोलनों और उसके नेताओं को खुद शासकों ने ही खड़ा किया और उन्हें पाला पोसा। खालिस्तान के मामले में भिंडरावाला का उदाहरण हम सबके सामने है। पूर्वोत्तर भारत में कई सारे अलगाववादी संगठनों को भारतीय खुफिया एजेंसियां गुपचुप तरीके से मदद करती हैं ताकि दूसरे अलगाववादी संगठनों को कमजोर किया जा सके। ऐसे में मीडिया की ही जिम्मेदारी बनती है कि वो इन सारे मामलों से परदा उठाये और जो कुछ हो रहा है उसे लोगों के सामने तथ्यों सहित प्रस्तुत करे। मीडिया अपनी इस जिम्मेदारी को कितना निभाती है ये अलग बहस का विषय है। लेकिन बहुत से ऐसे पत्रकार हैं जो सरकार और अपने संस्थान की नीतियों के खिलाफ जाकर भी सच लिखने की कोशिश में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों को काजमी की ही तरह की मुश्किलंे झेलनी पड़ती है। दरअसल सत्ता ऐसी गिरफ्तारियों के बहाने अपने खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज को पहले ही कुचल देना या कुंद कर देना चाहती हैं। हमें लगता है काजमी की मामले में भी यही हो रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार सैयद अहमद काज़मी की गिरफ्तारी हिंदुस्तान के अंदरूनी मामलात और आंतरिक सुरक्षा में इज़राइल व अमरीका के बढ़ते दखल की तरफ इशारा कर रही हैं। काज़मी देश के उन संजीदा और बड़े पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं जिन्हें मध्य पूर्व के मामलों की गहरी जानकारी है। इतना ही नहीं वे पिछले पच्चीस सालों से भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। अगर इजराइल और अमरीका के इशारों पर उन जैसे पत्रकार की नाजायज गिरफ्तारी हो सकती है तो समझा जा सकता है कि देश में कोई भी आदमी महफूज नहीं है।
विदेशी इशारों पर की गई इस गिरफ्तारी का विरोध करते हुए 16 मार्च दिन शुक्रवार दोपहर 3 बजे अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि राजघाट से इज़राइल अंबेसी तक विरोध मार्च का आयोजन किया जा रहा है।
आइए भारत की संप्रभुता और आतंकवाद व माओवाद के नाम पर बेगुनाह बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी के विरोध में इस मार्च में शामिल हों।
अमेरिका किसी भी देश पर हमला करने से काफी पहले उसकी एक मीडिया रणनीति तैयार करता है। लगभग पूरी दुनिया में फैली अमेरिकी समाचार एजेंसियों के मार्फत वो उस देश को बदनाम करने का अभियान चलता है। वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक युद्ध का नमूना हमारे सामने है। इराक को मानवीय सभ्यता को नुकसान पहुंचाने वाले हथियारों के नाम पर बदनाम किया गया। अब वैसी ही कोशिश ईरान के खिलाफ भी चल रही है। ईरान के खिलाफ भी तरह-तरह से दुष्प्रचार चलाया जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं कि दुनिया भर की मीडिया में ऐसे ही लोग हैं जो किसी के इशारों पर केवल दुष्प्रचार अभिया नही चलाते हैं। बहुत से ऐसे पत्रकार भी हैं जो इसके खिलाफ भी खड़े होते हैं। ऐसे पत्रकारों को सच बोलने और विरोध करने की कीमत भी चुकानी पड़ती है। भारत में भी ऐसे ही एक वरिष्ठ पत्रकार एम.ए. काजमी, ईरान के खिलाफ अमेरिका-इजरायल के दुष्प्रचार अभियान के शिकार बने हैं।
पिछले दिनों दिल्ली पुलिस ने काजमी को इजरायली दूतावास के एक अधिकारी की गाड़ी में विस्फोट के मामले में गिरफ्तार कर लिया। काजमी करीब 30 सालों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। उन्हें मध्य-पूर्व देशों के मामले में महारत हासिल है। मध्य-पूर्व के कई देशों से और वहां की एजेंसियों के लिए
वो काम कर चुके हैं। भारत में भी दूरदर्शन से उनका जुड़ाव रहा है। उन्हें प्रेस सूचना ब्यूरो से मान्यता मिली है और वो प्रधानमंत्री के साथ उनकी
विदेश यात्राओं में भी जाते रहे हैं। पत्रकार के बतौर अपने लेखन के जरिये उन्होंने हमेशा अमेरिका-इजरायल और उसकी नीतियों के आलोचक रहे हैं। ऐसे
पत्रकार की गिरफ्तारी के कई मायने हैं। इससे मीडिया संस्थानों में काम कर रहे पत्रकारों को एक संदेश भी देने की कोशिश की जा रही है।
काजमी की गिरफ्तारी अपने आप में कोई इकलौता मामला नहीं है। पहले भी पत्रकारों की गिरफ्तारियां और हत्याएं होती रही हैं। ये अलग बात है कि
समय के मुताबिक इसके कारण अलग रहे हैं मसलन, अलगाववाद, आतंकवाद या नक्सलवाद-माओवाद। आतंकवाद से कहीं ज्यादा पत्रकारों की गिरफ्तारियां माओवाद के नाम पर हुई हैं। जुलाई 2010 में एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे की माओवादी बताकर हत्या कर दी गई। इस मामले में आज तक निष्पक्ष जांच नहीं हो सकी है। माओवाद के नाम पर ही गिरफ्तार हुई इलाहाबाद की पत्रकार सीमा आजाद पिछले 2 सालों से लगातार जेल में हैं। माओवादी कमांडर होने के नाम पर 2007 गिरफ्तार हुए द स्टैट्समैन के संवाददाता प्रशांत राही पिछले दिनों चार साल जेल में गुजारने के बाद रिहा हुए। मुंबई के मासिक पत्रिका विद्रोही निकालने वाले पत्रकार सुधीर धवले और दिल्ली से एक छोटा अखबार टूटती सांकले निकालने वाली महिला पत्रकार अनु अभी भी जेल में ही हैं।
काजमी की ही तरह कश्मीर पर सरकारी नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखने के कारण कश्मीर टाइम्स के पत्रकार इफ्तेखार गिलानी को भी कई महीनों जेल में
गुजारना पड़ा। बाद में अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया।
एम.ए. काजमी की गिरफ्तारी के मामले में अंतरराष्ट्रीय संदर्भों को छोड़ दिया जाए तो देशी संदर्भों में भी पत्रकारों की गिरफ्तारी और उनकी हत्याएं उसी तरह होती रही हैं जैसा अमेरिका के इशारे पर दूसरे देशों में होता रहा है। अमेरिका की तर्ज पर भारत में भी सरकारें पहले अपना एक आभासी
दुश्मन खड़ा करती हैं। फिर उससे लड़ने के नाम पर सभी नियम कानून ताक पर रख देती हैं। इसकी आड़ में वो उन सभी जनविरोधी नीतियों को लागू कर लेना चाहती हैं जो एक शांत समाज में संभव नहीं हो पाती। 70 के दशक में नक्सलवाद, 90 के दशक में खालिस्तानी और कश्मीरी अलगाववाद, पूर्वोत्तर भारत में चल रहा अलगाववादी आंदोलन, मध्य भारत में माओवादी आंदोलन ऐसे ही कुछ नमूने हैं, जो समय-समय पर सरकारों के लिए ‘गंभीर चुनौती’ रहे या हैं।
जबकि ये साबित हो चुका है कि सारे अलगाववादी आंदोलनों और उसके नेताओं को खुद शासकों ने ही खड़ा किया और उन्हें पाला पोसा। खालिस्तान के मामले में भिंडरावाला का उदाहरण हम सबके सामने है। पूर्वोत्तर भारत में कई सारे अलगाववादी संगठनों को भारतीय खुफिया एजेंसियां गुपचुप तरीके से मदद करती हैं ताकि दूसरे अलगाववादी संगठनों को कमजोर किया जा सके। ऐसे में मीडिया की ही जिम्मेदारी बनती है कि वो इन सारे मामलों से परदा उठाये और जो कुछ हो रहा है उसे लोगों के सामने तथ्यों सहित प्रस्तुत करे। मीडिया अपनी इस जिम्मेदारी को कितना निभाती है ये अलग बहस का विषय है। लेकिन बहुत से ऐसे पत्रकार हैं जो सरकार और अपने संस्थान की नीतियों के खिलाफ जाकर भी सच लिखने की कोशिश में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों को काजमी की ही तरह की मुश्किलंे झेलनी पड़ती है। दरअसल सत्ता ऐसी गिरफ्तारियों के बहाने अपने खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज को पहले ही कुचल देना या कुंद कर देना चाहती हैं। हमें लगता है काजमी की मामले में भी यही हो रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार सैयद अहमद काज़मी की गिरफ्तारी हिंदुस्तान के अंदरूनी मामलात और आंतरिक सुरक्षा में इज़राइल व अमरीका के बढ़ते दखल की तरफ इशारा कर रही हैं। काज़मी देश के उन संजीदा और बड़े पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं जिन्हें मध्य पूर्व के मामलों की गहरी जानकारी है। इतना ही नहीं वे पिछले पच्चीस सालों से भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। अगर इजराइल और अमरीका के इशारों पर उन जैसे पत्रकार की नाजायज गिरफ्तारी हो सकती है तो समझा जा सकता है कि देश में कोई भी आदमी महफूज नहीं है।
विदेशी इशारों पर की गई इस गिरफ्तारी का विरोध करते हुए 16 मार्च दिन शुक्रवार दोपहर 3 बजे अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि राजघाट से इज़राइल अंबेसी तक विरोध मार्च का आयोजन किया जा रहा है।
आइए भारत की संप्रभुता और आतंकवाद व माओवाद के नाम पर बेगुनाह बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी के विरोध में इस मार्च में शामिल हों।
जर्नलिस्टस यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी(JUCS)
द्वारा जारी
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