गुरुवार, 29 मार्च 2012

सिन्धु नदी तंत्र ... थार के प्यासे मरुस्थल तक हिमालय का पानी ले आये


सिन्धु नदी तंत्र और राजस्थान




जिस गति से देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है, वह निश्चय ही राष्ट्रीय विकास नीति निर्धारकों के समक्ष एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है और समय रहते हुए जल नियोजन के लिए सटीक प्रयास नहीं किए गये तो राष्ट्रीय विकास गति मन्थर पड़ जाएगी, यद्यपि यह निश्चित है कि बदली हुई पर्यावरणीय दशाओं के कारण समाप्त हुए भू-जल स्रोतों का पुनर्भरण तो नहीं हो सकता किन्तु जल की खपत को नियंत्रित कर उसके विकल्प तलाशे जा सकते हैं, जैसे कठोर जनसंख्या नियंत्रण, शुष्क-कृषि पद्धतियां एवम् जल उपयोग के लिए राष्ट्रीय राशनिंग नीति इत्यादि। साथ ही के. एल. राव (1957)द्वारा सुझाए गए नवीन नदी प्रवाह ग्रिड सिस्टम का अनुकरण एवम् अनुसंधान कर हिमालियन एवम् अन्य नदियों को मोड़ कर देश के आन्तरिक जल न्यून वाले सम्भागों की ओर उनके जल को ले जाया जा सकता है। सम्प्रति देश की समस्त नदियों के जल का 25 प्रतिशत भाग ही काम में आता है। शेष 75 प्रतिशत जल समुद्र में गिर कर सारा खारा हो जाता है।

नदियों के मार्ग बदलना आधुनिक तकनीकी कौशल में कोई असम्भव कार्य नहीं है। केवल उत्तम राष्ट्रीय चरित्र के साथ दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ ब्रह्मपुत्र नदी में ही इतना पानी व्यर्थ बहता है कि उसके 10 प्रतिशत पानी को भारत भूमि के मध्य से गुजरने के लिए बाध्य कर दिया जाए तो देश के समस्त जल संकट दूर हो जाएंगे।

भारतवर्ष जैसे देश में नदियों के भागों को मनोवांच्छित दिशा में प्रवाहित करवाने की परम्परा कोई नयी अवधारणा भी तो नहीं हैं। ऐतिहासिक सत्य के अनुसार महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा गंगासिंह जी का उदाहरण भी हमारे समक्ष है जिन्होंने सिन्धु नदी प्रवाह से एक नयी नदी (राजस्थान नहर) का निर्माण कर थार के प्यासे मरुस्थल तक हिमालय का पानी ले आये जो निश्चय ही अनुकरणीय है।

महाराजा गंगा सिंह के द्वारा थार मरुस्थल हेतु खोजे गये पानी (इन्दिरा गाँधी नहर) का इतिहास प्रस्तुत लेख में दिया गया है जो आधुनिक जल-चेताओं के लिए सुन्दर मार्गदर्शक के रूप में उत्साहप्रद है।

यद्यपि थार मरुस्थल में पानी लाने की खोज अर्थात प्यासे थार मरुस्थल में हिमालियन नदियों से नहर के द्वारा पानी लाने का सर्वप्रथम विचार बीकानेर के स्वर्गीय महाराजा डूंगरसिंह जी का था। (पानगड़िया 1985) उन्हें यह निश्चय था कि अगर सिन्धु नदी प्रवाह तन्त्र से पानी मिल जाए तो इस थार मरुस्थल की कायापलट होकर यह एक सरसब्ज प्रदेश में बदल जाये।

सन् 1884 में पड़ौसी रियासत पंजाब में अबोहर नहर का निर्माणकर बीकानेर रियासत के बहुत पास तक पानी पहुंचा दिया जिससे महाराजा का उत्साह और बढ़ गया तथा वे इस दिशा की ओर आगे बढ़ा दिया जाये तो निश्चित रूप से इस मरुस्थल को सहज ही पानी मिल जाये इस प्रस्ताव के लिए महाराज डूंगरसिंह जी ने पंजाब रियासत से अनुरोध किया किन्तु पंजाब रियासत ने उपर्युक्त प्रस्ताव को यह कह कर ठुकरा दिया कि पंजाब के “नदी प्रवाह” पर बीकानेर रियासत का कोई अधिकार नहीं है। किसी प्रकार के अंतिम निर्णय पर पहुँचने से पूर्व ही सन् 1887 में महाराज डूंगरसिंरह जी का देहान्त हो गया और तब सात वर्षीय उनके छोटे भाई गंगासिंह जी उत्तराधिकारी बने।

जैसे ही परिपक्व अवस्था में गंगासिंह जी ने प्रवेश किया और राज्य को संभाला तो उनका ध्यान इस प्यासे मरुस्थल में सिन्धु नदी तंत्र से पानी लाने पर निरन्तर बना रहा और 1899 में भीषण अकाल ने उन्हें बुरी तरह झकझोर डाला। उनकी रियासत का सम्पूर्ण जल जीवन या तो मृतप्राय हो गया या अस्त-व्यस्त हो गया। अकाल की इस भयंकर मार से क्रुद्ध होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार को लिखा कि आपके राज्य से हमें क्या लाभ, जहां प्यास के कारण जनता मर जाये। इस “छप्पने अकाल” की विभीषिका ने अवश्य ही ब्रिटिश सरकार को चौंका कर इस क्षेत्र को सिन्धु नदी तंत्र से पानी प्रदान करवाने के लिए सोचने हेतु बाध्य कर दिया। पंजाब के समकालीन ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारी सर डेनजिल इब्बरटशन (Ibertusun) ने पंजाब के इस मन्तव्य को कि, “बीकानेर रियासत का सिंध नदी प्रवाह तंत्र पर कोई अधिकार नहीं है।” गलत बताया और यह पेशकश की कि पंजाब रियासत अपने आप में सम्प्रभु नहीं है। इसलिए सिन्धु नदी प्रवाह के पानी का उपभोग करने का अंतिम अधिकार ब्रिटिश सरकार के पास है न कि पंजाब रियासत के पास। भारत सरकार (ब्रिटिश) इस प्रवाह तंत्र के पानी का सदुपयोग अपनी किसी भी रियासत में जन कल्याण हेतु कर सकती है। इस मन्तव्य का समर्थन पंजाब के वित्त-आयुक्त सर लिविस टूपर (Liwis Tuper) ने भी किया।

किन्तु थार में पानी लाने की समस्या का हल सहज में ही सम्भव नहीं था। जैसे ही भारत सरकार (ब्रिटिश) ने बीकानेर को सतलज नदी से पानी देने का प्रस्ताव मंजूर किया तो भावलपुर रियासत (वर्तमान में पाकिस्तान में है) ने रियासत पंजाब की भाँति ही विरोध किया कि बीकानेर रियासत का सिन्धु नदी प्रवाह पर कोई अधिकार नहीं है। और इस विरोध में पंजाब ने भी भावलपुर का समर्थन किया। पंजाब एवं भावलपुर के निरंतर विरोध के बाद भी बीकानेर रियासत को सफलता मिली और 1918 में सतलज नदी से पानी की स्वीकृति मिल गई।

भारत सरकार (ब्रिटिश) का आदेश था कि “जनहित में सिन्धु नदी प्रवाह के पानी को अन्य क्षेत्रों में प्रयुक्त किया जाये और केवल इस आधार पर इसे न रोका जाये कि बीकानेर रियासत का नदी प्रवाह पर अधिकार नहीं है इसलिए उसे पानी नहीं मिलना चाहिए। पानी के सदुपयोग में भारत सरकार एवं देशी रियासतों की सीमा बीच में नहीं आनी चहिए।“ इस आदेश ने सदियों से प्यासे थार मरूस्थल में पानी के आगमन हेतु रास्ता खोल दिया और 1927 में सतलज का पानी 130 किलोमीटर लम्बी गंगानहर द्वारा बीकानेर रियासत की 3.5 लाख एकड़ भूमि में सिंचाई प्रदान करने हेतु लाया गया। किन्तु बीकानेर के महाराजा गंगासिंह जी उपर्युक्त पानी-प्राप्ति से ही संतुष्ट नहीं हुए। गंगा नहर के आगमन से उनका हौसला विशेष रूप से बढ़ गया और वे निरन्तर थार मरुस्थल में सिन्धु नदी जल प्रवाह से अधिक से अधिक पानी लाने के लिए प्रयत्नशील रहे।

1938 में प्रस्तावित भाखड़ा-नांगल-योजना के पानी में भी वे अपने राज्य का हिस्सा निर्धारण कराने में सफल हुए। उन्होंने पंजाब सरकार से लिखित में यह आश्वासन प्राप्त कर लिया था कि भाखड़ा-नांगल जल परियोजना में उनके राज्य का भी हिस्सा होगा। इस समझौते के माध्यम से बीकानेर रियासत ने “सिन्धु नदी जल-प्रवाह” पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया जो भावी जल समझौतों का आधार बन गया।


सिन्धु नदी जल विवाद
सन् 1947 की स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत-पाक विभाजन हुआ जिसके कारण सिन्धु नदी जल प्रयोग में फिर से समस्या का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व तो इस नदी तंत्र के पानी पर पूर्ण अधिकार भारत सरकार (ब्रिटिश) का था, जिसने विभिन्न रियासतों में उत्पन्न होने वाले जल विवादों को अपने सर्वोच्च अधिकार के माध्यम से हल कर दिया था किन्तु अब भारत समान रूप से दो सम्प्रभु राज्यों में बंट गया था जिसकी मध्यस्थता करने वाला कोई उच्चाधिकारी नहीं रह गया था।

सिन्धु-नदी-तंत्र विश्व का सबसे बड़ा जल प्रवाह माना जाता है। जिसमें पांच नदियों झेलम, चिनाब, रावी, व्यास एव सतलज सम्मिलित हैं। इस नदी तंत्र का औसत वार्षिक-जल-प्रवाह 170 मिलियन एकड़ फीट है। विभाजन के समय इस सम्पूर्ण जल में से 83 मिलियन एकड़ फीट भारत की नहरों में तथा 64.4 मिलियन एकड़ फीट पाकिस्तान की नहरों में प्रयुक्त होता था, जिससे भारत में केवल 5 मिलियन एकड़ भूमि पर एवं पाकिस्तान में 21 मिलियन एकड़ भूमि पर सिंचाई की जाती थी। जबकि विरोधाभास यह था कि इन नदियों के सभी नियंत्रण हैडवर्क्स भारत में स्थित थे जिससे पाकिस्तान को हमेशा यह भय था कि भारत कभी भी सिन्धु-नदी-प्रवाह से पाकिस्तान को पानी देने से मना कर सकता है। इस संदर्भ में पश्चिमी पंजाब एवं पूर्वी पंजाब में कई बार समस्या आ चुकी थी। एक अप्रैल, 1948 को यह जल विवाद उस समय भयंकर रूप से उठ खड़ा हुआ जब पूर्वी पंजाब ने “बड़ी-अपर-नहर-प्रणाली” (Bold canal system) को पानी देने से मना कर दिया। इस विवाद को हल करने के लिए भारत-पाक के विभिन्न समझौते भी नाकामयाब रहे और पाकिस्तान ने भविष्य में भारत द्वारा पानी रोके जाने के भय से सशंकित होकर सतलज नदी के दाहिनी ओर नई नहर खोदनेका कार्य शुरू कर दिया जिससे कि भारत के फीरोजपुर हैडवर्क्स को नजर अन्दाज करके सतलज नदी से धौलपुर नहर के लिए सीधे ही पानी प्राप्त किया जा सके। किन्तु इन नहर का कार्य शुरू करते ही पूर्वी पंजाब द्वारा विरोध किया जाना स्वाभाविक था क्योंकि इस नहर से फिरोजपुर हैडवर्क्स की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया था। इसके विरोध में भारत ने सतलज नदी को उत्तर की ओर से ही प्रतिबंधित करने की योजना बनाई जिससे कि सतलज नदी का पाकिस्तान से प्रवेश समाप्त हो जाय। यह समस्या कश्मीर के मुद्दे के साथ भयंकर होती जा रही थी अतः युद्ध की संभावनाएं बनती रहीं।

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