यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि मेवाड़ व मालवा के इलाके, जहाँ अफीम की खेती की जाती है, उससे कही बहुत अधिक, इसका प्रचलन मारवाड़ में जैसलमेर व बाड़मेर के गाँवों में है, जहाँ कभी- कभी कोसों दूरी से पानी लाया जाता है। कहीं- कहीं तो पूरे ग्रामवासी अफीमची है। "डिंगल कोष' में अफीम के कई नाम दिये गये हैं-- नाग-झाग, कसनाग रा, काली, अमल (कुहात), नागफैण, पोस्त (नरक), आकू, कैफ (अखात), अफीण, कालागर, सांवलौ, दाणावत, कालौ आदि। बोलचाल की भाषा में इसे अफीम, अमल, कसूंबो, कहूंबो, कालियो आदि कहा जाता है।
राजस्थानी भाषा में अफीम की उत्पत्ति के विषय में एक दोहा प्रचलित है --
ं
अमल भैंस, ग चावल, चौथी रिजका चार,
इतरी दीना दायजै, वासंग रै दरबार
(अर्थात अफीम, भैंस, गेहूँ, चावल और रिजका, घोड़े को खाने वाला हरा घास, कर्ण के विवाह पर वासंग द्वारा दहेज में दिया गया था।)
एक अन्य कहावत है --
अहिधर मुख सूं ऊपणों, अह- फीण नाम अमल,
(अर्थात सपं के मुख से जो झाग उपजा, उसका नाम अमल हुआ।)
यहाँ के समाज में संत जांभोजी का प्रभाव व्यापक था। उनके संपर्क में आकर राठौड़ों ने मांस तथा मदिरा का सेवन छोड़ दिया। अफीम ने शराब का स्थान ले लिया और धीरे- धीरे इसका महत्व बढ़ता गया। विवाह, सगाई, मरण, मिलन, विछोह, मान- मनुहार, मेलजोल व आपसी समझौते के समय अफीम की मनुहार का यहाँ विशेष महत्व है। अमल के समय विभिन्न इतिहास पुरुषों को स्मरण किया जाता है। इन्हें वे "रंग देना' कहते हैं। इसमें वे ब्रम्हा से लेकर देश के राजा व चौधरी तक को अपने अमूल्य योगदान के लिए रंग देते हैं। इनका एक उदाहरण इस प्रकार दिया जा रहा है --
""रंग उदयपुर रै राणा नै, रंग रुप नगर रै ढ़ाणा नै, रंग मंडोवर री बाड़ी नै, रंग नींबाज रा किंवाड़ा नै, रंग सूरा साकदड़ा नै, रंग कोटड़ा रा घोड़ा नै, रंग तेजा जूंझारा नै, रंग मेड़ता रा अमवारां नै, रंग जसवंत सिघ री हाडी राणी नै, रंग रुपादे मल्लीनाथ री राणी नै, रंग सीता रै सत नै, रंग लिछमण जती नै, रंग ईसरदास नै, रंग जेतमाल दसमा सालगराम नै, रंग जैसल री राणी नै, रंग भीम रा अपांण नै, रंग दीवाण रोहितास नै, रंग सती कागण नै, रंग पाबू रा भाला नै, रंग जायल रा जाट नै, रंग खिंवाड़ा रा चौधरी नै, रंग जेत रा थाल नै, रंग सोनगरा री आण नै, रंग सहजादी री जबान नै, रंग हम्मीरां रा हठ नै, रंग सवाईसिंध रा वट नै, रंग महाराजा ईष्ट नै, रंग ब्रम्हा रा तृष्ट नै।
समाज में एक- दूसरे को अफीम देने की प्रथा विद्यमान रही है। अक्षय तृतीया को सभी ग्रामवासी जागीरदार के दरीखाने में अफीम- सेवन के लिए एकत्रित होते थे। इस सभा को "रेयाण' कहते हैं। जागीरदार स्वयं उस दिन अपने दाहिने हाथ से प्रत्येक ग्रामवासी को अफीम का विशेष घोल सम्मान के साथ पिलाते थे। विशेष सम्मानस्वरुप ग्रामवासी जागीरदार के हाथ को अपने "साफे' को खोलकर उसके पल्लू से हाथ साफ करते थे। अपने हाथ से प्रत्येक व्यक्ति को अफीम की मनुहार करने के बाद, उसे अपना हाथ पीकदानी में धोना पड़ता था और स्वच्छ हाथ से दूसरे ग्रामवासी को अफीम की मनुहार की जाती थी।
यहाँ के गाँवों में रिवाज के अनुसार जमाई आने को सूचना"अमल के हेले' से होती है। ग्रामीण लोग बड़ी संख्या में अफीम की आस में उनके घर मिलने जाते हैं तथा तोले का तोला अफीम खा जाते हैं।
नियमित " मावे' से अमल लेने वालों को तीन बार हथेली भर कर अमल दिया जाता है। इसे तेड़ा कहते हैं। बड़े अफीमचियों को तृप्त करने के लिए हाथ की हथेली की अंगुलियों व अंगूठे को जोड़कर एक छोटी तलाई का रुप दिया जाता है। इस प्रकार की भरपूर हथेली को "खोबा' कहा जाता है। अधिक "खोबे' पीने वाले लोगों की चर्चा रेयाण में विशेष रुप से होती है। जिस अफीमची की मनुहार भारी पड़ रही हो, वह काव्यमयी भाषा में रंग देना प्रारंभ करता है। प्रत्येक रंग के साथ वह अपने अनामिका से हथेली में भरे हुए अफीम से छीटा देने लगता है। रंग देते हुए आधा अफीम छींटे देकर ही कम कर देता है। जितना अफीम आवश्यक लगता है, उतना पी लेता है। लेकिन परंपरानुसार जब तक अफीम समाप्त न हो जाए, हथेली को बिना हिलाए सामने की तरफ रखना पड़ता है।
जब किसी अफीमची को "अमल' ज्यादा लेना होता है, तो वे अपने निकट बैठे किसी सबल अफीमची के मुँह में जबरदस्ती अफीम दे देते थे, जिसके प्रतिक्रिया में वह दुगुनी मात्रा में सुखी अफीम उसके मुँह में डाल देता था, जिसके लिए वह पहले से तैयार रहता था। कुछ अफीमचियों को नशा चढ़ाने के लिए मजाक में ही हाथापाई करनी पड़ती है। कई अफीमची तो रेयाण मे मनुहार करने पर बड़ी मात्रा में अफीम मुँह में डाल लेते थे। फिर कभी बड़ी चालाकी से उसे अमल की हंडिया में संग्रहित कर लेते थे, जिसका बाद में पुनः प्रयोग किया जा सके। रेयाण में, ऐसी मजलिस प्रायः मध्याह्म तक चलती रहती है।
रेयाण की समाप्ति के बाद अफीम की कड़वाहट को दूर करने के लिए मिसली, बताशे जैसे मीठे खाद्य बाँटे जाते हैं। इसे खारभंजणा कहा जाता है। इसका वितरण आर्थिक स्थिति के अनुसार किया जाता है। ज्यादा "खारभंजणा' वितरित करने वालों की इज्जत बढ़ती है। वितरण की जिम्मेदारी गाँव के "नाई' की होती है, जिसके बदले उसे "नेग' मिलती है।
पहले दो समूहों के झगड़े को शांत करने के लिए, पंच लोग अफीम दिलाकर आपस में एक- दूसरे की सुलह कराते थे। ऐसी मान्यता थी कि कैसी भी पुरानी दुश्मनी हो, एक- दूसरे के हाथ से अफीम ले लेने के बाद बैर खत्म हो जाती है। विवाह- सगाई में भी अफीम की मनुहार के बाद ही बात पक्की मानी जाती थी। सगाई- संबंध के गवाह के रुप में ग्रामीणों को अफीम का हेला (न्योता) किया जाता रहा है। मृत्युपरांत शोक- संतप्त परिवार से मिलने आये रिश्तेदारों को भी अफीम की मनुहार की जाती है।
गाँवों में अफीम का प्रयोग कई प्रकार से, दवाओं के रुप में भी किया जाता है, शरीर के किसी अंग में दर्द होने पर अफीम की मालिश की जाती है। किसान अपनी
कमर दर्द कम करने के लिए तो प्रायः इसी घरेलु औषधि का प्रयोग करते हैं। अफीम कब्ज पैदा करने वाला पदार्थ है, अतः दस्त होने पर भी गाँव वाले इसका प्रयोग करते हैं। सर्दी- जुकाम में अफीम को गर्म करके लेने की भी परंपरा रही है। युद्ध के समय मल- मुत्र रोकने के लिए अफीम पी जाती थी।
अफीमचियों से अफीम की लत छुड़वाना, हमेशा से ही एक समस्या रही है। कर्नल टॉड ने भी माना है -- राजपूतों का नाश अफीम ने किया। कई लोगों ने इस जहर से मुक्ति की दिशा में प्रयास किये हैं। वि. सं. १९२३ (सन् १८६६ ई.) में लिखित एक ग्रंथ में बाघसिंह का एक गुटका मिला है, जिसमें अमल छोड़ने की दवा का नुस्खा इस प्रकार दिया गया है --
।। षुरणांणी अजमो:।। कुचीला।। मोठ की जडः।। कटील की जड़।।
इस आरु चीजां कूं कूट कपड़ छांण करके रोज जिते अमल घटाना, जिती इस माँय से दवा लेणी, कुचीला पै लाती लिपटी में भेला भिजावणों दिनह की मजीसा को नाम लेकर दवा देणी।
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