मंगलवार, 31 जनवरी 2012

म्हनै रमतां ने काजल टकी लाधी ऐ मांकोरो काजलियो















म्हनै रमतां ने काजल टकी लाधी ऐ मां कोरो काजलियो



पूरे राजस्थानी में जनजीवन में काजल को विशेष महत्व है। यह यहाँ के लोगों की दैनिक श्रृंगार का हिस्सा है। इसे अंजण, कज्जल, दीय- सुत, नैनसनेह, पाटणमुखी, मोहणगती आदि कई नामों से भी जाना जाता है। जिस दीये से गृहणियां काजल बनाती हैं, उसे "काजलकर' कहा जाता है। साथ- साथ अपने आप में एक बहुत बड़ा सांकेतिक अर्थ भी रखना है। राजस्थानी लोक गीतों में भी काजल की कई बार चर्चा आ जाती है :-


काली काली काजरिया री रेखज्यूं भूरोड़े भाख्र में चमके बीजली


ढ़ोले री मूभल हाले तो ले चालू मुरधर देश, कोई विरहिगी अपने प्रियतम को गीत के माध्यम से समझाती है कि किस स्थिति में काजल सुखदायी होता है :-


काजल भरियो कूंपालो जी कोई पड़यो पिलंग अध बीचउनाला री रुत बुरी, थांनै खेलत गरभी होम कोरो काजलियोचौमासा री रुत बुरी, खेलत रल गावे काजरियोकाजरियो मत सार चौमासे - कोरो का जलियोनैणों नें समायो रे सियाला री रात का जलियो थांने आणन्द छाय- कोरो काजलियो


नायिका जब अपने प्रेमी से रुठ जाती है, तो बिना कुछ बोले अपने व्यथा का प्रदर्शन अपने काजलभरे नयनों से कर देती है :-


ना वे गावै ना हँसै, मुख बोले बोल।नैणां काजल ना दियो, ना गल पऋयों हार।।


एक नवविवाहिता, जो घूंघट की ओट से तिरछी नजरों से देखती हैं, के लिए एक कवि ने लिखा है:-


बेसर बणी मांग सिर ऊपर, मोत्यां बिंदी झलकै।काजल रेख नैणां में, घूंघट मच्छियां पलकै।।


मारवाड़ क्षेत्र में घर- घर में "घूमर' गीत गाया जाता है। जसोल वाले भटियाणी जी का एक घूमर इस प्रकार है :-


म्हनै रमतां ने काजल टोकी लाधी ऐ मांम्हारी घूमर है नखराली है ऐ मांम्हनै राठौड़ा रै घर भल दीजो ऐ मांम्हनै राठौड़ां रो पेय प्यारो लागे ऐ मां


भक्त कवयित्री मीरां ने काजल के संदर्भ में कहा है :-


गैणा गांठा राणा हम सब त्याग्या,लाग्यो कर रो चूड़ो।काजल टीकी हम सब त्याग्या,त्याग्यो बांधणा जूड़ो।।


इसका तात्पर्य यह है कि मीरा ने कृष्ण विरह में सारे सांसारिक श्रृंगारों का त्याग कर दिया है। काजल इसलिए त्यागा कि श्री कृष्ण का श्याम- सलोना रुप नयनों में रच- बस गया है।वैसे तो काजल सौभाग्यवती स्रियों का श्रृंगार है, परंतु इतिहास गवाह है कि कई बार मृत पति के शव के पास बैठकर यहाँ की वीरांगनाओं ने एक प्रतिज्ञा के ओज के साथ काजल की रेख का अंजन किया। सती का श्रृंगार भी काजल के बिना अधुरा माना जाता था।काजल के साथ-साथ काजलिया रंग भी महत्वपूर्ण है। मारवाड़ क्षेत्र में "काजली तीज' सुहागिनों का त्योहार है। इस दिन सुहागिन स्रियाँ व्रत - उपवास रखती है और सुहाग के प्रतीक के रुप में कागज, टीकी, चूड़ियाँ, मेंहदी और मजीठ आदि का दान करती है। काजल के बिना कई धार्मिक व सामाजिक कृत्य अधूरे माने जाते हैं।

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